असम निवासी हरकीरत हीर जी का परिचय किन्हीं शब्दों का मोहताज़ नहीं! अयन प्रकाशन से प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘चुन्नियों में लिपटा दर्द’ पुस्तक हाथ में लेते ही एक अलग-सा अहसास हुआ। शीर्षक अपने आप में बहुत सुन्दर है। स्त्रियाँ अपनी भावनाएँ अक्सर अपनी चुन्नी के पल्लू में बाँध कर रखती हैं और जब वक़्त मिलता है तो उन भावों को फरोल कर देखती हैं। कभी एक ठंडी आह भर लेती हैं तो कभी पुलकित हो उठती हैं। पुस्तक का कवर हार्ड बाउंड हैं और कवर तस्वीर एक स्त्री के दर्द को बयां कर रही हैं और याद दिलाती है क़ि ‘दर्द की महक’ और ‘खामोश चीखों’ के बाद आप पढ़िए ‘चुन्नियों में लिपटे दर्द’ को।
अमिया कुँवर जी ने पुस्तक की भूमिका इतनी शानदार तरीके से लिखी है कि पुस्तक पढ़ने की रुचि बढ़ जाती है। हरकीरत जी की नज्मों को पर्त दर पर्त खोलती उनकी लेखनी को भी नमन करती हूँ प्रथम पृष्ठ पर सुलगते अक्षर ही पुस्तक की तासीर बयां करते हैं-
“इन नज़्मो में …शामिल एक-एक अक्षर/जेहन में कई बरसों से सुलग रहे थे”
दर्द को शब्द के साँचे में नही ढाला जाता है। यह शब्द कई बार स्वयं ही आकार ले लेते हैं जब दूसरों की पीड़ा अपनी लगने लगती है। तभी हीर जी ने यह पुस्तक समर्पित की है … उन औरतों के नाम जो कतरा-कतरा रोज जीती हैं।
दूसरों की संवेदनाओं को महसूस करना, उससे गहरे तलक जुड़ लफ्जों में ढाल देना एक रूहानी सुकून देता हैं हीर जी को।
पहली ही नज़्म ‘चुन्नियों में लिपटा दर्द’ जो सामान्य नज़्मों से कहीं अधिक लंबी हैं लेकिन जरा भी ठहरने का मौका नही देती और बहा ले जाती है; दर्द के दरिया में, एक लड़की का होना क्या होता है, क्या होती है उसके भीतर की तन्हाई, सब कुछ है उसके पास दुनिया की नजर में .. फिर भी खालीपन-सा भीतर और उस लड़की का मृत माँ के काल्पनिक अक्स से मानसिक वार्तालाप। गूँजते हैं वो शब्द निर्वात में हर लड़की के मन में …’ज्यादा हंसने वाली लड़कियों को/ विवाह के बाद रोना पड़ता है’
‘गलती न होने पर भी/ गलती मान लेने का निर्देश देकर/ विदा किया जता हैं बेटियो को।’ {२२पेज )
एक आह-सी भर जाती है, हर उस स्त्री के मन में जिसने न जाने कितनी बार आँखें चुन्नी के पल्लू से चुपके से पोंछी होंगी, माँ की कही इन बातों को याद करके। हर लड़की इन शब्दों से खुद को गहरे तक जुड़ा महसूस करती होगी। हीर जी की सभी नज़्में दर्द से भरा आत्मालाप हैं खुद ही खुद संवाद करती हैं इस तरह दर्द से बावस्ता हैं सभी।
‘ए दर्द…/ तू यूँ ही सदा/ नज़्म बन कर साथ साथ चलना/ इन इंसानों का क्या पता/ कब तार तार कर दें/ भावुक मन के हिस्से’ {पेज ४०}
लफ्ज़-लफ्ज़ नज़्मों को पढ़ते हुए मन एक दर्द का दरिया पार करता जाता है, हर भावुक मन और एकाकार होने लगता है उस कलम से निकले लफ़्ज़ों से, जिन्हें हीर जी ने कितना दर्द महसूस कर लिखा होगा।
मेरी प्रिय नज़्मों में से एक नज़्म है ‘तवायफ की एक रात’
इसे पढ़ते हुए दर्द एक सिसकी में बदल जाता है जहाँ तवायफ की कोई जात नही होती सिर्फ भोग का सामान होती है और पुरुष अपने असल रूप में दिखता है उसे। हीर जी ने समाज के उस विद्रूप चेहरे को कितने सहज लेकिन चुभते शब्दों में बयां किया है….”रात मुट्ठी में/ राज़ लिए बैठी रही/ जो तुम मेरी देह की/ समीक्षा करते वक़्त/ बस ये./
बिस्तर पर पड़ा जनेऊ/ खिलखिला कर हँसता रहा/ जो तुमने मुझे छूने से पहले/ उतार कर रख दिया था/सिरहाने तले।”{पेज ४२}
हिंसा की शिकार महिलाओं के खामोश दर्द को भी हीर जी ने बखूबी पढ़ा चाहे मानसिक हिंसा हो या शारीरिक। स्त्री उस टीस को भीतर खामोश रहकर दबाने का असफल प्रयास करती है। कहना चाह कर भी कुछ नहीं कह पाती। संस्कारों का बोझ उसके पाँव की जंजीर बन विद्रोह नही करवाता। बेबसी में अपना वज़ूद तलाशता है और शब्द बह उठते हैं कागज पर। दर्द घोलते हुए शब्द, अंदर तक जब असर करते तो…. !
प्रेम स्त्री का स्वभाव और गुण होता है और प्रेम की तलाश में किसी की तरफ देखना भी उसका एक गुनाह बन जाता है। हर तरफ एक हुजूम सा नजर आता है, हर तरफ उसकी देह को खरोंचते शब्द सुनाई देते है और गुनाह हो जाता प्रेम।
हीर जी के शब्द जब आहत हुए और शब्दों की अंत्येष्टि पर उनको उनके गर्भ में भी कविता ही नजर आती {पेज ८०} कहीं देखा पढ़ा ऐसा बिम्ब ?? प्रसव पीड़ा से गुज़रते शब्द जब किसी मुकम्मल नज़्म को जन्म देते तो कुछ यूँ उभरता अक्स
बिस्तर पे/ अधमोई सी नज़्म/ रात भर अपने ही हाथों से/ कत्ल करती रही अपनी देह/ गंदले अंगों की जिल्लत/ घूँट- घूँट पीती रही रात भर/ जाने क्यों कुछ रिश्ते/ कानूनन जायज़ होकर भी/ नाजायज़ होते हैं…जिनमें मोहब्बत नही होती!
कानूनन जायज़ होकर भी…
हर नज़्म का पाठ एक हूक सी भर जाता है।
कोख का क़त्ल हो या तवायफ या मैली हुयी चेनाब, खूबसूरत बिम्बों का प्रयोग नज़्मों को अनूठी शैली में जब पिरोता है तो प्रेम मोहब्बत की नज़्म जन्म लेती है। लफ्ज़-लफ्ज़ में एक सम्मोहकता है। एक पल को पढ़कर भूल जाने वाले अक्षर नहीं यह, अपितु मन के अंदरूनी कोने तक बैठ जाने वाले भाव हैं जिसे बरसों बरस जिया जाएगा भीतर अपना मान कर। नज्म में शामिल बिम्ब बहुत खूबसूरत हैं कहीं भी उन्हें जबरन शामिल किया हुआ नहीं लगता ।
‘एक खूबसूरत अहसास’ शीर्षक तले लिखी गयी नज़्म प्रेम के कोमल अहसास को जीवंत कर देती है-
तुमने ही तो कहा था
मुहब्बत जिंदगी होती है
~
हम इश्क़ की दरगाह से सारे फूल चुन लाते
और सारी रात उन फूलों से मोहब्बत की नज़्में लिखते
~~
सच्च! कितना हसीं था वो
इश्क़ के दरिया में
मुहब्बत की नाव उतरना
और रफ्ता- रफ्ता डूबते जाना… डूबते जाना। …{५३}
कितना कोमल अहसास दर्द की देवी की कलम से। कलम से सिर्फ दर्द बहता हो, ऐसा नहीं! प्रेम भी बख़ूबी पुलकित करता है मन को। चाहे ‘इश्क़ की ईंट’ {पेज ८५} नज़्म हो या ‘मुहब्बत’ {पेज ९६} प्रेम का इज़हार या हक़ माँगती स्त्री कहीं कमजोर नहीं, वो उदासी में भी टूटती नही हैं और मोहब्बत में सिमटती भी नहीं। जीना जानती है हर हाल में क्योंकि वो पर्याय हैं प्रेम का। इश्क़, मोहब्बत, रिश्ते, तन्हाई कोई भाव ऐसा नहीं जिसपर हीर जी के मन से भाव न उभरे हों और उन्हें नज़्म की सूरत न मिली हो।
इमरोज़ जी का उनको अमृता कहना किसी मायने में अतिश्योक्ति नहीं और इमरोज़ के अपने को दिए हीर नाम को सार्थक करते उनके शब्द अपनी अनूठी भाषा शैली की वजह से अंतर्मन को पुलकित करते हैं। इस पुस्तक की ६० नज़्मों की समीक्षा करना मेरी सामर्थ्य के बाहर है। प्रेम की पराकाष्ठा को महसूस करना, फिर माकूल लफ्ज़ में उनकी माला बनाकर लिखना हर किसी के वश में नहीं होता। ख़ुदा कुछ ही लोगों को हुनर देता है और हीर जी की तरह उनको महसूस करना उस पर और भी कठिन।
किस-किस नज्म की यहाँ तारीफ़ हो
‘ख्याल’ {पेज ९८}में हीर के लफ्ज़ कहते “आज जी चाहता हैं मुहब्बत की कोई नज़्म लिख दूँ”
‘खामोश दीवारें’ {१०१} इंतज़ार को बयां करती नज़्म है तो ‘हाँ मैं तुम्हें चाहूंगी अपने तरीके से’ {१०३} प्रेम को अपनी शर्तों पर जीने की जिद करती, दृढ निश्चय करती स्त्री बन पड़ी है और अरसे तक याद रहेगी।
‘कोख का क़त्ल’ नारी सुरक्षा का समसामयिक मुद्दा उठाती है, चाहे वो गर्भ में हो या सड़क पर ।
कन्या भ्रूण ह्त्या पर इससे बेहतर क्षणिकाएं रूपी मुकम्मल नज़्में मैंने नहीं पढ़ी।
‘बाबुल’ {पेज ११६} मानो विदा होती हर बेटी की चुन्नी बंधी शिक्षा का परिणाम है और दर्द उभरता है उन टूटे अधूरे सपनों का जो उस दहलीज़ पर अंतिम सांसें लेता रहा जिसे बाबुल का घर कहा जाता है।
हीर जी की नायिका विद्रोहिणी नही है, लेकिन एकदम लाचार भी नही। उसे मौन रहकर दर्द को शब्द देना आता हैं |
हाँ.. सिर्फ उम्र के साथ-साथ इनके शब्द बदलते रहते हैं।{८८}
इमरोज़ जी के आग्रह पर लिखी नज़्म एक प्रेम स्वीकृति है, आत्मिक प्रेम की। अमृता और हीर जी मानो प्रतिबिम्ब हैं। अमृता में हीर नजर आती है और हीर में अमृता।
हरकीरत हीर, एक नाम जो नज़्मों का पर्याय सा लगता है, आज की इस अमृता की किताब मेरी प्रिय अमृता प्रीतम की किताबों के समकक्ष है और उनकी पुस्तक के मिलते ही यह भावना हृदय में थी। हरकीरत जी के शब्द मेरे मन की आवाज़ सी लगते हैं कभी कभी।
कहीं-कहीं तो लगता है, हीर जी नज़्म लिखती नहीं, उनको जीती हैं उनके रोजाना की बोलचाल के शब्द भी एक नज्म बन जाते होंगे। मन को झकझोरती कहीं, तो कहीं कोमल भाव से मुस्कुराती, कहीं आक्रोश दिखाती, तो कहीं विधि के विधान के आगे तो कहीं मजबूर दोशीजा सी हीर के नज़्मों की यह पुस्तक एक अनमोल तोहफ़ा मेरे संग्रह में।
समझ नहीं आता उस हीर के चुन्नियों में लिपटे दर्द को कैसे खोल कर अपने शब्दों की माला पहना दूँ, जिनकी गूँज दूर दूर तक है। जिनका परिचय ही पन्नों में नही समा सकता, उनके लिखे को कैसे मैं चंद लफ्जों में बयां कर दूँ। मेरे लिये असंभव है।
बिरहा का सुलतान अगर शिवकुमार बटालवी को कहा गया है तो बिरहा (दर्द) की साम्राज्ञी हरकीरत हीर ही हैं। उनके सृजन संसार, स्वास्थ्य और लंबी उम्र के लिए शुभकामनाएँ / मंगलकामनाएँ!
अंत में अपना लिखा एक शेर उनको समर्पित करती हूँ-
“सुना होगा तुमने दर्द की भी एक हद होती है
मिलो हमसे, हम अक्सर उसके पार जाते हैं”
काव्य संग्रह – चुन्नियों में लिपटा दर्द
प्रकाशन – अयन प्रकाशन
मूल्य – 250/-
– नीलिमा शर्मा