25 मार्च 1971 ऑपरेशन सर्चलाइट हुआ। जिसके बारे में सब जानते हैं। इस ऑपरेशन में क्या हुआ यह भी सब जानते हैं। विभाजन के बाद पाकिस्तान के दो हिस्सों में बंटने की कहानी को भी सब जानते हैं। इसी ऑपरेशन की कहानी को जब किताब के रूप में ब्रिगेडियर बलराम ने लिखा होगा तो उसमें सच्चाई तो होगी ही ना।
कहानी है उसी ब्रिगेडियर बलराम की और उनके परिवार के अलावा जंग के समय की। बल्ली छोटा सा तब परिवार पाकिस्तान से आ गया था भारत और बल्ली बड़ा होकर सेना में भर्ती हो गया। क्योंकि उसके पिता ने भी कभी सेना में काम करते हुए शहीद हुए। बड़ा भाई जंग पर जा रहा है लेकिन बल्ली उससे नाराज है। पिप्पा से बल्ली मोहब्बत करता है।
एक सीन में संवाद नजर आता है। जो बच्चा अपने बाप के खून के छींटों वाली कमीज़ रोज़ पहनता हो और जिसकी मां को उसी के सामने उसी के देश की फौज उठा कर ले जाए तो वो बच्चा, बच्चा कहां रह जाता है?
अब इसके अलावा कोई और ज्यादा प्रभावी संवाद किसी फिल्म में ना हो, जिसमें लिखने में ब्रिगेडियर ने पूरी सच्चाई लिखी हो और वो पर्दे पर उतारते वक्त हल्की लगे, लगे कि यह सिनेमा घरों के लिए थी लेकिन मजबूरी में अमेजन प्राइम पर आई तो इसके पीछे की कई वजहें भी साफ होती हैं।
साल 1971 के साल में पूर्वी पाकिस्तान की आज़ादी के लिए लड़ रही मुक्तिवाहिनी के माध्यम से यह फिल्म इतिहास के उन स्याह पन्नों में ले जाती है जहां पाकिस्तान की सरकार ने अपने ही देश के एक हिस्से में उठ रही आवाजों को कुचलने के लिए अमानवीय कृत्य किया। बांग्लादेश बनने के दौरान करीब 30 लाख लोगों को मार देने और सैकड़ों महिलाओं के साथ होने वाले बलात्कार की कहानी भी जग जाहिर है। यह फिल्म उन दृश्यों को भी दिखाती है लेकिन उन्हें दिखाते हुए यह उस पिप्पा की तरह ही नजर आती है जो खाली है।
पिप्पा भारत का एक ऐसा टैंक था जिसमें पीटी 76 टैंक जमीन और पानी दोनों पर चल सकता था। एकदम खाली पीपे (कनस्तर) की तरह नजर आने वाला यह टैंक कितना महत्वपूर्ण था यह भी फिल्म बताती है। लेकिन ब्रिगेडियर बलराम की लिखी किताब का पर्दे पर डी.आई करते समय तो खूब ख्याल रखा गया। वी एफ एक्स भी अच्छे निकाले।
देबाशीष मिश्रा का साउण्ड डिजाइन और एडिटर हेमन्ती सरकार के साथ सिनेमैटोग्राफर प्रिया सेठ, ने भी ठीक काम किया। ओरिजनल सॉन्ग और बैकग्राउंड म्यूजिक ए आर रहमान ने देते हुए कहानी के मिजाज को समझा लेकिन लेखक रविन्द्र रंधावा, तन्मय मोहन, राजा कृष्णा मेनन के हाथों कई छोटी-छोटी गलतियां हुई। जो गलतियां कम कमियां ज्यादा कही जानी चाहिए।
क्योंकि जब कोई फिल्म आपके भीतर देशभक्ति का भाव न जगा पाए, जब कोई फिल्म उस दौर को दिखाते हुए आपके मन को ना छू पाए, जब कोई फिल्म खाली पिप्पे की तरह नजर आए जिसे बजाते समय खूब आवाज होती है लेकिन वह शोर ज्यादा लगती है उससे कोई भाव नहीं उपजता तो यह कमियां ही है। जब गाने कोई ज्यादा प्रभाव न डाल पाएं तो वे भी उस शोर में घुलते नजर आते हैं।
निर्देशक राजा कृष्णा मेनन ने फिल्म की कहानी को लिखते समय इन्हीं भावों का ख्याल रखा होता तो अब तक 1971 की जंग पर जो फिल्में बनी हैं उनमें अपना अलग स्थान बना सकती थी। फिल्म में बैकग्राउंड उस खाली पिप्पा के तरह बजते हुए ना लगकर करुणा, घृणा आदि के भाव को दिखाते तो यह फिल्म अपना अलग स्थान बना सकती थी।
ईशान, मृणाल ठाकुर, प्रियांशु पैन्यूली, सोनी राजदान, इनामुल हक, अनुज सिंह, दूहन, चंद्रचूड़ राय, आदि के द्वारा किया गया अभिनय अधिकांश जगह सपाट ना होकर उन भावों को जीता तो यह फिल्म अपना अलग स्थान बना सकती थी। खैर फिलहाल तो दीपावाली के इस माहौल में घर बैठे देखना चाहें तो एक बार इसे देखना कोई घाटे का सौदा तो नहीं होगा।