कोरोना का दानव एक बार फिर सब कुछ निगलने को आतुर है. लेकिन लोग हैं कि अब भी ज़िद पर अड़े हुए हैं कि कोरोना वायरस जैसा कुछ है ही नहीं! किसी को ये वैश्विक स्तर पर जनसंख्या कम करने की योजना लगती है तो कोई कहता है कि आम जनता को भयभीत बनाए रखने के लिए तमाम देशों की सरकारों ने ये कुटिल चाल चली है. इस महामारी के पहले दौर में चीन पर दोषारोपण करने वालों के हाथ अब, वैक्सीन बनाने वाली फार्मा कंपनियों के गिरेबान तक जा पहुंचे हैं. इन सबका यही मानना है कि कोरोना महामारी एक भ्रम भर है.
लेकिन मैं ये कैसे मान लूँ कि कोविड-19 नहीं है. मैंने अपने पड़ोसी के बेटे को इस बीमारी से ग्रस्त होने के बाद, अपने ही घर में बंद होते हुए देखा है. उसके परिवार के हर सदस्य की आँखों में मृत्यु भय देखा है. मेरे दूसरे पड़ोसी के परिजनों को रेमडेसिवीर इंजेक्शन के लिए दो दिन परेशान होते देखा है. मैंने उन घरों की बेबसी को भी बेहद क़रीब से महसूस किया जो इस बीमारी के चलते किसी अपने को खो बैठे और जाने से पहले उसे गले लग अलविदा न कह सके! उसकी लाश पर फूट-फूटकर रो न सके! मैं टीवी पर चलती उन ख़ौफ़नाक तस्वीरों की भी साक्षी रही हूँ जहाँ एक पोता अपने बीमार दादाजी को लिए शहर भर घूमता रहा और उनके लिए अस्पताल में एक अदद बेड का इंतज़ाम न कर सका. कहीं ठेले पर अपनी माँ की लाश लिए तो कहीं कचरे की गाडी में अपने माता-पिता को श्मशान ले जाती तस्वीरों की शर्मिंदगी से भी अब तक उबर नहीं सकी हूँ मैं. दवाई के लिए दर-दर भटकते, बेड के लिए डॉक्टर के आगे गिड़गिड़ाते, अपनों को बचाने की दुआ मांगते, श्मशान में मृतक के दाह-संस्कार की लम्बी वेटिंग लाइन में खड़े लोगों को देखती हूँ तो लगता है जैसे दर्द और करुणा से ओतप्रोत, आज से पचास साल पहले की कोई हिन्दी फ़िल्म देख रही हूँ. यह सच है, कि कोरोना महामारी को मन स्वीकार ही नहीं करना चाहता! लेकिन कोविड की सच्चाई जाननी है तो उन लाखों परिवारों से पूछिए, जिन्होंने कोई अपना सदा के लिए खो दिया है. मृत्यु का छूकर गुज़र जाना क्या होता है, इसे समझना हो तो उन पुराने वीडियोज़ को देखिये जिसे कोरोना को मात देकर सुरक्षित अपने घर लौट आने वालों ने अपलोड किया हुआ है. ख़ुशी से बहते उन आँसुओं में टटोलिए कि किसी घातक बीमारी से सुरक्षित बाहर निकल आने पर कैसा महसूस होता है.
हम उत्सवधर्मी देश में रहते हैं अतः आप आप चुनाव या कुंभ में उमड़ती भीड़ को देख संशय में न पड़िए. चुप ही रहिये क्योंकि सरकार और नेताओं के लिए अलग नियम हैं और आम जनता के लिए अलग. सरकार गंभीर दिखे या न दिखे, हमें गंभीर ही रहना होगा. क्योंकि लाॅकडाउन, रात्रिकालीन कर्फ्यू और मास्क न लगाने पर ज़ुर्माना हमारे हिस्से ही आएगा. अव्यवस्था का शिकार भी हमें ही होना है. मरेगा भी आम आदमी ही अधिक. आप वैक्सीन नहीं लगवाना चाहते क्योंकि आपके अपने व्यक्तिगत, राजनीतिक कारण हैं. चलो, मान लिया कि आपको मोदी जी पसंद नहीं तो वैक्सीन नहीं लगवाएंगे. पर क्या आपको अपना परिवार भी प्यारा नहीं, अपनी जान प्यारी नहीं? जो एक विरोध के चलते उसे हथेली पर लिए घूम रहे हैं! वैक्सीन बनाई है, हमारे वैज्ञानिकों ने. इनका लक्ष्य सैनिकों की तरह ही जाति, धर्म और राजनीति से परे होता है. इन्हें अपने काम से मतलब, सरकारों से नहीं! लोग ये भी कहते फिर रहे कि “जब वैक्सीन के बाद भी कोरोना न होने की गारंटी नहीं तो काहे लगवाएं!” तो साहब, आप इसलिए लगवाइये कि मान लो आपको कोरोना हो भी जाता है तो आपकी जान बचने की संभावना उनसे कहीं अधिक है जिन्होंने वैक्सीन नहीं ली है. याद है, अपने बच्चों को कैसे समय-समय पर टीकाकरण केंद्र लेकर जाते रहे हैं,आप? इंजेक्शन के समय बच्चे का दर्द और रोता हुआ चेहरा नहीं देखा जाता था पर तब भी कैसे जी कड़ा करके हमने उन्हें टीके लगवाए क्योंकि उनकी सुरक्षा हमारी प्राथमिकता रही थी. आज उसी प्राथमिकता में स्वयं को रखने का समय है. हमारा बचना यानी एक परिवार का बचना है.
कुल मिलाकर यह बिलकुल भी आवश्यक नहीं है कि कोरोना से संक्रमित होकर ही इसे बीमारी माना जाए, आप जांच केंद्र के बाहर की भीड़ देखें, दवाई, इंजेक्शन और ऑक्सीजन सिलिंडर के लिए भटकते हजारों चेहरों की निराशा पढ़ें. अगर इसकी भयावहता को समझना है तो उस न्यूज़ को भी जरूर गूगल करें जिसमें एक व्यक्ति की लाश रात भर घर में पड़ी रही लेकिन उसे छूने को कोई तैयार न हुआ. यहां तक कि उसकी पत्नी और बहू भी उस स्थान से दूर ही रहे. इस व्यक्ति की मृत्यु हृदयाघात से हुई थी लेकिन उसका बेटा कोविड पॉजिटिव होने के कारण अस्पताल में भर्ती था. गाँव वालों ने इस घर की देहरी पर पैर तक न रखा. फिर कोविड मरीज़ों का इलाज करने वाली टीम ने ही इस वृद्ध की अर्थी को कांधा दिया और उसका अंतिम संस्कार भी किया.
लोग परिजनों से मिल नहीं पा रहे, दुनिया भर में करोड़ों घर बर्बाद हो गए, अपनों से हमेशा-हमेशा के लिए बिछुड़ गए. परिवार ख़त्म हो गए, रोजी-रोटी का सहारा न बचा. लाशों के ढेर लगते जा रहे हैं और उनकी अंतिम क्रिया को जगह की कमी पड़ रही है. फिर भी आपको लगता है कि कोविड नामक महामारी है ही नहीं, तो मुझे आपकी बुद्धि पर बेहद तरस आता है, साथ ही आपके परिवार के लिए हाथ, दुआ को भी उठते हैं.