संत रविदास 16 फरवरी
इन दिनों एक नारा ‘वोकल फार लोकल’ (अर्थात स्वदेशी वस्तुओं को खरीदें और उसकी प्रशंसा करें) ज़ोरों से चल रहा है। जन सामान्य में इसे लोकप्रिय बनाने और सफल बनाने के लिये इसके प्रचार प्रसार मे उत्साह से भाग लेने के लिये साधु संतों से भी अनुरोध किया गया है। इसे सुन भक्त कवियों और संतों की याद हो आयी। इन संत कवियों ने आदमी में मूल्य, सदाचार और सिद्धांतों को प्रतिपादित कर उसे अंगीकार करने की प्रेरणा दी। संत कवियों ने अपनी प्रेरक रचनाओं से मानव में जो सुसंस्कार व्यवहार और आचार के गुण दिये उससे पूरी मानवता में उचित और अनुचित के बीच का अर्थ प्रसारित हुआ। इसे अपने जीवन में उतार कर वह सभ्यता के रास्ते पर चल पड़े। इन्हीं संत कवियों में एक नाम संत रविदास का है। उन्होंने अपने समय की परिस्थितियों को देखते हुए विश्व को सुखद संदेश दिया जिससे भारतीय साहित्य गौरवान्वित और महिमाशाली बना। कहते हैं, जब परमात्मा को अपनी बनायी सृष्टि में व्याप्त कुरीतियों, असमानताओं और समाज में सुधार की शिक्षा देनी होती है तब ऐसे साधकों का जन्म होता हैं जो मानवता को सुपथ पर चलने का पथ प्रदर्शित करते हैं। ऐसे ही समर्पित साधक संत कवि रविदास हुए, जिन्होंने अपनी रचनाओ से परस्पर मिल जुल कर प्रेम पूर्वक रहने और बंधुत्व का संदेश दिया।
भारत में पूर्व मध्यकाल को भक्तिकाल और स्वर्णिम युग कहा जाता है। इस युग में संत कबीर, सूरदास, कुंभनदास, हरिदास, रामानंद, नामदेव, मीराबाई आदि अनेक कवि हुए हैं जिन्होंने ईश्वर भक्ति के साथ सामाजिक समरसता का संदेश दिया है, इन्हीं में से एक थे संत शिरोमणि रविदास संत रविदास संत कबीर के समकालीन ब गुरूभाई माने जाते हैं। महान संत रविदास दर्शनशास्त्री, कवि, समाज-सुधारक और ईश्वर के अनन्य भक्त थे। समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने वाले संत रविदास भारत के उन महापुरुषों में से एक थे जिन्होंने अपने कर्म और वचनों से सभी को अच्छाई, परोपकार और भाईचारे का सन्देश दिया। उन्होंने अपनी रचनाओं एवं रूहानी आवाज़ से गाये गीतों एवं भजनों से सारे संसार को सत्य मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया।
संत रविदास का जन्म काशी में माघ पूर्णिमा के दिन संवत 1433 को हुआ था। उनक जीवन के संबंध में एक दोहा प्रचलित है। “चौदह से तैंतीस की माघ सुदी पंदरास / दुखियों के कल्याण हित प्रगटे श्री रविदास // उनके पिता का नाम राहू तथा माता का नाम करमा था। उनकी पत्नी का नाम लोना बताया जाता है। उत्तर प्रदेश मध्य प्रदेश और राजस्थान में उन्हें “रैदास” के नाम से भी जाना जाता है, तो पंजाब में वह रविदास गुजरात और महाराष्ट्र में उन्हें लोग “रोहिदास” और बंगाल के लोग उन्हें “रुइदास“ कहते हैं। बताया जाता है कि माघ मास की पूर्णणा को जब संत रविदास ने जन्म लिया वह रविवार का दिन था इस कारण उनका नाम रविदास रखा गया।
संत रविदास बचपन से ही दयालु और परोपकारी स्वभाव के धनी थे दूसरों की सहायता करना उन्हें बहुत अच्छा लगता, विशेष कर साधु संतों की सेवा और प्रभु स्मरण को मनोयोग से करते। उनकी रचित अधिकतर रचनाएं ईश्वर, गुर, ब्रह्मांड की महत्त्ता और प्रक्रित के साथ प्रेम का संदेश देती हुई मानवता के कल्याण पर बल देती हैं वह सदैव पवित्र आहार, पवित्र कर्म और पवित्र विचारों की चर्चा करते।
संत रविदास महान समाज सुधारक, दार्शनिक कवि रहे जिन्होंने धर्म की भेद भावना से उठ कर भक्ति भावना से युक्त ऐसे समाज की रचना पर बल दिया जो सौहार्द से पूरित हो। अन्य संतों की तरह संत रविदास भी भक्ति परंपरा के साधक थे और जीवों के उद्धार के कल्याणमय कार्य के लिये इस संसार में अवतरित हुए। उनके प्रेरक जीवन से कई शिक्षाएं मिलती हैं अपने कार्य तथा व्यवसाय के प्रति निष्ठा और समर्पण के भाव को सदा बनाये रखना उनकी धारणानुसार अपने काम को पूजा की तरह करना चाहिये।
संत रविदास ने अपने दोहों व पदों के माध्यम से समाज में जागरूकता लाने का प्रयास किया। सही मायनों में देखा जाए तो मानवतावादी मूल्यों की नींव संत रविदास ने रखी। वे समाज में फैली जातिगत ऊंच-नीच के धुर विरोधी थे इतना ही नहीं वह एक ऐसे समाज की कल्पना भी करते हैं जहां किसी भी प्रकार का लोभ, लालच, दुःख, दरिद्रता, भेदभाव नहीं हो।
रविदास चर्मकार परिवार में पैदा हुए थे। ईश्वर भक्ति के साथ आजीविका के लिए उन्होंने अपने पैतृक कार्य को ही चुना। ये जूते इतनी लगन और मेहनत से बनाते मानो स्वयं ईश्वर के लिए बना रहे हों। उस दौर के संतों की ख़ास बात यही थी कि वे घर बार और सामाजिक जिम्मेदारियों से मुंह मोड़े बिना ही सहज भक्ति की ओर अग्रसर हुए और अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए ही भक्ति का मार्ग अपनाया। उनके प्रेरक जीवन से कई शिक्षाएं मिलती हैं अपने कार्य तथा व्यवसाय के प्रति निष्ठा और समर्पण के भाव को सदा बनाये रखना उनकी धारणानुसार अपने काम को पूजा की तरह करना चाहिये।
मनुष्य एक चेतनाशील सामाजिक प्राणी है उसमें विचारों को समझने और समझाने की अपूर्व शक्ति है इस धारणा को हमारे संत कवियों ने बखूबी समझा और उसे अपने अनमोल विचारों और रचनाओं से विभूषित किया, वह इस तथ्य से परिचित रहे कि मनुष्य मे सद विचारों को विकसित करने के साथ-साथ उसे समझाया तथा बताया जाए तो वह जीवन के मर्म को जान कर सुपथ गामी बन सकता है, अतः इन कवियों के लेखन में जिस भावार्थ के दर्शन होते हैं उससे वह जीवन के अर्थ को जान सकते है। संत रविदास ने अपनी वाणी से इसी अर्थ को प्रस्तुत किया इस बात को इस प्रसंग से से समझा जा सकता हैं “एक बार रविदास के शिष्यों मे एक ने उनसे गंगा स्नान के लिये चलने का निवेदन किया उन्होंने उत्तर दिया गंगा स्नान के लिये अवश्य चलता लेकिन एक व्यक्ति को जूते बना कर आज ही देने का वायदा किया है यदि मैं उसे आज जूता नहीं दे पाया तो मेरा वचन भंग हो जायेगा ऐसे में गंगा स्नान के लिये जाने पर भी मन यहां लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा ? मन जो काम करने के लिये अंतः करण से तैयार हो सदा वही काम करना चाहिये, अगर मन सही है तो इस कठौते में ही गंगा सस््तान का पृण्य मिल सकता है कहा जाता हि कि इस प्रकार के उनके व्यवहार के बाद ही यह कहावत प्रचलित हुई “मन चंगा तो कठौती में गंगा।”
संत शिरोमणि रविदास का मानना है कि किसी की पूजा इसलिए नहीं करनी चाहियें क्योंकि वो किसी ऊंचे पद पर बैठा है यदि उस व्यक्ति में योग्यता के गुण नहीं हैं तो उसकी पूजा नहीं करनी चाहिये। इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति ऊँचे पद पर नहीं बैठा है परन्तु उसमें योग्यता गुण हैं तो ऐसे व्यक्ति को पूजना चाहिये। कोई भी व्यक्ति छोटा या बड़ा अपने जन्म के कारण नहीं बल्कि अपने कर्म के कारण होता है। व्यक्ति के कर्म ही उसे ऊंचा या नीचा बनाते हैं।
सांसारिक मोह माया में उलझे लोगों पर वह तरस खाते हुए कहते हैं “ताकों जनम अकारथ कहिये / विषय नु रत संसा भ्रमु अटक्यो, भंवर फंद मंह रहिये //अर्थात जो सांसारिक विषयों के पीछे दौडते रहने में ही अपना सारा समय गंवा देते हैं तथा जीवन की बाहरी तड़क-भ्रडक के विभ्रम में पड़कर परमात्मा की प्राप्ति के अनमोल अवसर को खो देते हैं। वे मानो सच्चे हीरे को छोड़ कर कौड़ी के लोभ में दौड़ते रहते हैं।
अपनी निर्धनता के बावजूद भी संत रविदास संतों–महात्माओं और गरीबों की सेवा में तत्पर रहते। एक बार एक साधु उनकी कुटिया में आया। सदा की तरह उन्होंने उनकी आवभगत की। संत रविदास की निर्धनता को देख कर साधु ने उन्हें एक पारस मणि देते हुए कहा कि उनके जूता बनाने के लोहे के सभी औज़ार इस पारस मणि के छुआने से सोने के हो जाएंगे। साधु ने एक लोहे के औज़ार को छुआ कर सोना बना कर दिखाया। इसे संत रविदास ने विनम्रता पूर्वक लेने से इंकार कर दिया संत मर्यादा का निर्वाह करते हुए वह किसी की भेंट निजी उपयोग के लिये स्वीकार नहीं करते थे। वह साधु उस पारस मणि को उन्हीं की कुटिया के छप्पर में खोंस कर यह कहते हुए चला गया कि वे जब चाहें इसका इस्तेमाल कर सकते हैं। तेरह महीने बाद वह साधु फिर संत रविदास से मिलने आया और उन्हें उसी निर्धनता की अवस्था में देख उनसे पारस मणि के बारे में पूछा उन्होंने उत्तर दिया “महाराज आप उसे जहां रख गये थे वहीं देखिये।” साधु ने पारस मणि को छप्पर में यथा स्थान ज्यों का त्यों पाया। वह संत रविदास के संतोष और इच्छा मुक्ति को देख विस्मित रह गया। साधु वेश में स्वयं परमात्मा अपने भक्त की सहायता करने प्रकट हुए और उनकी भक्ति से विभोर हो गये। इस संबंध मे उनके दृष्टिकोण को निम्न उक्ति से समझा जा सकता है “पारस मनि मुहि रतु नहिं भाव, जग जंजार न थारा / कहि “रविदास“ तजि सभ त्रिस्ता, इकु राम चरन चित मोरा” उनके अनुसार परमात्मा का नाम ही सच्चा पारसमणि है जो बडे से बडे पापी को भी साधु बना देता है और मरणशील व्यक्ति को अमर कर देता है।
संत शिरोमणि रविदास का कहना था कि कर्म हमारा धर्म है और फल हमारा सौभाग्य है। परमात्मा के बिना मानव का भी कोई अस्तित्व नहीं है। कभी भी अपने अंदर अभिमान को जन्म न दें। इस छोटी से चींटी शक्कर के दानों को बीन सकती है परन्तु एक विशालकाय हाथी ऐसा नहीं कर सकता। मोह-माया में फंसा जीव भटकता रहता है। उनका मानना था कि अज्ञानता के हटते ही मानव आत्मा, परमात्मा का मार्ग जान जाती है, तब परमात्मा और मनुष्य में कोई भेदभाव वाली बात नहीं रहती। उनका यह भी मानना था कि जिसके हृदय में रात दिन राम समाये रहते हैं, ऐसा भक्त राम के समान है, उस पर न तो क्रोध का असर होता है और न ही काम भावना उस पर हावी हो सकती है। उनका उपदेश था कि हरि के समान बहुमूल्य हीरे को छोड़ कर अन्य की आशा करने वाले अवश्य ही नरक जायेगें।
संत शिरोमणि रविदास का कहना था कि जिस तरह केले के पेड़ के तने को छिला जाये तो पत्ते के नीचे पत्ता फिर पत्ते के नीचे पत्ता और अंत में पूरा पेड़ खत्म हो जाता है लेकिन कुछ नही मिलता। उसी प्रकार इंसान भी जातियों में बाँट दिया गया है इन जातियों के विभाजन से इन्सान तो अलग अलग बंट जाता है और अंत में इन्सान भी खत्म हो जाते है लेकिन यह जाति खत्म नही होती है। उनका कहना था कि जब तक ये जातियां खत्म नहीं होगी तब तक इन्सान एक दूसरे से जुड़ नहीं सकता है यानि एक नही हो सकता है। इसलिए इस देश से जाति व्यवस्था समाप्त की जानी चाहिए। उन्होंने मानव कल्याण हेतु व्यापक, विराट और विचारवंत स्वरूप को अपनी रचनाओं से अध्यात्म की भावभूमि पर प्रस्तुत किया। इसमें से चालीस पद सिख धर्म के पवित्र धर्मग्रंथ ‘गुरु ग्रंथ साहब’ में भी सम्मिलित किये गये। मध्य युगीन साधकों में वह विशिष्ठ संत रचयिता थे जिनकी वाणी में मानव उत्थान की शिक्षा बसी है। उनके जीवन पर ‘संत रविदास की अमर कहानी’ फिल्म भी बनी है। संवत 1527 में वह देव लोक गमन कर गये। वह ऐसे संत मसीहा रहे जिन्होंने अपनी अमर अमृतवाणी से मानवीयता को आलोकित किया।