1.
कर जाती हैं आँखें गीली आवाज़ें
आती हैं जब याद पनीली आवाज़ें
काँप उठते थे सुनकर जिनको बचपन में
हाय! हुईं गुम वे रौबीली आवाज़ें
मीठे हैं हम क्योंकि बड़े हुए सुनकर
प्रेमपगी गुजियों-सी रसीली आवाज़ें
गलियों की, पनघट की खुसर-फुसर वाली
याद आती हैं छैल-छबीली आवाज़ें
यादों की सेजों पर सिमटी बैठी हैं
भोली-भाली-सी शर्मीली आवाज़ें
शोर ‘कुकर’ का बहुत है पर वह बात कहाँ?
कब करती थी माँ की पतीली आवाज़ें?
ऊपर ढक्कन अंदर जिनमें कुछ भी नहीं
वे करते हैं ख़ाली-पीली आवाज़ें
रूह के पावों में चुभती हैं जब देखो
बिखरी हैं हर ओर नुकीली आवाज़ें
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2.
सुख़न हासिल नहीं होता है ताली, दाद का होकर
ये हासिल होता है सच्चे किसी उस्ताद का होकर
मुझे जीवन के हर पहलू को छूने की तमन्ना है
मुझे भाता नहीं रहना किसी भी ‘वाद’ का होकर
चमन जिसने छुड़ाया जिसने छीनी उसकी आज़ादी
परिंदा रह गया लेकिन उसी सैयाद का होकर
ज़मानेभर के दुक्खों ने जगह पा ली है अब इसमें
भला रहता कहाँ तक दिस किसी की याद को होकर
मेरे दिल में धड़कते हैं अभी तक रुड़की-माधोपुर
भले ही रह गया हूँ अब अहमदाबाद का होकर
अब ऐसे आदमी को क्या ‘ऋषीजी’ हम कहें, बोलो
जो पीतल से करे नफ़रत मुरादाबाद को होकर