वयमपि कवयः कवयः कवयस्ते कालिदासाद्या!’ – मैं भी छंद बना लेता हूँ, तुक जोड़ लेता हूँ और कालिदास भी छंद बना लेते थे – तुक भी जोड़ ही सकते होंगे इसलिए हम दोनों एक श्रेणी के नहीं हो जाते। पुराने सहृदय ने किसी ऐसे ही दावेदार को फटकारते हुए कहा था।
महर्षि वाल्मीकि को ब्रह्मा ने आदि कवि कहकर संबोधित किया है- ‘आद्य: कविरसि’। वाल्मीकि की सबसे बड़ी विशेषता यह है की उन्होंने संस्कृत की काव्य परंपरा की धारा को नयी दिशा दी। अब तक जो काव्य धर्म और उपासना तक सीमित था उसे उन्होंने जन-जीवन की तरफ मोड़ दिया।
वाल्मीकि के संबंध में एक श्रुति यह है कि उन्होंने तमसा नदी के तट पर व्याघ्र द्वारा घायल एक नर क्रौंच पक्षी को देखा और उनके मुख से यह श्लोक निकल पड़ा- ‘मा निषाद प्रतिष्ठा त्वमगम: शाश्वती: समा:। / यत् क्रौंचमिथुनादेकमवधी: काममोहितम्॥’ मान्यता यह है कि यही वह घटना है जो वाल्मीकि को काव्य लिखने की ओर प्रेरित किया।
कवि कौन है? ब्रह्म की रचनात्मक चेतना! या सविता का विवान स्वरूप, जो स्वयं प्रज्ज्वलित होकर पूरी सृष्टि में जीवन का संचार करता है। कवि सर्जक है। लेकिन बगैर प्रकाश पाए वह क्या सृजन कर सकता है? सबसे पहले उसे अपने मन को प्रकाशित करना है। बाहरी रोशनी से वातावरण जगमगा सकता है, लेकिन मन की रोशनी तो ज्ञानदीप्त होकर ही पाई जा सकती है। मनुष्य का कवि होना उसकी बहुत बड़ी उपलब्धि है। वह कवि होकर ही इस संसार के समानांतर एक प्रति संसार को उपस्थित करता है, जो जीवन के प्रति जागरूक और सक्रिय और संवेदनशील मनोभूमि का निर्माण करता है। संस्कृति के निर्माण में भी कवि की केंद्रीय भूमिका होती है।
मानवता की सबसे बड़ी उपलब्धि है भाषा और लिपि। असंगतियों में संगति है काव्य। यह साहित्य की वह विधा है जो मानवीय संस्कृति को अभिव्यक्त करती है। अक्षरों का सर्वोत्तम भाव और रचनात्मक कल्पनात्मक तत्व के आधार पर जो लिपिबद्ध होता है वह कविता कहलाता है। समकालीन साहित्य में कविता के विषय लगातार परिवर्तित हो रहे हैं। कोरी कल्पना की दुनिया में रम कर काव्य लोक का सृजन करना ही रचनाकारों का कर्तव्य नहीं है बल्कि पुराने विषयों को नए अंदाज में लिखना उनका उत्तरदायित्व भी है। नवोदित रचनाकारों को भाषाई क्लिष्टता और भाव की पेचीदगियों से बचते हुए बिल्कुल ही सरल भाषा में गहरी व्यंजना के साथ अपनी बात को रखने की चेष्टा करनी चाहिए। विचारों की एक सूत्रता के साथ-साथ कविता में छन्द, लय और गति का निर्वाहन भी होना चाहिए।
आजकल हिंदी में कविताएँ प्रभुत मात्रा में लिखी जा रही है। कविता के नाम पर अस्पष्टता का माहौल खड़ा किया जा रहा है। ‘वयं अपि कवय’ अर्थात हम भी कवि हैं – की धूम मची हुई है। जो कुछ कविता कह कर प्रकाशित हो रहा है वह न तो संवेद्य है और सम्प्रेष्य। फलस्वरूप, कविता अपनी अर्थवत्ता खो रही है।
एक बेहतरीन लेखक / कवि वह होता है जो चुनिंदा शब्दों के मोती को विचारों की माला में पिरो कर अपनी शैली में अभिव्यक्त करता है। ज्ञान का संकलन एक पवित्र गंगा जल के समान है जो बरसों बरस सुरक्षित रहता है। एक सच्चे लेखक की लेखनी में इतनी ताकत होती है कि वह गंगाजल के बहाव के समान एक पाठक को ज्ञान की धारा के प्रवाह में बहा ले जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि एक सच्चा लेखक या एक बेहतरीन लेखक अपने संकलित ज्ञान को अपने सशक्त लेखन द्वारा व्यक्त करता है। यदा-कदा किसी अन्य विषय-वस्तु पर अनेकानेक शोध करने के उपरांत अपने विचारों का समन्वय कर अपने लेखन को प्रस्तुत करता है।कोई भी लेखक अपने अनुभव,विचार,जज़्बात समाज के सामने लाना चाहता है, यही अंतर्भावना होती है।
जो पन्नों पर शब्द नहीं ज़ज़्बात उतारता हो हर वो व्यक्ति लेखक कहलाया जाता है। मनोविज्ञान की परतों से कुछ भी निकाल के वाकया या शेर बना देने वाला ही लेखक होता है। लेखक अपनी रचना को प्रस्तुत करे, सुनने वाले की ऑंखें ख़ुशी से चमका दे, जब हिज़्र गाए तो दिल भर आये, जब वीर रस गाए तो कुछ कर गुजरने का जूनून सवार हो जाये। लेखक को पता होना चाहिए कि जब मजमा लगा हो प्रदर्शना सुनाना है और जब महफ़िल सजी हो तो दर्शन सुनाना है।
लिखने की कला बेहतरीन कलाओं में से एक है। जिस व्यक्ति के अंदर यह कला होती है। वह व्यक्ति अपने जीवन में किसी भी तरह के विचारों को कलमबद्ध कर सकता है। बातें करना बहुत आसान होता है किंतु उन बातों को एक कागज पर उतारना और उन बातों के माध्यम से समाज को जागरूक करना, समाज को संदेश देना एक बहुत ही योग्यता भरा काम है और यदि किसी व्यक्ति को इस योग्यता के बारे में पता चल जाए और योग्यता की जानकारी हो जाए, तो वह व्यक्ति बहुत बड़ा बदलाव अपने समाज में, अपने आस-पास के माहौल में कर सकता है।
अक्सर लोग अपने विचारों को, अपनी बातों को भूल जाते हैं या फिर उनके ऊपर धूल जम जाती है। किताबें हमारे समाज का एक अभिन्न अंग है और लेखन जो है वह उसका एक मूल्य रूप है। यदि चीजों को कलमबद्ध कर दिया जाए तो हम देखेंगे कि सालों बाद भी उन बातों को कोई दूसरा व्यक्ति पढ़ सकता है। इसलिए दोस्तों इस कला का बहुत ही बड़ा महत्व समाज के लिए माना जा सकता है।
एक लेखक और पाठक का रिश्ता सिर्फ लिखने और पढ़ने तक ही सीमित नहीं होता। बल्कि लेखक को अपने पाठकों से बातचीत के दौरान सुझाव, अपने उत्तरों की समीक्षा, किसी विषय या समस्या का नया पहलु, तो कभी जरुरी प्रोत्साहन और उचित मार्गदर्शन भी मिलता है। यही वो सब चीज़ें है जो लेखनी को, विचारों को, और हो सकता है आपके व्यक्तित्व को भी, बेहतर बना सकती है।
लेखक कभी छोटा बड़ा नहीं हो सकता, लेखक मात्र लेखक हो सकता है। लेखक को छोटा बड़ा बनाने वाले उसके पाठक होते हैं। पाठकों / श्रोताओं के चेहरे पर अगली रचना सुनने की उत्सुकता ही उसे और बेहतर लेखक बनाती है। यह समझना है कि तालियां भी अच्छा लेखक का प्रमाण नहीं देती, समय चल रहा है कि यदि कोई दोहरे मतलब पर शेर सुनाये तो तालियां भी दोहरी उठती हैं। तो क्या अच्छा लेखक हो गया? नहीं न। तालियां अच्छे लेख या लेखक का माप दंड नहीं हो सकतीं। सम्मेलनी कवि जो कविता को लतीफे बाजी के स्तर पर ले जाता है, वह पाठकों (श्रोताओं) की वाहवाही बटोरने के लिए ही तो। इसलिए ऐसे लेखन को रचनात्मक नहीं माना जाता।
मिल्टन ने लिखा है कि यश-लिप्सा बड़े व्यक्तियों की सबसे बड़ी कमजोरी होती है। लेखकों में यह कमजोरी एक ओर पुरस्कार की लालसा में दिखाई पड़ती है, तो दूसरी ओर पाठक-वर्ग पाने की कामना के रूप में। विशाल पाठक-समुदाय उसे गर्व की अनुभूति देता है।
अच्छा लेखक अपने पाठकों / श्रोताओं को प्रभावित करके उनका दिल जीतने की क्षमता रखता है। उसे तालियों, बेस्ट सेलर बनने की चिंता रहती है। परन्तु श्रेष्ठ लेखक इस बात की चिंता नही करता की उसका लेखन लोगों द्वारा पसंद किया जा रहा है या नही, वो तो बस वही लिखता है जो सत्य हो, सोचने पर मजबूर करे और जीवन को बेहतर बनाये।
प्रश्न यह उठता है कि क्या लेखक की रचना के केंद्र में भी पाठक रहता है? रचनात्मक लेखन में भी हम कहीं-कहीं पाठक को रचना केंद्र में देखते हैं। रचनात्मक लेखन में जहां कोई निर्दिष्ट प्रयोजन एक प्रकार से नियामक होता है, वहां केंद्र में पाठक को ही समझना चाहिए।
मन्नू भंडारी ने अपनी रचना-प्रक्रिया के विषय में बहुत ही महत्वपूर्ण बातें लिखी हैं- ‘मेरे अपने लिए पाठक की बहुत अहमियत है। वह पाठक कौन है, कैसा है, कहां है, इसका कोई अहसास रचना करते समय मुझे नहीं होता, न ही अदृश्य पाठक मेरे लेखन की दिशा निर्धारित करता है- बिल्कुल नहीं। उसकी भूमिका तो रचना छपने के बाद शुरू होती है।’
अब हिंदी के लेखक और पाठक तेजी से बदल रहे हैं। खुलकर पढ़ना चाहते हैं। आज वर्जनाएं टूट रही हैं। आज की महिला रचनाकार भी उन विषयों पर खुलकर लिख रही हैं जिस पर दो-तीन दशक पूर्व सोचती भी नहीं थी। विषयों करने लगी हैं। जितना खुलकर आज इस विषय पर बात हो रही है, उतना पहले कभी नहीं होती थी। पुरुष कहानी लिखें और नैन-नक्श के वर्णन करें तो बहुत अच्छा, लेकिन स्त्रियां लिख दें तो बहुत बुरा। जैसे साहित्य नहीं अस्तबल हो गया हो कि खदेड़ दीजिए। परिणाम यह हो रहा कि इस पर अश्लीलता का ठप्पा लग गया। इसे अश्लील बनने से रोकने की जिम्मेवारी भी साहित्यकारों की ही है।
हिन्दी कोई नहीं पढ़ता, यही मानसिकता हिन्दी के लेखन एवं अध्ययन में सबसे बड़ी बाधा है। यह मानसिकता छोड़नी होगी। आज हिन्दी में पढ़ने का चलन खूब बढ़ गया है। शर्त इतनी ही है कि अच्छा लिखा गया हो। जानकारी शोधपरक हो।
सोशल मीडिया युग में जबकि लिखना और अपनी बात ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचाने को लेकर लोगों में उत्सुकता बढ़ी है, लेकिन क्या लिखना है और क्या लिखा जाना चाहिए के प्रति उतनी ही उदासीनता भी बढ़ी है। लेखकों को कैसा लिखना चाहिए, अच्छा लेखक कैसे बनें पर बातचीत, बहस तो होती है, लेकिन बेहतर पाठक कैसे बनें इसपर कोई बातचीत नहीं हो पाती और उस पर भी हमारे बीच कितने पाठक बचे हैं से पहले हमारे भीतर पाठक होना कितना बचा है, इस पर सोचना, बात करना बेहद ज़रूरी है, जो अमूमन नहीं होता है।
सोशल मीडिया में पाठकों की यह स्थिति है कि जब अपने मित्र सूची का कोई सदस्य अपना लेख लगाता हैं तो सबसे पहले वाह, बहुत अच्छे, बधाई आदि लिखते हैं इसके बाद लेख पढ़ना शुरु करते हैं। कुछ तो बिना पढे भी आहा और वाहा कर निकल जाते हैं। पहले बधाई इसलिये लिख देते हैं कि कहीं लेख पढ़ने के बाद न लिखने का मन हुआ तो खराब लगेगा। सोशल मीडिया पर कुछ लोग पढ़ते तो अवश्य हैं पर टिप्पणी नहीं कर पाते अर्थात अपने मन की बात संप्रेषित नहीं कर पाते हैं क्यूंकि उनके पास शब्दों का आभाव होता है। जब तक हम अच्छे पाठक नहीं बनेंगे तब तक हम कुछ भी नहीं लिख पाएंगे। आज का सुधी पाठक (सु=अच्छी+धी=बुद्धि वाले) ही कल का लेखक होगा। प्रायः कई लोग सुधि पाठक भी लिखते हैं। ध्यातव्य रहे, इस सुधि का अर्थ ज्ञान होता है।
लेखन के बारे में श्रीलाल शुक्ल जी ने एक लेख में लिखा था कि “लेखन-कर्म महापुरुषों की कतार में शामिल होने का सबसे आसान तरीका है। चार लाइनें लिख देने भर से मैं यह कह सकता हूं कि मैं व्यास, कालिदास, शेक्सपियर, तॉल्सताय, रवीन्द्रनाथ ठाकुर और प्रेमचंद की बिरादरी का हूं।
इसके लिये सिर्फ़ थोड़े से कागज और एक पेंसिल की जरूरत है। प्रतिभा न हो तो चलेगा, अहंकार से भी चल जायेगा- पर इसे अहंकार नहीं लेखकीय स्वाभिमान कहिये। लेखकों के बजाय आप किसी दूसरी जमात में जाना चाहें तो वहां काफी मशक्कत करनी पड़ेगी; घटिया गायक या वादक बनने के लिये भी दो-तीन साल का रियाज तो होना चाहिये ही। लेखन ही में यह मौज है कि जो लिख दिया वही लेखन है, अपने लेखन की प्रशंसा में भी कुछ लिख दूं तो वह भी लेखन है।”
लिखने से पहले पढ़ना आवश्यक होता हैं। गुलजार कहते हैं कि एक कविता लिखने के पहले सौ कविताओं का अध्ययन कीजिए, तब लिखिए। यदि हम लिखना चाहते हैं तो इसके लिए पहले हमें दूसरी किताबों को पढ़ना होगा। समझना होगा कि लेखक ने कैसे शब्दों को सजाया हैं। किसी भी लेखन की जितनी शुरुआत महत्वपूर्ण है उतनी ही महत्वपूर्ण उसका अंत होना चाहिए। कहां क्या लिखना है और कहां पर अंत करना हैं। लेखन का अंत ऐसी जगह होना चाहिए जहां पाठक को एक पूर्ण रचना लगे अर्थात लगे कि रचना अपने आप मे सब कुछ समेटे हुए हैं। आज के युग मे हर किसी की आकांक्षा कुछ नया पाने की होती है ऐसे ही पाठकों की आकांक्षा कुछ नया पढ़ने की होती है। लिखना इतना भी सरल नहीं है जितना सोचने में लगता हैं कि लिखने के लिए बस लिखना ही तो हैं। मगर सच्चाई ये है कि किसी भी विषय पर लिखने में लिखने वाले का योगदान सीमित दायरे तक ही होती है जबकि लेखन को प्रभावशाली विषय-वस्तु और प्रयोग किए गए शब्दों के गुंचे (बड्स / कली) का योगदान ही ज़्यादा प्रभावशाली होता हैं।
ध्यान रहे, जब भी किसी कालखंड का अध्ययन अध्येताओं द्वारा किया जाता है तब अध्ययनकर्ताओं द्वारा दो बातों पर ही विशेष ध्यान दिया है कि उस कालखंड में किस तरह के साहित्य लिखे जा रहे थे और समाज में महिलाओं की स्थिति क्या थी। इन्ही दो बातों पर अध्येता किसी भी कालखंड का पुनर्मूल्यांकन करते हैं, अतः रचनाकरों पर बहुत बड़ा उतरदायित्व है कि जो भी लिखें तटस्थ हो कर लिखे और सार्थक लिखें।