देर तक माटी के संग सज़दा हुआ है धूप में
खेतिहर से बीज तब बोया गया है धूप में
जेठ की इस दोपहर में नींद क्यों आती नहीं
वो परिंदा दर – ब – दर क्या खोजता है धूप में
हाथ में रस्सी बंधी है और रूखे बाल हैं
एक पागल बैठकर क्या सोचता है धूप में
गंध होती क्या बदन की शख़्स वह कह पाएगा
छाँव का जो आशियाना टॉकता है धूप में
बूंद माथे की टपककर दास्तां उसकी कहे
जो फलों औ ‘ सब्जियों को बेचता है धूप में
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2.
ख्वाहिशों की भीड़ में जब खो रहे हैं हम
जुगनुओं को हाथ में रख सो रहे हैं हम
सोचकर यह रोटियों से भूख मिटती है
अंतड़ियों में रोटियाँ ही बो रहे हैं हम
हाथ में पुस्तक के बदले में थमा के शस्त्र
देश की तक़दीर ही तो खो रहे हैं हम
चार चूल्हे थे मगर अम्मी रही भूखी
घर के भीतर घर को कैसे ढो रहे हैं हम
झर गये पत्ते सभी इन टहनियों के जब
आँख में उम्मीद थी पर रो रहे हैं हम
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कुछ तो लब से कहा करे कोई
मेरी खातिर दुआ करे कोई
तोड़ कर पत्थरों के सीने को
बन के दरिया बहा करे कोई
दिल लगाया है चाँदनी से अगर ,
रात भर फिर जगा करे कोई
प्रेम बूंदों में ढल के जब आये
कितने दिन तक बचा करे कोई
छोड़ कर चल दिया शहर उनका
बेख़बर हो , रहा करे कोई !
खार राहों का फिर न चुभ जाये
बाखबर हो चला करे कोई
उम्र भर हम किया करें सज्दा
यूँ ही खुल कर हँसा करे कोई