“हम तो अपने दिल की कहते-कहते कुछ थम से गये,
जल गयी इक लाश तप के… बरगदों की छाँव में।”(प्रीति राघव)
बरगद, मतलब सबसे बड़ी उम्र का शज़र, मुख़िया ही कह लें तो गलत नहीं होगा।
दोस्तों कई दफ़ा या कहूँ कि आए दिन ही हम ये कहावत सुनते हैं कि ‘हमने अपने बाल धूप में सफेद नहीं किये’ हैं। सच भी है!हमसे एक सीढ़ी ऊपर की पीढ़ी अनुभवों की ख़ान होती है, ये सत्य जरूर है पर सत्य की नाव का खेवटिया कैसा है ये कहावत का तंत उस पर भी तो निर्भर करता है।
आज तरक्कीपसंद लोगों का जीवन जीने का तरीका,नज़रिया,सोच और सामंजस्य की आनुपातिक दशा और दिशा दोनों बदल चुके हैं। पैसा कमाने की होड़, बेहतर से बेहतर दिखावेदार मानक, परिवेश के साथ नहीं बल्कि उस से आगे भागने का कृमि दिमाग को अस्थिर और आदर्शों को खोखला कर रहा है। कोई भी मैट्रो सिटी या ‘ए-क्लास’ शहर ही नहीं, बी,सी-क्लास शहर, कस्बे तक इस होड़ाहोडी के मायाजाल में फँसे हुए हैं। इसी लाइफस्टाइल के चलते हमने अपने आगे की पीढ़ी को उनके हाथ दे रखा है जिनकी खुद की उम्र अभी पढ़ने की है- मेड,नैनी,आया कोई भी पहचान हो सकती इनकी, पर क्या यह उचित है? समय बदलने से परिवारों में बालकों की संख्या भी कम हुई है कहीं एक या कहीं दो भी।
बढ़ते लिवइन, नो किड्स ओनली मनी के तहत भी बहुत से मूल्य बदले हैं जीवन के निमित्त। हालांकि जो आज परिवेश के फटे हाल हैं उन्हें देख कर यही लगता है कि बच्चा करना ही नहीं, बस कमाओ, खाओ, उड़ाओ, जोड़ो ही बेहतर विकल्प है शायद!
परन्तु शायद तो सदा ही असमंजस की सी-सॉ पर झूलता रहता है। हम अपना गिरेबान झाँके बिना बड़ी आसानी से कह देते हैं कि अगली पीढ़ी नालायक है। संयम और धैर्य की कमी है इनमें।पर क्या ये दोषारोपण करने के ठीक पहले स्वयं के लिये कोई मपना रखा है हमने ?नहीं ना !
क्रैच,नये-नये बने पेरेंट्स को कितनी सुविधाजनक जगह लगती है, सुकून भरी हैना! जबकि आये दिन क्राइम मैगजीन, अखबार भरे रहते हैं इनके सु(कु)-संचालन की लीपापोती से, लापरवाही आदि से।
एक सवाल मेरा यहाँ कि यदि आप पर जीवन की आपाधापी से परे होड़ या दिखावों के मध्य अपने जने बालक के लिये समय नहीं है तो क्रैच या प्ले-स्कूल बेहतर विकल्प है? नहीं क्या?
तो फर्ज़ करिए जब आपके बच्चे बड़े होकर यदि आपकी ही सी आपाधापी में घिर कर आपको वृद्धाश्रम भेजने को विवश हों तो वो नालायक क्यूँ और कैसे हुए?
दिखावों से स्टेटस मेंटेन हो सकता है, लाइफस्टाइल चल सकती है, मगर जीवन तो इसमें बसे महत्वपूर्ण लोगों से ही चलता है।थोड़ा सा कम में गुजारा चल सकता है, लेकिन नैनी के भरोसे रहते हुए ना तो बच्चे का अकेले गुजारा चल सकता है और ना आपका अकेले बुढ़ापे में बिना बच्चों के।
आधार एक है बस परिस्थितियों के मापदण्ड पृथक हैं। हमेशा बोलती रही हूँ कि अपने बच्चों के सबसे अच्छे दोस्त हम ही अगर बन जायें तो किसी भी मानसिक या शारीरिक भटकाव के चौराहे पर वे कभी भी गुम नहीं होंगे। हमेशा गलत आगे की पीढ़ी क्यूँ कर हो,क्यूँ उन्हें ही हम गलत ठहरायें? महज इसलिये कि उनके बालों में चाँदी उतरी नहीं और हमारे तो सिर पर बाग खिल उठा है चाँदी का।
मनन करिए कि कभी दिया है इतना वक्त उन्हें अपनी व्यस्तताओं से निकाल कर,जितना हम उनसे अपने लिये चाहते हैं?
कभी सखा बन कर साझे किये हैं उनके अबोले ड़र जिनके पकड़े जाने के ड़र से वे आपसे कतराते हैं? कि आप पता न क्या करेंगे यदि जान गये तो?
कभी समझाया है कि ओ बच्चू , यार हमसे भी गलतियाँ हुई हैं, तू बता मेरी जगह तुम रहते तो कैसे हल करते फलाँ परेशानी को?सजेशन दे ना प्लीज!
नहीं,कतई नहीं! हमने बस लैक्चर पिलाया है, ये करो ये मत करो, ये सही है तो ये गलत है का! इतना करने भर से क्या हो गयी पेरेंटिंग की जिम्मेदारी पूरी ?सोच कर देखिये।
छोटी सी बात है आप या आपके पहले की पीढ़ी यदि पैदल या साइकिल पर विद्यालय,कॉलेज गये हो तो तब एक बिलांद का शहर और चुन्नू सी जनसंख्या होती थी, जबकि अब एक ही शहर में घंटो लग जाते गंतव्य तक पहुँचते हुए। तो अब ये घुट्टी काहे कि हमने तो साइकिल से शहर नापा, कॉलेज तक ऐसे ही पूरा कर लिया बिना सुविधाओं के। जमाना फर्क था ना साहब! तब तो हरी धनिया की एक किलो की गड्डी मुफ़्त में दे देता था मंडी वाला खान चिचा। अब अस्सी से सौ रुपये किलो खरीदते हुए जेब में अंटे लगने लगते हैं।
अनुभवों को, बातों को, किस्सों को और अपनी कमियों व गलतियों को बच्चों से साझा करिये यह बहुत जरूरी है मगर उसे जबरन का थोपा बना कर नहीं एक हँसी-खुशी,मखौल वाली कहानी, परिस्थिति बना कर। जिससे अगली पीढ़ी खीज़ कर चिढ़ से ना देखे बल्कि उसे एक अलहदा अनुभव की सीढ़ी की तरह मुस्कान के साथ अवशोषित करे।
हम सभी अपने जीवन में ढ़ेरों गलतियाँ भी कर चुके हैं,और छुपा भी चुके होंगे ही! फिर बच्चों को तो उनके आधार पर उपयुक्त व कीमती सलाह और एक ठोस निर्णय करने की धरा दे ही सकते हैं,नहीं क्या?
अपने अनुभवों को शिक्षाप्रद मनोरंजन बना कर वितरित करिये ना कि लौह अंकुश बना कर। यदि यह गलती आप कर रहे हैं तो आपके बरगद वाली छाँव में दो जेनरेशन के रिश्ते, सोच और सामंजस्य घुट कर, कुम्हला कर दम तोड़ देंगे।
सोचिये,और सोच बदल कर देखिये सच्ची मुच्ची बहुत अच्छा लगता है।