‘धरती’ पत्रिका का नया अंक वैज्ञानिक चेतना और भारतीय समाज विषय पर केंद्रित है। कहा जा सकता है कि इस विषय पर यह एक महत्वपूर्ण एवं अभिनव प्रयास है। धरती की विशेषता ही यह है कि यह उन सृजनशील व्यक्तियों और मुद्दों पर अंक केंद्रित करती है जो महत्वपूर्ण होते हुए भी तत्समय चर्चा के केंद्र में नहीं रहते। त्रिलोचन शास्त्री, शील जी, शलभ श्रीराम सिंह के अलावा गजल, समकालीन कविता, साम्राज्यवादी संस्कृति बनाम जनपदीय संस्कृति, कश्मीर, पत्रकारिता और किसान आंदोलन पर केंद्रित अनूठे अंक इसके प्रमाण हैं। संप्रति अंक, भारतीय समाज में पैठती अवैज्ञानिक एवं जड़ चेतना के बरक्स तार्किक-वैज्ञानिक सोच की आवश्यकता पर केंद्रित है| इसमें संपादकीय के साथ-साथ बारह अन्य लेख समाज में व्याप्त यथास्थिति या जरूरी वैज्ञानिक चेतना के बारे में हैं।
अपने संपादकीय में शैलेन्द्र जी कहते हैं कि – प्रकॄति की कार्यशैली को समझना ही विज्ञान का उद्देश्य है। वे कहते हैं – वैज्ञानिक पद्धति सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन को बल देती है। और आगे – ज्ञान-निर्मिति की इस पद्धति से मानव और समाज को मूलतः यही सीखना है कि कोई भी ज्ञान अंतिम नहीं है। प्रत्येक ज्ञान, परीक्षण उपरांत ही मान्य है। आगे साहित्य के संदर्भ में वे जन-पक्षधरता और प्रतिबद्धता की बात करते हैं। विज्ञान के स्थूल और सूक्ष्म प्रभावों की बात करते हैं।
विचार प्रखंड में मुकेश असीम आर्थिक परिस्थितियों के प्रभाव से निर्मित वैज्ञानिक समाज का यथार्थपरक विश्लेषण करते हैं। प्रदीप विज्ञान और तकनीक का अंतर स्पष्ट करते हैं। राजकुमार राही विज्ञानपरक शिक्षा से वैज्ञानिक चेतना के विकास को रेखांकित करते हैं। राजीव गुप्ता शिक्षा के विकृत होते रूपों की सामाजिक-राजनीतिक पड़ताल बखूबी व्याख्यायित करते हैं। जावेद अनीस, भारतीय मुस्लिम समाज में वैज्ञानिक चेतना की स्थिति से हमें रूबरू कराते हैं। अभिषेक श्रीवास्तव समाज में वैज्ञानिक चेतना की अनुपस्थिति पर गहन चिंता जाहिर करते हैं। दिगंबर वैज्ञानिक नजरिए का वस्तुगत विश्लेषण करते हैं। जवरीमल पारख भारतीय हिंदी सिनेमा पर वैज्ञानिक और विचारधारात्मक प्रभाव का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हैं। मणीन्द्रनाथ ठाकुर सांस्कृतिक चेतना और सत्यवीर सिंह चार्वाक-लोकायत परंपरा की भारतीय सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ में बात करते हैं।
वैज्ञानिक चेतना पर इतने समृद्ध चिंतन और विश्लेषण के साथ-साथ इस अंक में साहित्यिक सामग्री भी यथेष्ट, समृद्ध और पर्याप्त मात्रा में समाहित है। सुपरिचित कवि विजेन्द्र जी की स्मृति में उनकी मृत्युपूर्व लिखी कुछ महत्वपूर्ण कविताएं, आईदान सिंह भाटी की उनकी डायरियां पर संक्षिप्त टिप्पणी, अमीरचंद वैश्य का आलेख और विजेन्द्र जी की पत्नी उषा जी का उनके सुयोग्य पुत्र राहुल नीलमणि जी का स्मरण अपने अग्रजों के प्रति सम्मान का परिचायक है।
साहित्यखंड में भारत के दूरस्थ क्षेत्रों में रहने वाले दो युवा कवियों सुरेंद्र प्रजापति और चंद्र की कविताओं की प्रस्तुति उनकी अपनी टिप्पणियों सहित ‘देस’ स्तंभ के अंतर्गत की गई है। यह स्वागतयोग्य कार्य है। कविताओं में भानुप्रकाश रघुवंशी और उर्मिल मोंगा की अच्छी और सहज कविताएं हैं। दो विदेशी कवयों टी एम मूअर और डेला हिक्स विलसन की कविताओं के बेहतर अनुवाद हैं। लोकेन्द्र सिंह कोट की कहानी मैं रोंदूंगी तोय, पारंपरिक रोजगारों के लोप की कहानी है। अल्पज्ञात कथाकार प्रबोध कुमार की कहानियों पर आशीष सिंह का लंबा आलेख है। बुतपरस्ती मेरा ईमान नहीं और अपने समय का आज पुस्तकों पर विस्तृत समीक्षाएं हैं।
धरती सही मायने में एक ऐसी लघुपत्रिका है जो प्रतिबद्ध भी है और सामाजिक यथार्थ का आईना भी है| पहल जैसी पत्रिकाएं जो काम कर रही थीं, धरती उनका विस्तार है| कुल मिलाकर यह अंक चेतस पाठकों और सुधी साहित्यकारों के लिए एक जरूरी खुराक है। इसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।