सूरज छुपकर जा चुका, अंधकार की ओर
अन्तःपुर में रात के, छुपी हुई है भोर
ढूंढ रहे निज स्वार्थ में, छल मिश्रित सन्दर्भ
छान रहे इतिहास का, टॉर्च लिये जो गर्भ
लोकतंत्र के जेल से, कैसे लड़ती जंग
जनता बनकर देवकी, रही कंस के संग
रहे खेलते देर तक, सभी सिपाही ताश
पंखे से लटकी रही, फुलमतिया की लाश
चलना है जब साथ ही, हमें लक्ष्य की ओर
तोड़ रहे हैं लोग क्यूँ, सद्भावों की डोर
उन्मत दावानल कहीं, कहीं सूखते ताल
बिखरे हैं चारों तरफ, जंगल के कंकाल
कब तक विक्रम की तरह, थामेगा यह भार
लोकतंत्र की पीठ पर, बैठा भ्र्ष्टाचार
जीवन का तो मूल है, लोभ,मोह का त्याग
वैभव से है कब बुझी, यह तृष्णा की आग
ईश्वर के सब रूप हैं,अलग-अलग हैं नाम
मस्जिद में जो हैं ख़ुदा, मंदिर में श्रीराम
ये दोनों जब भी मिले, हुई सार्थक खोज
कविता प्रीतम हो गई, और चित्र इमरोज