स्वतंत्रता की हीरक जयंती माह में जब पीछे पलटकर देखती हूँ तो तमाम सुनहरी स्मृतियाँ आँखों में तैरने लगती हैं। पढ़ाई, लिखाई, खेलकूद, घर-परिवार से जुड़ी बातों के साथ अचानक कोने में रखा रेडियो बज उठता है। जहाँ सुबह का स्वागत प्रार्थना से होता है। फिर जैसे सूरज का उजाला झिर्री से आती एक किरण के साथ धीरे-धीरे खिड़कियों से उतर सारे घर में पसर जाता, वैसे ही इसके कार्यक्रम आगे बढ़ते। हिंदी, संस्कृत, अंग्रेज़ी समाचारों के बाद सुगम संगीत और फिर फ़िल्मी गाने। इसमें सुबह कभी शोरगुल से प्रारंभ नहीं होती थी, नेपथ्य में संगीत भी बजता तो सितार या शहनाई की मधुर धुन मुंडेर पर बैठी चिड़िया की चहचहाहट में घुल जाती। कुल मिलाकर आकाशवाणी की आवाज़ें हमारी दिनचर्या की गति के साथ ही चला करतीं थीं।
फिर ‘इडियट बॉक्स’ आया जो यूँ इतना ‘इडियट’ कभी लगा तो नहीं! श्वेत-श्याम, हिलता-डुलता, एंटीना के भरोसे जीता मनोरंजन का यह डिब्बा बड़ा भला लगता। क्योंकि यह, वह समय था जब दूरदर्शन चीख-पुकार और मसालों से भरी दुनिया से इतर ‘जोड़ने’ का कार्य किया करता था। समाचार वाचक शांत मन, सधी हुई भाव भंगिमा और अनुशासन के साथ समाचार पढ़ा करते। चर्चा का कोई कार्यक्रम होता तो आने वाले अतिथि वक्ता किसी भी पक्ष के होते, लेकिन संचालकों का व्यवहार तटस्थ ही रहता था। वे बिना किसी पूर्वाग्रह के सबको समान आदर देते और वातावरण की सहजता बनाए रखते। संभवतः उन पर किसी पर दोष मढ़ने, परिणाम तक पहुँचने या ‘सबसे पहले’ दर्शकों तक सूचना पहुँचाने का कोई अतिरिक्त दबाव भी नहीं था। इसलिए तकनीक में आज की तरह संपन्न न होते हुए भी गुणवत्ता पर ध्यान अधिक था। भाषा भी, शुद्ध, स्पष्ट और सुसंस्कृत थी। तथ्यों पर बात होती थी। कार्यक्रमों से भाषा सीखी भी जा सकती थी। तब एक ही अकेला, अलबेला था लेकिन आज के दौर में सैकड़ों चैनल होने के बाद भी भाषा की श्रेष्ठता या गुणवत्ता की दौड़ में लगभग सभी बहुत पीछे छूट चुके हैं। उन्हें ‘नंबर 1’ पर आने से मतलब है। भले ही इसके लिए उन्हें झूठी, सनसनीखेज खबर ही क्यों न दिखानी पड़ जाए!
अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ही जज बन गया है। समाचार प्रस्तुति के अंदाज़ इस हद तक बदल गए हैं कि सहसा विश्वास ही नहीं होता कि हम समाचार देख रहे हैं। कभी यह नाटकीयता या मनोरंजन से भरा, तो कभी आक्रामक हो जाता है! समाचार, अब केवल सूचनाएं भर नहीं देते बल्कि एक सोच को आपके भीतर बिठाने के प्रयास करते लगते हैं। जहाँ वाचक अपनी विशिष्ट शैली और दक्षता के बाद भी किसी राजनीतिक दल के प्रति स्वयं के झुकाव को छुपा नहीं पाता और उस दल के प्रवक्ता की तरह बोलना प्रारंभ कर देता है। चर्चाएं प्रायः एकतरफ़ा रहती हैं या फिर उनमें किसी न किसी प्रतिभागी को बाहर निकालने की धमकी बीच-बीच में दी जा रही होती है। वस्तुस्थिति यह है कि मान-सम्मान, आदर का दौर अब ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ की तर्ज़ पर भाषा और व्यवहार के सामयिक मापदंडों को अपनाने लगा है। विभिन्न चैनल और उनके दर्शक अब सुनिश्चित हो चुके हैं। कुल मिलाकर सबको सबका सच पता है और अपनी-अपनी विचारधारा के आधार पर रिमोट संचालित करते हैं।
पहले विज्ञापनों की भी अपनी बहुत ही सुंदर दुनिया थी। यहाँ पारिवारिक मूल्यों को प्रधानता दी जाती थी, संस्कारों की बात होती थी। ‘हमारा बजाज’ था, मेरा नहीं! पितृसत्तात्मकता की सौ कहानियों के बीच भी एक ‘रजनी’ नाम की लड़की आकर सबकी समस्या सुलझा जाया करती थी। संयुक्त परिवार के जीवन की उपयोगिता दर्शाता ‘हम लोग’ था, जिसमें परिजन एक दूसरे के लिए जाल नहीं बिछाते थे बल्कि जान छिड़कते थे, साथ खड़े होते थे। विभाजन की त्रासदी पर निर्मित बुनियाद की लाजो जी और मास्टर हवेलीराम का प्रेम बारिश में भीगने का मोहताज़ नहीं था। वो तो लाजो जी की आँखों और मास्टर जी की मुस्कान ही समझा दिया करती थी। ‘तमस’, ‘भारत एक खोज’, ‘मालगुड़ी डेज़’ के साथ सरगम सजाए ‘सारेगामा’ और ‘अंताक्षरी’ था। उसमें आज सा छिछोरापन नहीं था कि हर एपिसोड में स्क्रिप्ट के हिसाब से होस्ट पर दिल आ जाए या कि प्रतिभागी के माता/ पिता को जज से इश्क़ हो गया। वो जमाना पुराना था पर उसमें बेसिर पैर के आधुनिक ‘नागिन’ जैसे धारावाहिक नहीं थे। ‘सुरभि’, ‘बॉर्नविटा क्विज़ कॉन्टेस्ट’ फूहड़पन से कोसों दूर विशुद्ध ज्ञानवर्धक कार्यक्रम थे, जिनमें स्वस्थ मनोरंजन भी हुआ करता था। अभी केबीसी ही ऐसा कार्यक्रम है जिसने इस गरिमा को संजोए रखा है। कुछेक अपवाद और भी संभाव्य हैं।
राष्ट्रीय एकता का भाव संचारित करने का कोई एक दिन तय नहीं था। कभी सरगम हर तरफ से बजती हुई देशराग बन गूँजती थी तो कभी ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ सुन पैर और हृदय दोनों ठिठक जाते थे। यकीन मानिए, तब प्रादेशिक भाषा के बोल भले पूरे समझ भी नहीं आते थे, पर वो भाव भीतर तक कुछ यूँ उतरे हुए हैं कि अब भी उनका जादू सिर चढ़कर बोलता है। ‘एक चिड़िया,अनेक चिड़िया’ गीत एकता की कहानी बड़े सरल शब्दों में समझा जाता। जब उसमें दीदी समझातीं कि हिम्मत से गर जुटें रहें तो/ छोटे हों पर मिले रहें तो/ बड़ा काम भी होवे भैया तो मन एक अलग ही ऊर्जा से भर जाता! यह बात न भूलने वाली ही है कि ‘फूल हैं अनेक किंतु माला फिर एक है।’ हमारी भारतीयता का सार भी तो यही है।
त्योहार का आनंद किसी विदेशी ‘ट्रिप’ पर नहीं बल्कि पूरे परिवार के साथ उठाया जाता था। दीवाली पर सबके घरों में मिठाई के थाल सजते और उनका परस्पर आदान-प्रदान भी होता। एक के घर में फ्रिज आए तो पूरा मोहल्ला खुशी मनाता। फिर बर्फ सबके लिए जमाई जाती। तब फ्रिज भले ही छोटे थे, पर दिल बड़े थे। ए.सी. नहीं था। उस पर खूब लाइट भी जाती थी पर बच्चे उसमें जीने के अभ्यस्त थे। एक ही टेलीफोन हुआ करता था, जो ड्रॉइंग रूम में स्टूल पर रखा रहता क्योंकि पड़ोसियों के फोन भी उस पर आते! जितनी जरूरत, उतनी ही बात होती परंतु वर्तमान समय के व्हाट्सएप जैसा उधारी की खोखली सुप्रभात और शुभ रात्रि का रिवाज न था।
कुछ कहना होता तो दिल निकालकर चिट्ठियों में कुछ यूँ रख दिया जाता कि अगला दौड़ा चला आए। राखी पर बिटिया घर आती तो पड़ोस के दूर वाले चाचा के बेटे को भी राखी बाँध आती कि कोई कलाई सूनी न रहे! गाँव का कोई भी हो, खूब मजे से घर रह जाता। ये नहीं कि सगे बहिन भाई-बहिन भी आएं और कोई घर रुकने तक को न कहे।
तब कुछ न होते हुए भी रिश्तों का मूल्य था, स्नेह, अपनापन और संवेदनशीलता थी। अब सब कुछ होते हुए भी सारे भाव विलुप्त हो चुके हैं। सबको पास लाने की तमाम तकनीक भरे प्रयोजनों के बाद भी दिलों में दूरी बढ़ती जा रही है। चिट्ठियों की संवेदनाएं, अब एक इमोजी की शक्ल मे वितरित होने लगी हैं। बस क्लिक भर की बात है और एक पल में दुख- सुख, हँसी-संवेदना, नमन, श्रद्धांजलि का पैक हाजिर है।
कोरोना महामारी के चलते जीवन की क्षण भंगुरता से इस तरह साक्षात्कार हुआ कि लगने लगा था, अब मानवता नए उदाहरण प्रस्तुत करेगी। कुछ ऐसे किस्से सामने आए भी। लेकिन स्थिति सुधरते ही समाज वही पुराने संकीर्ण और क्रूर विचारों से भर गया।
यह सच है कि समय के साथ विकास होता है और आज का वर्तमान एक दिन इतिहास बन जाता है। पीछे मुड़कर देखें तो परिवर्तन की एक लंबी लक़ीर दृश्यमान होने लगती है। कुछ बीते पल अचंभित करते हैं तो कुछ उदासी या मुस्कान दे जाते हैं। लेकिन न जाने क्यों एक प्रश्न सामने आ खड़ा होता है कि हमारी संवेदनाओं को क्या हो गया है! उन्हें तो सहेजा जा सकता था न!
वो समाज जो एक इकाई की तरह था। जिसमें हर बात पर हिन्दू मुस्लिम नहीं होता था और कट्टरता के नाम पर कत्लेआम इतने आम नहीं थे, न जाने उसमें विद्रूपता कैसे आ गई? क्या हो गया है हमारी सोच को और सामाजिक वातावरण को कि राजनीति ने व्यक्ति को व्यक्ति का दुश्मन बना दिया है? हम उनके लिए अपनों से ही लड़ बैठते हैं जो अपने दल के भी न हो सके! देश के तो क्या ही होंगे! समाज में यह जो भी हो रहा, उसके लिए कौन जिम्मेदार है? क्या हम नहीं? हाथ जोड़ अपनों के लिए दुआ कीजिए, उन्हें उनके हिस्से का स्नेह दीजिए। गर हो सके तो राजनीतिक भट्टी की आग में किसी अपने को न झुलसाइए!
जब से धर्म-निरपेक्षता, एकता, अखंडता, विश्व-बंधुत्व की बात करने वाले संदेह के दायरे में आने लगे। ‘भक्ति’, पूजा से अधिक उपहास का पर्याय बन गई और असहमति ‘देशद्रोह’ का, तबसे समाज को एक करने के कार्यक्रम लगभग अदृश्य ही हैं। बल्कि उन बातों को बहुत जोर-शोर से प्रचारित एवं प्रसारित किया जाता है, जो खून खौला दें। सकारात्मक या समाज को दिशा देने वाली चर्चाओं के स्थान पर अफ़वाहों का बाज़ार अधिक गर्म रहता है। इसमें व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी उत्प्रेरक की भूमिका निभाती है। जिसके माध्यम से देश के युवाओं की ‘सच्ची देशभक्ति’ किसी धर्म विशेष के आह्वान के साथ तौली जाती है।
दुर्भाग्य ही कहेंगे इसे कि आह्वान, ‘भारतीयता’ को लेकर कभी नहीं किया जाता! विघटनकारी शक्तियां जानती हैं कि जहाँ ‘भारतीय’ प्रयोग होगा, वहाँ विध्वंस की बातें हो भी नहीं सकतीं! ‘भारतीय’ शब्द तो हमारी सभ्यता, संस्कृति और संस्कार का प्रतीक पुंज है जो हमारी सोच और मानसिकता का बाल बांका भी नहीं कर सकता!
हम भारतीयों का अभिमान हमारा तिरंगा है। हमारी आन-बान-शान की साक्षात मूरत है ये। राष्ट्रगान के साथ इसकी खिलती रंगत और लहराता रूप हमारी रगों में नया जोश भर देता है, आँखों में खुशी की नमी अपना घर बना लेती है। इस तिरंगे की सार्थकता, इसके तीनों रंगों से है। यह प्रत्येक भारतीय का धर्म है कि इनको अलग-अलग करके नहीं, बल्कि इसके एकाकार रूप को देखें और सदा के लिए आत्मसात कर लें! देशभक्ति का इससे सुंदर भाव और क्या हो सकता है? यूँ देशभक्ति डंडे के जोर पर सिखाने की वस्तु भी नहीं, एक अनुभूति है जो अंतर्मन से उपजती है।
हम सभी को स्वतंत्रता के पचहत्तरवें वर्ष की बधाई हो!
‘ये शुभ दिन है हम सबका, लहराओ तिरंगा प्यारा’
जयतु भारतम्!
*तिरंगा छवि गूगल से साभार