एक बार एक फ़िल्म का रिव्यू करते समय मैंने लिखा था कि “हम मर्दों को दो समय खाना बना हुआ मिल जाए और जब मन किया मसलने के लिए अपने नीचे एक औरत मिल जाए, इससे ऊपर हम उठ ही कहाँ पाएं हैं।” ठीक वैसा ही कुछ आज हरियाणा के अपने ओटीटी प्लेटफॉर्म ‘स्टेज एप्प’ पर रिलीज़ हुई ‘दहलीज़’ वेब सीरीज को देखते हुए लगता है। सीरीज यही कहती भी है कि ‘कहने को आदमी और औरत ने एक साथ दहलीजें लांघी हैं लेकिन फिर सिर्फ औरत के लिए नियम-कायदे ही क्यों? क्या सिर्फ रोटी नर्म और बिस्तर गर्म करने तक ही वजूद है उसका?’
एक लड़की जब तक अपने घर में रहती है अपनी मनमर्जी से जीती है। पढ़ते, लिखते या कुछ विशेष करते हुए लड़कियां अपने माँ-बाप का ईमान रखते हुए उनका सर फख्र से ऊंचा भी करती हैं। ऐसी ही एक लड़की कुसुम जो आगे पढ़ना चाहती है। पढ़ना ही नहीं बल्कि वकील बनना उसका सपना है। लेकिन मां-बाप जल्दी शादी करना चाहते हैं। मां-बाप की मर्ज़ी को खुद की मर्जी मानकर शादी कर ली। लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि दस पास उसके घर वाले और फैक्ट्री मालिक के लड़के से रिश्ता जो हुआ वो ज्यादा न जम पाया। क्यों? वह कारण इसे देखते हुए आप खुद खोजिए।
कहानी तो सीरीज़ के लेखकों और डायरेक्टर ने मिलकर बढ़िया लिखी है। पितृसत्तात्मक समाज को ठेंगा दिखाने वाले संवाद भी अच्छे लिख लिए लेकिन रीजनल सिनेमा खास करके हरियाणा और राजस्थान का हौले-हौले ही सही आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा है। इस वजह से भी हमें उनका हौसला बढ़ाना चाहिए। फिर इंडिपेंडेंट डायरेक्टर्स के साथ एक बड़ी समस्या हमेशा से बजट की भी रही है। उसी का खामियाजा यह सीरीज भी भुगतती है।
उसी खामियों के चलते कई जगह एक्टिंग, डबिंग, सिनेमेटोग्राफी, कैमरे आदि की कमियां भी जाहिर होती हैं। लेकिन सिर्फ कमियां ही हैं ऐसा नहीं है। कुछ जगह कैमरे के अच्छे शॉट्स भी देखने को मिलते हैं तो कुछ जगह एक्टिंग, बैकग्राउंड स्कोर भी बढ़िया बन पड़ा है। यह सीरीज दो-एक जगह आंखें भी नम करती है। सीरीज के टाइटल सांग ‘इतिहास लिखूंगी’ के लिरिक्स भी अच्छे लगते हैं सुनने में। लेकिन महिलाएं कब इतिहास लिखेंगी? क्या वे पहले से लिख नहीं चुकी हैं? कब तक उन्हें अपने आपको साबित करना होगा? कब तक दहेज या यूं ही घरेलू हिंसा का शिकार होती रहेंगी? इन सब सवालों को खोजते हुए इस सीरीज को देखने के बाद विचार कीजिएगा कि क्या जो कहानी लिखी गई है वह सचमुच सोच बदल पाने में कामयाब होगी?
क्या सच में ऐसे सभी पतियों या आदमियों से महिलाओं को तलाक दिलवाना ही एक आखरी हल है? क्या जैसा सीरीज दिखाती है या बताती है वैसा सच में कभी साकार हो पाएगा? लेकिन फिर हमें यह भी सोचना होगा कि ऐसी जरूरत ही क्यों आन पड़ी? कहने को यह अच्छी कहानी है लेकिन ऐसी कहनियां हमारे भारतीय सिनेमा में पहले भी हजारों दफा कही जा चुकी हैं। अगर कुछ नयापन है तो रीजनल सिनेमा को सहारा देने वाली ऐसी ही कहानियों के माध्यम से उसे आगे बढ़ाने का काम।
निशा शर्मा इससे पहले एक स्टेज एप्प की ही एक सीरीज ‘ग्रुप डी’ में नजर आ चुकी हैं। इस बार उन्हें अलग किस्म का रोल करते हुए देखना सुहाता है। अंजवी हुड्डा हरियाणा का जाना-पहचाना चेहरा है। इस सीरीज में भी हमेशा की तरह अभिनय तो ठीक करती हैं लेकिन डबिंग की समस्या भी उनके साथ इसमें सबसे ज्यादा जाहिर होती हैं। कास्टिंग में हल्की कमियां और कुछ उसका कच्चापन इसे उस स्तर तक नहीं ले जा पाता जहां से इसे भर-भर तारीफें दीं जा सकें।
केशव, अरुण नारा, गीता सरोहा, आशीष नेहरा, मनीषा, गायत्री कौशल, मनावजीत मलिक आदि जैसे एक्टर रीजनल सिनेमा के कलाकारों की नजरों से मिलाजुला असर छोड़ते हैं। सीरीज के डायरेक्टर का निर्देशन और बेहतर हो सकता था यदि उन्हें बजट और मिला होता। ‘स्टेज एप्प’ अगर अपना प्रचार और विकास करने के साथ-साथ रीजनल सिनेमा के लिए सच में कुछ करना चाहता है तो उन्हें कम-से-कम संसाधन अच्छे देने होंगे डायरेक्टर्स को तथा बजट में वे जो कंजूसी वे बरतते आ रहे हैं वह उन्हें एक दिन कहीं अपने इस एप्प बनाने के फैसले को लेकर सोचने पर मजबूर न कर दे। कुलमिलाकर एक अच्छी कहानी तो कह लेते हैं स्टेज एप्प वाले लेकिन जब तक तकनीकी खामियों से पार न पाएंगे वे तब तक उनका रीजनल सिनेमा केवल उनके रीजन तक ही दबा पड़ा रहा जाएगा।