कितने आश्चर्य की बात है कि पृथ्वी की सबसे बुद्धिमान प्रजाति मनुष्य को भी यह स्वयं को स्मरण कराना पड़ रहा है कि उसके पास बस यही एक घर है और अब उसके रख-रखाव का और उसे संभालने का समय आ चुका है। आधुनिकता एवं स्वार्थ सिद्धि की अंधी दौड़ में लिप्त मनुष्य को अब कहीं जाकर इस तथ्य का अनुमान होने लगा है कि स्थिति सचमुच इतनी खराब हो चुकी है कि उसे पर्यावरण असंतुलन से उपजी समस्याओं के प्रति सचेत हो जाना चाहिए। इस बार “विश्व पर्यावरण दिवस” की थीम है – “केवल एक पृथ्वी” तथा इस अभियान का नारा है- “प्रकृति के साथ सद्भाव में रहना।” यद्यपि थीम को प्रतिवर्ष कुछ नया नाम भले ही दे दिया जाता हो पर इसका संदेश एक ही है। वह है, मानव जाति को पर्यावरण का महत्व समझाना और उसके प्रति दायित्व निर्वाह को प्रेरित करना।
निश्चित रूप से, इस पृथ्वी पर रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति का दायित्व है कि वह इसकी रक्षा हेतु अपनी क्षमतानुसार जितना बन पड़े, करे! जल-संरक्षण करे, वृक्षारोपण के प्रति उत्साहित हो, जीव-जंतु और वनस्पति के प्रति संवेदनशील हो। पृथ्वी केवल हम मनुष्यों की ही नहीं है इस पर उपस्थित हर जीव -वनस्पति का इस पर समान अधिकार है। यह नदी, झरनों और पहाड़ों की भी उतनी ही है जितनी पेड़-पौधों, जंगलों और रेगिस्तान की। यह आसमान में उड़ते पक्षियों की भी उतनी ही है जितनी जंगल में दौड़ते हिरण की! लेकिन स्वयं के विकास के लिए मनुष्य ने सदैव विनाश की राह ही पकड़ी है फिर चाहे वह प्रकृति का ही क्यों न करना पड़े!
हमें जिस प्रकृति के आगे नित शीश नवाना चाहिए हमने उसे रौंदकर उसका मालिक बनना चाहा। फलस्वरूप प्राकृतिक आपदाओं के रूप में हमारे कुकृत्यों के परिणाम सामने हैं। हम यह विस्मृत कर देते हैं कि जंगलों को काटना जमीन प्राप्त कर लेना ही नहीं है, बल्कि यह जैव विविधता भी नष्ट कर देता है। पूरा का पूरा पारिस्थितिक तंत्र टूट जाता है। कार्बन का संतुलन और पर्यावरण चक्र बिगड़ जाता है।
हम समस्त प्राकृतिक स्रोतों का तो डटकर उपयोग करते हैं, उसे बर्बाद भी करते हैं लेकिन उसकी रक्षा के लिए हमसे कुछ नहीं होता! क्योंकि हम उस युग के तथाकथित कर्णधार बनकर रह रहे हैं जिसमें मानव दूसरे को मारकर अपने अधिकार छीन लेने में रुचि रखता है लेकिन कर्तव्यों की बात सुनते ही आहत हो जाता है। हमें पाने का सुख चाहिए पर देने का आनंद नहीं! हम तो जब अपनी आने वाली पीढ़ियों के बारे में भी नहीं सोच रहे तो प्रकृति और इस पावन धरा की तो क्या ही चिंता करेंगे! प्रलय की आहट हो रही है पर हम उसे अनसुना करते चले आ रहे हैं हमारा सम्पूर्ण ध्यान और लक्ष्य अपने हिस्से का भरपूर एवं सम्पूर्ण सुख भोगना है।
आग पड़ोस में लगे या अमेजन के जंगलों में, हमने अपने स्वार्थ से बाहर आकर कुछ देखना, समझना ही नहीं चाहा कभी। हम बस इतना जानकर ही संतुष्ट हो जाना चाहते हैं कि कहीं हमारी कोई व्यक्तिगत क्षति तो नहीं हुई! तभी तो पृथ्वी का फेफड़ा कहे जाने वाले अमेजन के जंगलों में लगी आग की सूचना, मात्र समाचार भर ही बनकर रह जाती है। उस पर कोई चर्चा नहीं होती! इससे वोट पर प्रभाव नहीं पड़ता न! मीडिया इसका समाचार किसी इमारत में लगी आग के रूप में ही प्रस्तुत करती है। उस अग्नि ने कितने जंतुओं को तड़पाकर मार डाला, कितने पक्षियों के घर उजड़ गए, आसरा छिन गया, कितने भोजन-जल को तरस रहे, कितनी वनस्पति झुलस गई! इससे उन्हें कोई मतलब ही नहीं! तालाबों को पाट दिया जाता है। उसके अंदर रहने वाले मछली, कछुओं और नन्हे जंतुओं का क्या हुआ? क्या उन्हें स्थानांतरित किया गया? या उन्हें जल समाधि दे दी गई? इस सब के कोई आँकड़े कभी सामने नहीं आते! संवेदनशीलता का ढोंग रचने वाले मानव का यही निष्ठुर चरित्र है।
कहते हैं कि अमेजन के जंगल अकेले ही इस पृथ्वी की प्राणवायु ऑक्सीजन का 20% भाग उत्पन्न करते हैं। दसियों हजारों प्रकार की जन्तु एवं पादप प्रजातियों का घर है यह। औषधियों का केंद्र है। अमेजन की ही नहीं, अन्य जंगलों की भी यही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि विकास के नाम पर उन्हें जलाया जा रहा।
वन्यजीवों और वनस्पतियों की कई प्रजातियों के विलुप्तिकरण के कारण पृथ्वी का पारिस्थितिकी तंत्र असंतुलित हो चुका है। एक मनुष्य ही है जिसकी संख्या में बेतहाशा वृद्धि हो रही है, शेष जो भी है वो न्यूनता एवं विलुप्ति की ओर अग्रसर है। सब औद्योगीकरण की चपेट में हैं। मनुष्य की तो पारिस्थितिकी में कोई सकारात्मक भूमिका ही नहीं रही। वह तो अपने हाथ झाड़ चुका है क्योंकि उसने केवल उपभोक्ता के रूप में ही जीना सीखा है। इसकी लोलुपता ने प्रकृति का भरपूर शोषण किया तथा अन्य प्राकृतिक उत्पादों के महत्व को समझने का रत्ती भर भी प्रयास नहीं किया।
यह सोचकर भी सिर जमीन में गड़ जाता है कि विकास के नाम पर हमने अपने पहाड़ों और नदियों का क्या हाल कर रखा है! पर्यावरण से जितना भयावह एवं हिंसक व्यवहार हम कर रहे हैं उसके परिणाम भी उतने ही भयंकर होंगे। वृक्ष चीख नहीं सकते! नदियाँ रो नहीं सकतीं और न ही पहाड़ की कराह कोई सुन सकता है। उनको निर्ममता से कुचला जा रहा है क्योंकि पूँजीवाद को जंगल नहीं, जमीन से लाभ दिखता है। कोई जंगलों को नष्ट करने का ठेका ले लेगा। उसके बाद वहाँ मल्टीप्लेक्स बनेंगे, ब्रांडेड शो रूम खुलेंगे, नई कॉलोनी बना ली जाएगी, किसी बड़ी दुकान का उद्घाटन होगा जहाँ अतिथियों को एक पौधा उपहार में देकर ‘मुझे प्रकृति से प्यार है’ का थोथा प्रदर्शन किया जाएगा।
जमीन पर ग्लोबल वार्मिंग को लेकर हुए सम्मेलनों का कोई सकारात्मक परिणाम तो कभी दिखा नहीं। देश ही एकमत नहीं होते, सबको अपनी अलग चाल चलनी है। समझौता करने को कोई सहमति नहीं बनती। महाशक्तियाँ सैटेलाइट लॉन्च करने में व्यस्त हैं उससे उत्पन्न स्पेस ट्रैश भी वायुमण्डल को हानि पहुँचा रहा है यह सब जानते-समझते हुए भी हम परस्पर पीठ थपथपा बधाई देते हैं। मंगल पर जीवन की खोज चल रही है। हे मानव! पहले धरती पर रहने का शिष्टाचार सीख जाओ, फिर कहीं और जीवन तलाशना! इस ब्रह्मांड पर कुछ तो तरस खाओ!
प्रकृति ने दाता बनकर हमें भरपूर प्रेम दिया है। यह हमारे लिए ईश्वर सरीखी है। हर जगह है, हर रूप में है। हमें नतमस्तक हो इसकी महत्ता को स्वीकारना है। हम पृथ्वीवासी उस भीषण दौर के साक्षी हैं जहाँ मानवता और सभ्यता, गहन चिकित्सा विभाग में अंतिम साँसें ले रहीं हैं। युद्ध से समस्याओं के हल खोजे जा रहे हैं। शक्तिशाली देशों के आगे दुनिया भीगी बिल्ली बनी हुई है। मानव जीवन नष्ट होने के कगार पर है और इसे बचाने का एकमात्र उपाय है – पर्यावरण संरक्षण, पृथ्वी से प्रेम करना, उसे बचाना। काश! समस्त विश्व को इसकी चिंता हो, सब इसे अपना माने और इसके हर भाग की सुरक्षा का संकल्प कुछ यूँ लें, जैसे हमें अपनी देह की फ़िक्र होती है।
अस्तु।