1
कभी तुम फूल चुनते हो, कभी तुम ख़ार चुनते हो।
कभी आँसू,कभी हुज्जत,कभी तुम प्यार चुनते हो।।
जिन्दगी के हैं रंग इतने कि हजारों ख्वाब आँखों में।
दुखी होकर कहो क्यों, किसी का इनकार चुनते हो।।
माना धुएँ से घिर गए जहनो – सहन तो क्या हुआ।
खिजाँ में जब लोग पूछें ,तो कहो इन्तज़ार चुनते हो।।
स्वप्न के फूल खिलकर झड़ गए,तब भी कहो साथी।
दिल में करार लेकर तुम मौसम का इसरार चुनते हो।।
जल कर दिन की धूप से धरती, उनींदी रात में रोए ।
शबनम से कहो हँसके कहे,दुख का संसार चुनते हो।।
गए तुम जीत भी तो क्या, भले तुम हार भी जाओ।
कहो सिजदे में झुके हो, बेखुदी का दयार चुनते हो।।
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2
तुम कहो ,तो मेरी जाँ मैं अपने अर्ज में प्यार लिक्खूँ।
मैंने जो बसर की जिन्दगी उसे खुद पे उधार लिक्खूँ।।
तुम तक पहुँचती कहाँ है वादी-ए-सबा गुंचा-ए-दिल।
अपनी आरजू लिक्खूँ, चाहे अपना इन्तजार लिक्खूँ।।
लौट के फिर आ गयी है भटकती हुई सी वही प्यास।
सोचता हूँ लब-ए-जाँ पानी का क्या किरदार लिक्खूँ।।
तुम्हारे शहर में तो किसी की कोई पहचान नहीं रही।
मौसम-ए-गुल लिक्खूँ कि बारिश का इजहार लिक्खूँ।।
ये बात दीगर है कि कहे से हर मतला शेर नहीं होता।
रेत के दिल पे फिर कैसे अपना वही इसरार लिक्खूँ।।
ये सुबह से शाम तक क्या तो है,जो जलाता है मुझको।
दिल मोम का एक घर,क्यों वही दुख बार बार लिक्खूँ।।