अनुवाद के विषय में श्रीनाथ पेरूर का कथन है- “हर भाषा की अपनी वाक्य संरचना होती है और उसे अनूदित भाषा में सहजता के साथ ले जाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है।”
इस संकलन में 17 भाषाओं (1.मुण्डारी 2.कुडुख 3.संताली 4.खडिया 5.हो 6.नगपुरिया 7.मराठी 8.हिन्दी 9.मणिपुरी 10.ढूंढाडी 11.आंग्ल 12.गुजराती 13.चौधारी 14.देहवाली 15.कुंकणा 16.धोडीआ 17.गामीत) के 33 कवियों की कविताओं का संस्कृत अनुवाद है । परिशिष्ट भाग में हर्षदेव माधव, कौशल तिवारी, ऋषिराज जानी की संस्कृत की मौलिक आदिवासी कविताएँ हैं।
हर्षदेव माधव कहते हैं कि शहरीकरण सबको निकलता जा रहा है अब तो वनों में भी स्वतन्त्रता और स्वच्छन्दता नहीं है । पेड़-पौधे, नदियाँ धरती, आकाश सब औद्योगीकरण के कारण नष्ट होते जा रहे हैं ।
कोऽयं रोग: खलु . . . . . .
गता नगरमायाबद्धा:?
‘अस्माकं विकास:’ कविता में वे प्रश्न करते हुए कहते हैं कि – क्या हमारा विकास यही है आप हमारी सम्पत्तियों को हड़प लो ।
हे सज्जना: !
हे महाजना: !
हे नेतार: !
. . . . . .
नूनं कृतो युष्माभिर्नो विकास: ।
कौशल तिवारी कहते हैं कि पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ, ऋतुएँ, नदी, पर्वत, इत्यादि सब एक दिन केवल कवि और कविता का विषय मात्र रह जाएँगे।
दूरदर्शनस्य वृत्तचित्रेषु,
पाठ्यपुस्तकानां कृष्णकर्गदेषु,
कवीनां लेखनीषु च ।
ऋषिराज जानी की कविता ‘वनस्य मधूका सर्वं जानन्ति’ यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि क्या हम मनुष्य हैं। आखिर हमारी संवेदनाएँ कहाँ मर गए हैं हम इतने गिर गयी हैं। हम इतना नीचे गिर गए हैं। इतना चारित्रिक पतन हो गया है कि जिन्हें दुनिया के छल-कपट के बारे में कुछ भी नहीं पता उनको भी हम छल रहे हैं। भोली-भाली आदिवासी कन्या अपनी हवस का शिकार बना रहे हैं।
तदा चिकित्सकेन कथितं तद्
‘त्वं ‘एच. आई.वी.’ ग्रस्ताऽसि ।‘ इति ।
. . . . . .
किन्तु वनस्य मधूका: सर्वं जानन्ति ।
मोक्षस्य मोहो नास्ति,
धर्मं ते न जानन्ति ।
सृष्ट्या: संवर्धनं हि तेषां धर्म:,
प्रकृतौ जीवनमेव तेषां मोक्ष: ।
जीतेन्द्र वसावा लिखते हैं कि तुम हमको सभ्य बनाने के चक्कर में हमारी संपत्तियों पर आधिपत्य जमाकर हमें गुलाम बनाना चाहते हो । तुम स्वार्थवश हमें अपने तरफ मिलाना चाहते हो तुम्हारे मन में कहीं-न-कहीं कपट छिपा हुआ है ।
‘चौर-लुण्ठाक-शूकर-जाल्म’
इत्यादिभि: शब्दैरतर्जयत्।
एकाकिनी आदिवासिकन्या
निबिडं वनं गन्तुं न बिभेति,
व्याघ्रसिंहेभ्यो न बिभेति,
किन्तु
मधूकपुष्पाणि नीत्वा ‘गीदमप्रदेशविपणीं’ गन्तुं बिभेति।