ग़ज़ल
ज़बाँ पर आज भी ताले नहीं हैं
मगर सच बोलने वाले नहीं हैं
बशर दुनिया में हैं सब एक से ही
कहीं गोरे कहीं काले नहीं हैं
हमारी सोच की दीवार है बस
ज़मीं पर सरहदें पाले नहीं हैं
नज़र में हैं जो ना-उम्मीदियाँ वो
फ़क़त उलझन है बस जाले नहीं हैं
अजब सा दर्द फैला है जहाँ में
जलन हर ओर है छाले नहीं हैं
नुकीले शब्द ही चुभने लगे यूँ
सितमगर आज भी भाले नहीं हैं
अना से पेट भर लेते हैं मुफ़्लिस
गरीबी है मगर लाले नहीं हैं
बड़ा तो ये नया घर भी है लेकिन
वो रोशनदान वो आले नहीं हैं
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ग़ज़ल
जब मिलन का सवाल आएगा
धड़कनों में उबाल आएगा
देखना एक साल आएगा
हिज्र ओढ़े विसाल आएगा
कब तलक आसमाँ पे ठहरोगे
एक दिन तो ज़वाल आएगा
आख़िरी साँस चल रही होगी
तब भी तेरा ख़याल आएगा
रूह कितनी दमक रही होगी
जिस्म कितना निढाल आएगा
तुझको सोचूँ तू सामने आ जाए
मुझको कब ये कमाल आएगा
इश्क़ रोशन रहेगा सदियों तक
हुस्न पर फिर जमाल आएगा