अमर कथा शिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म 4 मार्च 1921 ई. को बिहार राज्य के वर्तमान अररिया जिले के सिमराहा के नजदीक औराही हिंगना नामक गाँव में हुआ था। भारतीय इतिहास का यह दौर तेजी से बदलते घटनाक्रम और स्वाधीनता के महास्वप्न की प्राप्ति के लिए स्वाधीनता सेनानियों, क्रांतिकारियों और साहित्यकारों के द्वारा किये जा रहे तीव्र संघर्ष और अथक परिश्रम के लिए जाना जाता है। फणीश्वरनाथ रेणु के साहित्यिक व्यक्तित्व का निर्माण ऐसे ही वातावरण में हुआ जब चारों तरफ स्वाधीनता और राष्ट्र निर्माण की आवाज गूंज रही थी। रेणु के साहित्य का अधिकांश अंश स्वतंत्रता आन्दोलन और उसके बाद रचा गया। आजादी के साथ जो विसंगतियां और समस्याएं भारतीय राष्ट्र, समाज और यहाँ के जनमानस को विरासत में मिली, उससे रेणु एक सक्रिय स्वाधीनता सेनानी और एक सचेत और सजग रचनाकार होने के नाते बखूबी वाकिफ़ थे। और न सिर्फ वाकिफ थे बल्कि उन्होंने नव स्वाधीन राष्ट्र के निर्माण के लिए अपने रचनाओं के माध्यम से रचनात्मक सार्थक प्रयास भी किया। राष्ट्र निर्माण की चिंता रेणु के सम्रग साहित्य की केन्द्रीय विशेषता है। यही कारण है कि रेणु के साहित्य की आत्मा गांवों में बसती है। रेणु ने गांव और परिवार से जुड़े संदर्भों और विषयों को अपनी कहानियों और उपन्यासों के केन्द्र में रखा है। गांव के निर्माण के बिना राष्ट्र का निर्माण नहीं किया जा सकता, रेणु इस विचार को मानने वालों में से थे। उनकी रचनाओं को पढ़कर यह महसूस होता है कि रेणु का गाँव उनके राष्ट्र से अलग नहीं है बल्कि समग्र राष्ट्र ही रेणु के यहां सूक्ष्म रुप में गांव और अंचल के रुप में व्यक्त है। हिन्दुस्तान की आत्मा उसके गांवों में बसती है रेणु का साहित्य इस विचार और चिंतन को प्रतिबिंबित और प्रमाणित करता है। वास्तव में राष्ट्रनिर्माण संबधी रेणु का चिंतन, अंचल यानी देस से राष्ट्र तक का चिंतन है।
एक साहित्यकार के रूप में रेणु के व्यक्तित्व के निर्माण से पूर्व तत्कालीन परतंत्र भारत में कई घटनाएं ऐसी घट चुकी थीं जिसने जीवन, कला, राजनीति और साहित्य के क्षेत्र में राष्ट्रनिर्माण के चिंतन को बल दिया। बंगभंग आन्दोलन हो चुका था। महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौट आए थे। असहयोग आन्दोलन विफल हो चुका था।और सविनय अवज्ञा आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी। जिस तरह राजनीतिक रुप से पूरा भारत स्वाधीनता की प्राप्ति के लिए महात्मा गांधी के नेतृत्व में आगे बढ़ रहा था, उसी तरह हिन्दी कथा साहित्य के क्षेत्र में प्रेमचंद रंगभूमि जैसे उपन्यासों के माध्यम से जनमानस के बीच स्वाधीनता प्राप्ति के लिए आवश्यक चेतना का निर्माण कर रहे थे। राजनीतिक प्रक्रियाओं के रूप में गोलमेज सम्मेलनों की असफलता, कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशनों की खींचतान के बीच भारत छोड़ो आन्दोलन के रूप में निर्णायक संघर्ष के लिए जन-मानस तैयार हो रहा था। राष्ट्र निर्माण के चिंतन के ऐसे ही प्रगाढ़ वातावरण में रेणु के साहित्यिक व्यक्तित्व का उदय हुआ। और राष्ट्रनिर्माण की निर्मित होती इसी चेतना के बीच वे अपने कदम बढ़ा रहे थे। अंग्रेजी हुकूमत के प्रति उनमें स्वाभाविक रोष था। बचपन से ही रेणु ने अपने इलाके में गोरे सैनिकों का अत्याचार और ज़ुल्म देखा था, जिसका उनकी साहित्यिक चेतना पर व्यापक प्रभाव पड़ा। अपनी कहानी धर्मक्षेत्रे-कुरूक्षेत्रे में रेणु ने अंग्रेज सैनिकों के अत्याचार का जो चित्रण किया है वह रोंगटे खड़े कर देने वाला है :
“कुहराम और बढ़ता है। आवाजें और भी दर्दीली होती जाती हैं। कुत्ते और भी तेजी से भूंकने लगते हैं।
कौन भागटा है ?
फायर !
ट्ठांय !
बांसों के झुरमुट में, पास के पेड़ों पर सोये हुए परिंदे फड़फड़ाकर उड़ गये। रात अंधेरी होने पर भी आसमान मुक्त है, वे पांखें फैलाकर उड़ सकते हैं। मगर धरती पर, गांवों में, झोंपड़ों के इंसान? वे तो घिरे हैं!
बाबा हो, अरे बाप मरि गोल्हां रे बाप !
चडन कुमार कहां है, बटाव ?
हुजूर हमरा कुच्छू नै मालूम।
गांडी का बच्चा, काला कुट्टा !
घरों में धुसकर खोजा जाय।”1
रेणु का अँचल नेपाल की सीमा से सटा हुआ बिहार का वह इलाका शेष भारत की तरह ही आरंभ से ही भाषाई और सांस्कृतिक रुप से विविधताओं से सम्पन्न रहा। परन्तु गोरों की गुलामी, शोषण और अत्याचार के कारण श्रीहीन होता गया वह क्षेत्र भी समूचे भारत की तरह ही लम्बे समय तक अपनी मुक्ति की राह ताकता रहा। विभिन्न जाति-वर्ण और धर्मों में बंटे लोगों का निवास स्थल रेणु का अँचल अंग्रेजों के जमाने से ही सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षिक पिछड़ेपन का शिकार रहा तथा बदहाली के कारण शेष भारत की तरह समृद्ध नहीं हो सका। अंग्रेजी राज में तो यहां की स्थति दयनीय थी ही मगर स्वाधीनता के बाद के आरंभिक वर्षों में भी इस अँचल की सुध लेने वाला कोई नहीं हुआ। आजादी के बाद भी दिल्ली से निकला विकास और तरक्की का हर रास्ता रेणु के इस अंचल तक आते आते कहीं गायब-सा हो गया। यहीं कारण है कि रेणु को अपने प्रथम उपन्यास मैला आंचल की भूमिका में लिखना पड़ा – “यह है मैला आंचल, एक आंचलिक उपन्यास। कथानक है पूर्णिया।…….इसमें फूल भी हैं शूल भी; धूल भी है, गुलाब भी; कीचड़ भी है, चंदन भी; सुंदरता भी है, कुरूपता भी – मैं किसी से दामन बचाकर नहीं निकल पाया।”2
फणीश्वरनाथ रेणु जीवन और साहित्य दोनों ही मोर्चों पर क्रांतिकारी साहस से सम्पन्न थे। उनके पिता शिलानाथ मंडल कांग्रेसी थे। इससे भी रेणु की राष्ट्रीय चेतना के निर्माण में सहायता हुई। राष्ट्रीय चर्चा और राष्ट्र चिंतन से उनका जुड़ाव बचपन में ही हो गया। इंदिरा गांधी ने जिस वानर सेना की नीव रखी थी रेणु ने अपने स्कूली जीवन में उस वानर सेना का गठन किया था। स्कूल के जीवन काल में ही रेणु ने जेल की यात्रा भी की। आज की पीढ़ी को शायद ही मालूम हो कि रेणु 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने के कारण महज नौ वर्ष की उम्र में चौदह दिनों के लिए जेल गए थे। 1942 ई के भारत छोड़ों आन्दोलन के दौरान जब सारा भारत स्वाधीनता के महायज्ञ में अपनी आहूति दे रहा था तब रेणु भला कैसे पीछे रहते। इस दौरान रेणु ने आजाद दस्ता का गठन किया और आन्दोलन में कूद पड़े। परिणाम स्वरूप अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें जेल में डाल दिया। करीब ढाई साल तक वे जेल में बंद रहे। इस दौरान उन्हें पार्टी पोलिटिक्स के कड़वे यथार्थ का भान हुआ। फिर क्या था रेणु ने इस पार्टी पोलिटिक्स की बनावटी और अवसरवाद से भरपूर फ़रेबी दुनिया को अलविदा कह दिया। इस पूरे घटनाक्रम का बड़ा रोचक वर्णन रेणु ने अक्टूबर 1945 में लिखी कहानी ‘पार्टी का भूत’ में किया है। जेल से छूटते ही वे सक्रिय लेखन में लग गये। उनकी कहानियों के विषय अक्सर ग्रामीण जीवन से संबंध रखते हैं। उनके पात्रों में छोटे बच्चे, स्त्रियां, गाड़ीवान, और लोक कलाकार शामिल हैं। मेला बाजार के दृश्यों और संवादों का जो सौंदर्य रेणु के यहां है, वह कहीं और दुर्लभ है।
राष्ट्र केवल भौगोलिक सीमाओं से नहीं बनता। किसी भी राष्ट्र की उन्नति और तरक्की के लिए यह आवश्यक है कि वहां की स्त्रियाँ स्वस्थ, समर्थ और शिक्षित हों। परन्तु हकीकत यह थी कि अंग्रेजों और जमीनदारों के शोषण के कारण भारत के इस इलाके में स्त्रियों की सामाजिक और आर्थिक दशा बहुत ही खराब थी। रेणु की रचनाओं में उनका यह चिंतन प्रमुखता से व्यक्त हुआ है कि स्त्रियों की दशा के नवनिर्माण के बिना राष्ट्रनिर्माण की बातें करना बेईमानी है। वे स्त्रियों की अच्छी दशा के लिए उनका आर्थिक रुप से सम्पन्न होने को बहुत आवश्यक मानते थे।रेणु समाज में महिलाओं की बराबरी के पक्षधर थे। यही कारण है कि लालपान की बेगम कहानी की नायिका बिरजू की मां का अभिमान हमें जरा भी नहीं अखरता। और बिना क्लाइमैक्स तक पहुँचे ही यह कहानी और बिरजू की मां का चरित्र हमारा मन मोह लेती है। अपनी कहानी ‘हाथ का जस और बाक का सत्त’ में रेणु ने अपने इलाके के स्त्रियों की दशा का मार्मिक चित्रण किया है। रेणु के अँचल की स्त्रियाँ जिस नरकीय स्थिति में जी रही थी, उनके नवजात शिशु जिस तरह मृत्यु का ग्रास बनते जा रहे थे, उसके बारे में इस कहानी में रेणु लिखते हैं – “स्टेशन के पास बद्री भगत के पिछवाड़े में खड़े बूढ़े गूलर के पेड़ की दुर्गति देखकर समझ गया – पिछले कई महीनों से इलाके में कोई भीषण शिशु रोग फैला हुआ है और जग्गू पंसारी जीवित है।……गूलर के तने पर खाल नहीं, समझो (गांव का) अच्छा हाल नहीं। गूलर का दूध और बाकल ( बल्कल ) उस अनाय शिशु रोग की एकमात्र रामबाण दवा है – आज भी। जग्गू पंसारी आज भी चुनौती भरे सुर में कहता है – सिविल सरजंट हो चाहे टैनबनरजी डाक्टर, इस रोग का नाम ही नहीं जानता कोई। दवा क्या करेगा ?..”3
राष्ट्र निर्माण के लिए रेणु गांव और शहर के बीच, पिछड़े इलाकों-अँचलों और विकसित-उन्नत शहरों और महानगरों के बीच तकनीक और कौशल के आदान-प्रदान के पक्षधर थे। वे गांवों में जड़ता की प्रवृत्ति के विरोधी थे। रेणु गांव को खत्म होने से बचाने के लिए वहां उद्योग और रोजगार के अवसर उत्पन्न करने की बात करने वाले रचनाकार हैं। लोक कलाओं और स्थानीय कारीगरी से निर्मित वस्तुओं की महत्ता उनकी रचनाओं में व्यक्त हुई है। वे कलाकार के स्वाभिमान को महत्वपूर्ण मानते थे। इसलिए ठेस कहानी का नायक सिरचन हमें इतना आकर्षित करता है।लोक कलाओं के संरक्षण और प्रसार के माध्यम से राष्ट्र निर्माण का चिंतन रेणु की रचनाओं में प्रकट हुआ है। नवंबर 1972 में लिखी रेणु की कहानी ‘भित्तिचित्र की मयूरी’ का आखरी अंश है –“ गांव में फिर एक बार जोर से एक नई खबर फैली, नहीं नहीं ! फूलपत्ती की मां नहीं जाएगी गांव छोड़कर। अपने पति की डीह छोड़कर वह कहीं नहीं जायेगी।लेकिन सनातन ने यहां एक ‘सेंटर’ खोलने का फैसला किया है। पटना और दिल्ली और कलकत्ता से चुनी हुई लड़कियाँ तीन महीनें की ट्रेनिंग लेने आयेंगी यहाँ। फूलपत्ती की माँ को घर बैठे ही समझो – पांच सौ से हजार रुपये तक मिलेंगे और जिले और गांव की लड़कियों को भी मुफ्त में सिखाया जायेगा ………अखबार में भी यह खबर छप गई है। बदरी भगत सबको सुना रहा है। इस बार गांव का पूरा नाम छपा है अखबार में – मोहनपुर के मधुबनी आर्ट सेंटर के भवन के शिलान्यास के लिए देश के प्रसिद्ध चित्रकार हुसैन से अनुरोध किया गया है..”4
राष्ट्र निर्माण में लोक कलाकारों और लोक कलाओं के महत्त्व को दर्शाते हुए रेणु ने अपनी कहानियों और उपन्यासों में लोकगीतों के माध्य्म से राष्ट्र निर्माण संबंधी अपने साहित्यिक और वैचारिक चिंतन को प्रकट किया है। उनकी रचनाओं में क्रांतिकारियों, किसानों, आदिवासियों, महिलाओं के द्वारा जो लोकगीत गवाये गये हैं, वे राष्ट्रनिर्माण के लिए रेणु के चिंतन को अभिव्यक्त करते हैं। इस दृष्टिकोण से मैला आँचल उपन्यास का विशेष महत्व है। मैला आँचल में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक समस्याओं से बावस्ता कई गीत हैं। इन लोकगीतों से जहाँ सामाजिक समस्याओं की जटिल संरचना का बोध होता है वहीं उनके समाधान का मार्ग भी प्रशस्त होता है। आजादी के बाद देश में सर्वे आरंभ हुआ परन्तु पटवारियों और जमीनदारों ने आपस में मिलीभगत शुरु कर दी जिसके कारण दस हाथ के लग्गे से पाँच हाथ जमीन मापा जाने लगा और जनता को सर्वे में अपनी ही जमीन बचाने के लिए थाली-लोटा बेच के रिश्वत देने के लिए मजबूर होना पड़ा :
” अरे कोना के बाँधबै रे धीरजा, केना के बाँधबै रे,
अरे मुद्दई भेल पटवारी रे धीरजा केना के बाँधबै रे!
दस हाथ के लग्गा बनैलकै
पाँचे हाथ नपाई !
थारी बेंच पटवारी के देलियै,
लोटा बेंच चौकीदारी।
बाकी थोड़ेक लिखाई जे रहलै,
कलक देलक धुराई ले धिरजा।”5
व्यंग्य के रुप में प्रयोग किये गये इस गीतों से जो यथार्थ प्रकट हुआ है वह बहुत ही दारूण है।
रेणु की सोच आधुनिक और क्रांतिकारी थी। दलगत राजनीति और पार्टी पाॅलिटिक्स से भले ही उनका मोहभंग बहुत पहले ही हो चुका था। परन्तु देश की स्वाधीनता के लिए रेणु हमेशा संघर्ष करते रहे। जयप्रकाश नारायण और कर्पूरी ठाकुर जैसे स्वतंत्रता सेनानियों के साथ उनका संपर्क बना रहा। रेणु आजाद भारत के नवनिर्माण के क्रांतिदूत थे। क्रांतिकारी सोच न सिर्फ उनकी रचनाओं में बल्कि उनके जीवन में भी छायी रही। अपने राष्ट्र और वहां के निवासियों विशेषकर उपेक्षित, पीड़ित, शोषित, वंचित समूह और समाज को एक स्वाधीन राष्ट्र में उनका वाजिब हक मिले, इसके लिए रेणु हमेशा रचते और लड़ते रहें। अपनी इस धुन के कारण वे सत्ता के आमने-सामने होने से भी नहीं चूके। आजाद भारत में जनता की लोकतांत्रिक अधिकारों को जब तत्कालीन कांग्रेसी सरकार ने कुचलने का प्रयास किया और देश में आपातकाल लागू कर दिया तो रेणु ने पद्मश्री का पुरस्कार लौटा दिया। द्वैत न रेणु के विचारों में था , न साहित्य में और न जीवन में ही। अपनी गंभीर बीमारी के बावजूद भी रेणु अपने अंतिम समय तक अपनी साहित्यिक और वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण राष्ट्र के नवनिर्माण के लिए जेपी के आन्दोलन में सक्रिय रहे। रेणु को सन् 1970 में पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया था। परन्तु एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में जनता के संवैधानिक अधिकारों पर शासन और सत्ता के अत्याचारों से क्षुब्ध और दुखी रेणु जेपी आन्दोलन में शामिल हो गये। और ‘पद्मश्री’ के सम्मान को ‘पापश्री’ कहकर लौटा दिया। देश की दशा से खिन्न होकर, उसके सम्पूर्ण बदलाव के लिए संघर्ष करते हुए इतने महत्वपूर्ण और गौरवशाली सम्मान को लौटाने वाले रेणु हिन्दी के प्रथम लेखक थे। पद्मश्री लौटाते हुए उन्होंने जो पत्र राष्ट्रपति के नाम लिखा उसे रेणु के राष्ट्र निर्माण के चिंतन के परिपेक्ष्य में जरुर पढ़ा जाना चाहिए-
‘प्रिय राष्ट्रपति महोदय,
21 अप्रैल 1970 को तत्कालीन राष्ट्रपति वाराहगिरी वेंकटगिरी ने व्यक्तिगत गुणों के लिए सम्मानार्थ मुझे पद्मश्री प्रदान किया था। तब से लेकर आज तक इस संशय में रहा हूँ कि भारत के राष्ट्रपति की दृष्टि में अर्थात भारत सरकार की दृष्टि में वह कौन- सा व्यक्तिगत गुण है, जिसके लिए मुझे पद्मश्री से अलंकृत किया गया। 1970 और 1974 के बीच देश में ढेर सारी घटनाएं घटित हुईं हैं। उन घटनाओं में, मेरी समझ से बिहार आंदोलन अभूतपूर्व है। 4 नवम्बर को पटना में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में प्रदर्शित लोक- इच्छा के दमन के लिए लोक और लोकनायक के ऊपर नियोजित लाठी प्रहार झूठ और दमन की चरम पराकाष्ठा थी। आप जिस सरकार के राष्ट्रपति हैं, वह कब तक लोक इच्छा को, झूठ, दमन और राज्य की हिंसा के बल पर दबाने का प्रयास करती रहेगी? ऐसी स्थिति में मुझे लगता है कि ‘पद्मश्री’ का सम्मान अब मेरे लिए पापश्री बन गया है। साभार यह सम्मान वापस करता हूँ।”
रेणु को हमेशा आँचलिकता के दायरे में सीमित कर देखने की कोशिश की गई है। जबकि वास्तविकता तो यह है कि राष्ट्र निर्माण संबधी रेणु का चिंतन अंचल यानी देस से राष्ट्र तक का चिंतन है। आजादी के बाद का भारत कैसा हो इसकी गहरी चिंता थी रेणु को। स्वतंत्रता के बाद स्थितियां तेजी से बदलीं। विदेशी गोरों की जगह अपने देश के लोगों को देश चलाने का अधिकार प्राप्त हुआ। परन्तु सत्ता में बैठे नेताओं और सरकारी कार्यालयों में बाबुओं की अंग्रेजीदां प्रवृत्ति और मनोवृत्ति ने जनता को उनके हक और सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित ही रखा। भ्रष्टाचार और पार्टी पाॅलिटिक्स ने देश की हालत खराब कर दी। रेणु को इसका आभास शुरुआत में ही हो गया था। देश के सीमाओं और सुदूर क्षेत्रों के अँचल में बसे गांवों के उन्नत और समृद्ध हुए बगैर भारत की उन्नति संभव नहीं है यह उनका विचार भी था और विश्वास भी। अपने प्रसिद्ध उपन्यास मैला आँचल में रेणु इस पिछड़ेपन और बदहाली के उन कारणों की शिनाख़्त करते हैं जिनकी वज़ह से देश का यह सीमान्त क्षेत्र तरक्की, विकास और समृद्धि के तमाम उपक्रम और प्रयासों से वंचित रह गया :
“डाॅक्टर का रिसर्च पूरा हो गया; एकदम कंपलीट। वह बड़ा डाॅक्टर हो गया। डाॅक्टर ने रोग की जड़ पकड़ ली है…..। गरीबी और जहालत- इस रोग के दो कीटाणु है। एनोफिलीज से भी ज्यादा खतरनाक, सैंडफ्लाई से भी ज्यादा जहरीले हैं यहाँ के..”6 क्या ऐसा नहीं लगता कि यह रिसर्च डाॅक्टर प्रशांत नहीं बल्कि स्वयं रेणु ही कर रहे हों, अपने मैला अंचल की बदहाली और पिछड़ेपन को दूर करने के लिए, अपने राष्ट्र के निर्माण के लिए।
स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान महात्मा गांधी ने देश का नेतृत्व किया था। हजारों लोगों ने स्वाधीनता की वेदी पर खुद को बलिदान कर दिया। तब जाकर भारत आजाद हुआ। आजादी के बाद लोगों को यह भरोसा था कि गांधी के स्वराज के अनुरूप ही देश का निर्माण होगा। परन्तु यह तो यह है कि गांधी जी की मृत्यु के साथ ही सत्ता पर काबिज देश के कर्त्ता-धर्ता नेताओं और अधिकारियों ने व्यक्तिगत लाभ, लोभ और भ्रष्टाचार के कारण न तो गांधी को याद रखा और न हीं उनके विचारों को। भ्रष्टाचार और लूट का जो खेल एक बार शुरु हुआ वह लगातार जारी रहा। राष्ट्र निर्माण और राष्ट्रीय चिंतन का पवित्र उद्देश्य परिदृश्य से ही गायब हो गया। ऐसे में स्वराज और सुराज का स्वप्न पीछे छूटता गया। और राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया को गहरी चोट पहुँची। भारतीय राजनीति और सामाजिक-आर्थिक विकास में इसका दूरगामी प्रभाव पड़ा। रेणु इससे बहुत आहत थे। उन्होंने अपने उपन्यासों में इसका बेहद मार्मिक चित्रण किया है। मैला आँचल में प्रमुख गांधीवादी चरित्र बावनदास की हत्या के प्रसंग में इसे देखा और समझा जा सकता है। कांग्रेस के नाम पर कांग्रेस के ही लोगों के द्वारा अनैतिक और गैरकानूनी कार्य किये जाने लगे। बावनदास कहता है: “कौन ?…. कापरा जी ! गाड़ी के पीछे से क्या झाँकते हैं ? सामने आइये ! ……..पास कराइए गाड़ी। आप भी काँगरेस के मेम्बर हैं और हम भी। खाता खुला हुआ है; अपना-अपना हिसाब-किताब लिखाइए।”7 लेकिन होता यह है कि बावनदास की बैलगाड़ियों से कुचल कर हत्या कर दी जाती है ताकि लूट, भ्रष्टाचार और बेईमानी की ये बात प्रकट न हो सके। उपन्यास में बावनदास का चरित्र महात्मा गाँधी जी के चरित्र से प्रेरित है। वहीं महात्मा गाँधी जिन्होंने देश की स्वाधीनता के लिए इतना कुछ किया परन्तु अंत में उनकी ही हत्या कर दी गई। बावनदास के साथ भी ऐसा ही होता है। उसकी मृत्यु पर रेणु ने उपन्यास में एक मार्मिक टिप्पणी की है कि “बावन ने दो आजाद देशों की, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की – ईमानदारी को, इंसानियत को, बस दो डेग में ही नाप लिया !” 8
रेणु के लिए राष्ट्र निर्माण का अर्थ था राष्ट्र के इस अति पिछड़े और बदहाल इलाके के लोगों को हर साल झेलने वाली बाढ़ और महामारी जैसी समस्याओं से मुक्ति मिले। आजादी के तुरंत बाद 1948 में ही रेणु लिखते हैं – “यह तो हर साल की बात है. हर साल बाढ़ आती है-बर्बादियां लेकर. रिलीफें आती हैं, सहायता लेकर. कोई नई बात नहीं. पानी घटता है. महीनों डूबी हुई धरती. धरती तो नहीं, धरती की लाश बाहर निकलती हैं. धरती की लाश पर लड़खड़ाती हुई जिंदे नरकंकालों की टोली फिर से अपनी दुनिया बसाने को आगे बढ़ती है।” डाॅ बच्चन सिंह रेणु के साहित्य में सामाजिक अनैतिकता, राजनीतिक भ्रष्टाचार के बीच संघर्षरत ग्रामीण जनता के मध्य पनप रही राष्ट्रीय चिंतनधारा की और हमारा ध्यान आकृष्ट करते हुए लिखते हैं, “सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि मूल्यहीनता के उस जमाने में रेणु के पास एक आस्थावादी दृष्टिकोण है, इसलिए वे एक रचनात्मक निष्कर्ष पर पहुँच सके हैं। अनगिनत चलचित्रों, लोककथाओं, लोक-गीतों, राजनीतिक दलों का नीरन्ध स्थापत्य और मूल्यवादी दृष्टि के कारण इनमें जो राष्ट्रीय चरित्र उभरा है वह अप्रतिम है।”9
रेणु के साहित्य में उनके अंचल के माटी की खूश्बू रची-बसी है। अपने गांव, अपने अंचल और वहां के उपेक्षित, पीड़ित, शोषित जनता का निर्माण चाहते हैं। रेणु कहते थे- “मेरे लिए प्रतिबद्धता का एक ही अर्थ है जनता के प्रति प्रतिबद्ध होना बाकी सब बकवास है।”10 रेणु जनता अर्थात मनुष्य के कल्याण और नवनिर्माण के लिए प्रतिबद्ध है । उनकी यही प्रतिबद्धता उन्हें समूचे भारत के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध बनाती है। रेणु का राष्ट्र निर्माण संबंधी चिंतन बहुत व्यापक और विस्तार युक्त है। वहां संकीर्णता और सीमाओं का अभाव है। रेणु पर आँचलिकता के बहाने आरोप लगाने वाले यह भूल जाते हैं कि ‘आँचलिकता’ रेणु के साहित्य की सीमा नहीं बल्कि ‘शक्ति’ है। उनका राष्ट्रनिर्माण संबंधी चिंतन देशों की सीमा और सरहदों से परे था। नेपाली क्रांतिकथा इसका प्रमाण है। उन्होंने नेपाल में राजशाही के खात्मे और लोकतंत्र की बहाली के लिए वहां के मुक्ति युद्ध में बढ़चढ़कर भाग लिया था। वे भारत के साथ-साथ नेपाल को भी अपनी मां कहते थे। नवंबर 1961 में उन्होंने एक लेख लिखा था: “नेपाल – मेरी सानोआमाँ”। सानोआमाँ यानी छोटी माँ। इस लेख में रेणु लिखते हैं -‘जब कभी नेपाल की धरती पर पाँव रखता हूँ पहले झुककर एक चुटकी धूल सिर पर डाल लेता हूँ। रोम-रोम बज उठते हैं – स्मृतियाँ जग पड़ती हैं। जय नेपाल, नेपाल मेरी सानोआमाँ।” 11
रेणु अपने साहित्य में सदियों से सोये हुओं को जगाने के लिए सार्थक रचनात्मक प्रयास करते हैं। क्योंकि वर्षों की पराधीनता और शोषण के बाद स्वतंत्र हुए राष्ट्र का सर्वांगीण विकास तभी संभव था जब विकास की प्रक्रिया में सभी समान रूप से भागीदार और साक्षीदार होते लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हुआ नहीं। प्रशासनिक-व्यवस्था की सहूलियत के नाम पर श्रम की ताकत और सृजन का स्वप्न रखने वाले अनगिनत लोगों को इस प्रक्रिया से दूर कर दिया गया।और अधिकारों को चन्द व्यक्तियों तक केन्द्रित कर दिया गया। लेकिन इस स्थिति में भी “रेणु के लेखकीय सरोकार साफ हैं। वह स्वाधीनता, आजादी, स्वतंत्रता जैसे बड़े शब्दों के बीच दबे हुए कमजोर आदमी की आवाज मुखर करते हैं।”12 रेणु ने आजादी के बाद उत्पन्न स्वार्थ और दलगत राजनीति से प्रेरित राष्ट्रीय चिंतन के प्रतिपक्ष में वंचितों, पिछड़ों और गाँव के उद्धार और निर्माण के द्वारा राष्ट्र निर्माण की ठोस और मजबूत संकल्पना प्रस्तुत की।
रेणु की राजनीतिक चेतना बहुत स्पष्ट थी। राजनीति को वे राष्ट्रनिर्माण का माध्यम मानते थे। उनकी मान्यताओं पर महात्मा गाँधी और मदनमोहन मालवीय जी जैसे महान राष्ट्र भक्तों का गहरा प्रभाव था। रेणु गाँधी और प्रेमचंद की तरह भारत की जनता की मुक्ति और खुशहाली का स्वप्न देख रहे थे। तभी वे अपने समाज में उपस्थित गरीबी, अशिक्षा, अंधविश्वास, रूढ़िवादिता, जमींदारों और धनी किसानों द्वारा किसानों का शोषण आदि को देखकर राष्ट्र मुक्ति के संघर्ष में सबसे पहले छात्र जीवन से ही जुड़ जाते हैं और सक्रिय रूप से स्वाधीनता संग्राम और किसान आंदोलन में भाग लेने लगते हैं।”13 वस्तुतः रेणु के साहित्यिक चिंतन में व्यक्त राष्ट्र निर्माण की चिंतन सैद्धांतिक नहीं अपितु व्यावहारिक है। जो इस बात पर जोर देती है कि एक उन्नत भारत का निर्माण तभी संभव है जब यहाँ की अशिक्षित, पिछड़ी, गरीबी और प्राकृतिक आपदाओं से लड़ रही जनता की समस्याओं का निराकरण कर उनका जीवन बेहतर किया जा सकेगा। गाँव भारत की आत्मा है। अतः गाँवों का कायाकल्प प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए।
संदर्भ ग्रंथ सूची:-
-
भारत यायावर (संपादक), फणीश्वरनाथ रेणु: चुनी हुई रचनाएँ, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 1959, पृ. 47
-
फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आँचल, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. , 1-बी नेताजी सुभाष मार्ग दरियागंज नई दिल्ली-110002, सत्ताईसवाँ संस्करण, 2017, भूमिका पृ. 5
-
भारत यायावर (संपादक), फणीश्वरनाथ रेणु: चुनी हुई रचनाएँ, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 1959, पृ. 154
-
भारत यायावर (संपादक), फणीश्वरनाथ रेणु: चुनी हुई रचनाएँ, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 1959, पृ. 382
-
फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आँचल, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. , 1-बी नेताजी सुभाष मार्ग दरियागंज नई दिल्ली-110002, सत्ताईसवाँ संस्करण, 2017, भूमिका पृ. 60, 61
-
वहीं, पृ. 129, 130
-
वहीं, पृ. 216
-
वहीं, पृ. 217
-
बच्चन सिंह, आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, पहली मंजिल दरबारी बिल्डिंग, महात्मा गाँधी मार्ग, प्रयागराज-211001, संस्करण-2019, पृ. 347
-
मुहम्मद दानिश, आलेख, जब रेणु ने कहा: ‘पद्मश्री’ सम्मान अब मेरे लिए ‘पापश्री’ बन गया है, www.heritagetimes.in, 4 मार्च 2018
-
वहीं
-
हेमन्त कुकरेती, हिन्दी उपन्यास : नया पाठ, वाणी प्रकाशन, दरियागंज नयी दिल्ली-110002, प्रथम संस्करण, 2015, पृ. 116
-
संजय जयसवाल, सामाजिक प्रतिबद्धता, प्रतिरोध और रेणु, बनास जन (संपादक पल्लव), राजपाल एण्ड सन्ज़,नई दिल्ली-6, अंक-41, जनवरी-मार्च 2021, पृ. 31