अपनी मौलिक पहचान बनाती हुई प्रतिष्ठित कवयित्री चित्रा देसाई का काव्य संग्रह ‘ दरारों में उगी दूब ‘ प्रकृति के उस उन्मेष की संकल्पना है जहां विघटनकारी स्थितियों के बाद भी जीवन की संभावना बरकरार रहती है। वे स्वयं लिखती हैं ‘जहाँ कुछ दरकता है, वहाँ कुछ पनपता भी है’
काव्य संग्रह के चार खंड ‘पगडंडी’, ‘अलाव’,आरोह-अवरोह, ‘मध्यांतर के बाद ‘जीवन के रास्ते में होने वाले उतार -चढ़ाव, सुख -दुख की सेंक और ठहराव की गाथा सहज ही बयां करते हैं। सुकून का एहसास होता है इन कविताओं को पढ़ते हुए। ऐसी कविताएं जो सीधे मन पर दस्तक देते हुए सरलता से हृदय में उतर जाती हैं और जिनका प्रभाव दीर्घकालिक होता है।
क्षिति,जल, पावक, गगन जैसी अवधारणा को रेखांकित करती हुई कविताएं जैसे-
‘….धरती का सारा विष पीकर
कितना ऊपर उठ गया
आकाश!’
या जैसे.. ‘जिसका कोई नहीं होता –
उसकी जमीन होती है’
या ‘…हमारे शहर की हवा बहुत बोलती है।
जीवन के पंच तत्व को समेटे ये पंक्तियां ऊर्जा का संचार करती प्रतीत होती हैं। वहीं मिट्टी की सोंधी महक की अनुभूति होती है जब वे कहती हैं-
” ..खुरपी की पकड़
खदानों की मिट्टी
और गोबर से लिपटे
हाथों का खुरदुरापन
तुम नहीं समझोगे”
माँ के प्रति उनका अगाध स्नेह सर्वथा नवीन उपमान की भांति चित्रित होता हुआ चकित करता है।
“माँ को एक महाकाव्य सा
संजो कर रखा है….
सहमती हूँ
तो हथेलियों के बीच इस किताब को
हनुमान चालीसा सा पढ़ती हूँ।”
अपनी निजता, अपना अस्तित्व बना कर रखना कितना जरूरी है इसे बड़े ही सटीक रूप में आपने लिखा है
“अपने भीतर
आग सहेज कर रखना
तो ही बन पाओगी
वर्ना पूरी उम्र
मिट्टी ही रह जाओगी
पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के बीच अंतर्द्वंद्व और उस पीढ़ी का स्वयं को श्रेष्ठ बताना, व्यंग्यात्मक पंक्तियों द्वारा संग्रह में व्यक्त हुआ है
‘ हम पहले बहुत अच्छे थे
कितने युद्ध लड़े
काटे पेड़. ……पर हम पहले बहुत अच्छे थे।’
व्यंग्य की प्रतिध्वनि मद्धम ही है क्योंकि दूब की कोमलता, स्निग्धता से काव्य संग्रह आवृत है। हृदय अतिशय विगलित होता है जब ये पंक्तियाँ आंखों से गुज़रती हैं –
‘ बीते क्षण/ फैलते अंधेरे में/ जुगनू सा चमकते हैं/ वैराग्य की धरती पर फिर से/ मोह बन उपजते हैं।‘
‘विरासत’ जैसी कविता बनी बनाई परिपाटी से इतर एक नए क्षितिज की ओर अग्रसर करती है। उच्चतम न्यायालय की अधिवक्ता होने के कारण कचहरी की पीड़ा को भी आपने गहराई से मापा है जैसे – ‘…जज की कलम से/ फैसलों में रिसते हैं/ कुछ रिश्ते सचमुच बड़े बदनसीब होते हैं’
शब्द की अर्थवत्ता बहुत महत्वपूर्ण होती है। शब्द जीवन को प्रेममय बना सकते हैं या जीवन मे विष घोल कर उसे दुसह्य बना सकते हैं, इस भाव की सशक्त अभिव्यक्ति चित्रा जी कुछ इस तरह करती हैं
“अयोध्या में
नहीं हुआ युद्ध
शब्दों ने दिया वनवास
….
शब्दों की हिंसा
असहनीय होती है
चित्रा देसाई का यह काव्य संग्रह विभिन्न मनोभावों को सहज ही समेटे है उसमें शिल्प की कठोरता नहीं वरन् गहन संवेदनाएं हैं जो रस की निष्पत्ति स्वतः ही करती हैं और अपूर्व आनंद की सृष्टि करती हैं। आग्रह, संपादन, न्यौता. ..ऐसी अनेक कविताएं हैं। ‘वर्णमाला’ कविता में वे कहती हैं
‘अब मिले हो तुम/ शायद छूट गया था/ कोई शब्द/ मेरी वर्णमाला का…’
चित्रा देसाई की वर्णमाला का भंडार अक्षय हो जिससे ऐसी सुन्दर सौम्य कविताएं हमें पढ़ने को मिलती रहें।