गली गली सूनी पड़ी, सड़कें हुईं उदास।
घर गर्मी में यूँ हुआ, जैसे कारावास।।
नींबू भी अब हो गया, देख पहुँच से दूर।
मँहगाई का देखिए, ये कैसा दस्तूर।।
गर्मी से ज्यादा हुई, महँगाई सरनाम।
सोने चांदी सा हुआ,नींबू का भी दाम।।
सूखा सूखा सा कुँआ, कहे खड़ा चुपचाप।
जल हाथों से जा रहा, कारण हो बस आप।।
गौरैया तरसे यहाँ, पंछी पड़ा अचेत।
पीने को बस हाथ में, रह जाएगी रेत।।
छाछ, पना, तरबूज का, सेवन सुबहो शाम।
भीषण गर्मी में मिले, तन को भी आराम।।
गरम हवाएँ लग रहीं, जैसे छुरी कटार।
मुँह पे गमछा बांध के, निकलो मेरे यार।।
घर, बाहर सब लोग हैं, गर्मी से लाचार।
सूरज करता देख लो, कैसा अत्याचार।।
सूखी नदिया रेंगती, पतली पतली धार।
नदी बचाने के लिए, आगे आओ यार।।
आम, नीम गायब हुए, पीपल भी कमजोर।
कैसा हुआ विकास ये, कटें वृक्ष चहुँओर।।
जेठ दोपहर यूँ तपी, जैसे बरसे आग।
बूँद बूँद सब जोड़ लो, वरना फूटें भाग।।
पिया बिना बिरहन जले, सूरज उगले आग।
बिरहन सूरज से कहे, किस में कितनी आग।।
करते हैं श्रमबिंदु से, श्रमिक धरा अभिषेक।
पुलकित धरती कह उठी, मेरे पुत्र अनेक।।