हिमाचल की हरी-भरी वादियां और वहां की ताज़गी मुझे हमेशा अपनी तरफ आकर्षित करती थी। मैं पिछली बार लगभग 15 साल पहले गया था और इन पंद्रह सालों में मेरा मन उसे पचीसों बार वापस हिमाचल के शिमला, कुल्लू और मनाली इत्यादि जगहों में ले गया था। किसी न किसी वजह से मेरा जाना टल जाता था और मैं मन मसोसे ‘अगली बार जल्दी जाऊंगा’ का प्रण करके रह जाता। हाँ, इस बीच मैं उत्तराखंड के कुछ जिलों में जरूर घूम आया था लेकिन मेरा पहला प्यार हिमाचल मुझे हमेशा याद आता रहता।
इस बार जैसे ही मुझे कुछ दिनों की छुट्टी मिली, मैंने तुरंत अपने प्यारे प्रदेश में जाने का मन बना लिया। और इस बार मेरी मंजिल चम्बा थी जिसकी खूबसूरती के चर्चे मैं गाहे-बगाहे सुनता रहता था। दरअसल चम्बा में उसकी भतीजी पहाड़ी पेंटिंग सीखने के लिए पिछले दो महीने से गयी हुई थी और रहने का इंतज़ाम एक फ्लैट में हो गया था। रांची से सीधे जाने के लिए कोई साधन नहीं था तो मैंने बनारस से ट्रेन पकड़ने का सोचा। अब सफर के साथी संतोष भैया से पूछना था कि वह चलेंगे कि नहीं।
“भैया, मैं कल बनारस आ रहा हूँ और दोपहर में हम लोग चम्बा के लिए निकलेंगे। आपका भी आने-जाने का टिकट मैंने करा दिया है, सामान बांधकर कल 11 बजे तक अपने फ्लैट से निकलने की तैयारी करेंगे” उसने एक तरह से भैया को ना करने का कोई मौका ही नहीं दिया।
“अरे विनय, थोड़े दिन पहले तो बता दिया करो, ऑफिस में किसी को बैठाना पड़ता है। तुम्हारी तरह की नौकरी नहीं है ना हमारी कि जब चाहे निकल लिए।” भैया ने थोड़ी नाराज़गी दिखाई। वैसे मुझको पता था कि यह नाराज़गी उतनी ही नकली है जितना भैया का हर सफर के बाद यह कहना कि अगली बार तुम्हारे साथ नहीं जाऊंगा, तुम बहुत पैदल घुमाते हो।
“पता नहीं किसने आप लोगों के दिमाग में यह बैठा दिया है कि बैंक की नौकरी में कोई काम नहीं होता और जब चाहे छुट्टी मिल जाती है। मैंने पिछले तीन महीने में चार बार प्लान बनाया लेकिन हर बार किसी न किसी वजह से छुट्टी नहीं मिली। इस बार भी सिर्फ चार दिन की छुट्टी मिली है, वह भी बहुत एहसान जताकर।” मैंने गहरी सांस ली और फोन रख दिया।
बेगमपुरा एक्सप्रेस में स्लीपर में वेटिंग का टिकट मिला लेकिन रेलवे के एक परिचित ने टिकट कन्फर्म हो जाने का आश्वासन दिया तो मैं निश्चिंत होकर बनारस निकल गया। रेल का सफर हम दोनों को स्लीपर में ही करने में मजा आता था जिसके कई कारण थे। सबसे बड़ी चीज थी कि मुझे लोगों से मिलना और बातचीत करना पसंद था। इस पसंद के पीछे भी बहुत दिलचस्प कहानी है, आज से चार साल पहले तक मैं अमूमन ए सी में ही सफर करता था। पढ़ने का शौक हमें बचपन से था तो बहुत सी पत्रिकाएं, उपन्यास इत्यादि मैं नियमित तौर पर पढता था। लेकिन पिछले दो-तीन वर्षों में लिखने का शौक पैदा हुआ और धीरे धीरे मुझे महसूस हुआ कि जिंदगी की सबसे सच्ची और अनूठी कहानियां तो आम जीवन में ही मिलती हैं। एकाध बार मुझे जब मज़बूरी में स्लीपर में जाना पड़ा तो उस सफर में मुझे कुछ दिलचस्प कहानियां मिलीं। फिर तो मुझे यह पता चल गया कि सफर में अगर कहानियां ढूंढनी है तो आम लोगों के क्लास स्लीपर में ही सफर करना पड़ेगा। दूसरा प्रमुख कारण था पैसे की बचत जिसके चलते हमें कहीं भी जाने के लिए सोचना नहीं पड़ता था।
बनारस से मेरे सफर के साथी भैया भी चम्बा चलने के लिए तैयारी में लग गए| पिछले लगभग 30 वर्षों से भैया मेरे हर छोटे-बड़े सफर के साथी थे और अब तो मैं अकेले सफर की कल्पना भी नहीं कर पाता था। मेरी बस सुबह बनारस पहुँचने वाली थी और फिर दोपहर में हम दोनों लोग पठानकोट के लिए निकलने वाले थे। सफर में सामान जितना कम हो उतना बढ़िया, हम दोनों की यही सोच थी और इसीलिए हर सफर का हम भरपूर आनंद उठाते थे। बनारस पहुंचकर मैंने अपने फ्लैट पर जाकर स्नान किया और खाना खाकर अगले सफर की तैयारी में लग गया। 11 बजते बजते भैया भी आ गए, 12।30 की ट्रेन थी।
“जरा पी एन आर से देखो तो टिकट कन्फर्म हुआ कि नहीं, वैसे हो ही गया होगा।” भैया ने कहा तो मैं नेट पर देखने लगा। लेकिन नेट पर हमारे उम्मीद के विपरीत टिकट अभी भी वेटिंग में ही था और टिकट अगर कन्फर्म नहीं हुआ तो अपने आप कैंसिल हो जायेगा, यह हम दोनों को पता था।
“इस बार तो धोखा हो गया, अब तो चार्ट भी बन गया होगा। ट्रेन तो गयी भैया, अब क्या किया जाए?” मैंने कहा तो भैया भी चिंता में पड़ गए।
“आधा घंटा और देख लेते हैं, फिर सोचेंगे।” भैया ने गहरी सांस ली। हम दोनों को ही पता था कि अब टिकट तो गया, इसलिए नेट पर बस की तलाश शुरू हुई। एक बस में दिल्ली तक का टिकट मिला तो हम दोनों की जान में जान आयी। ट्रेन तो सीधे पठानकोट उतारती और फिर वहां से चम्बा लगभग 5 घंटे का सफर था।
“चलो भाई, पहले दिल्ली चलते हैं, फिर वहां से दूसरी बस लेंगे। शायद चम्बा के लिए कोई सीधी बस भी मिल जाए।” भैया ने कहा तो मैंने भी सर हिला दिया।
5 बजे की बस थी जिसे दिल्ली सुबह 6 बजे तक पहुंचना था । एक ही गनीमत थी कि बस स्लीपर थी तो सोने को मिल जायेगा, यही सोचकर हम दोनों अपना बैग लेकर लहरतारा निकल गए। बस ने चलते चलते 6 बजा दिए और कुछ खा पीकर हम दोनों सोने के लिए लेट गए।
“इस बार का सफर तो और यादगार रहेगा भैया, देखते हैं दिल्ली से चम्बा के लिए क्या साधन मिलता है?” मैंने आंख मूंदते हुए कहा। थोड़ी देर में हम दोनों बस के हिचकोलों में सोने लगे और नींद खुली सुबह जब बस एक ढाबे पर रुकी। कंडक्टर आवाज़ लगा रहा था-“जिसे भी चाय पीना हो या फ्रेश होना हो वह हो ले। इसके बाद बस दिल्ली में ही रुकेगी।”
भैया तो लेटे रहे, मैं उतरकर बाथरूम की तरफ निकल गया। काफी लोग आधी नींद में जगे नित्यक्रिया में लगे थे और कुछ तो ब्रश भी कर रहे थे। मैं भी फ्रेश होकर निकला और ढाबे पर जाकर एक प्याली चाय पीने लगा। उम्मीद से बेहतर चाय मिली तो मैंने भैया को फोन लगाया “चाय पीना है क्या, बढ़िया बनी है।”
“रहने दे भाई, चाय पिया तो प्रेशर बन जायेगा और मुश्किल होगी। तू मजे में चाय पी और आजा।” भैया ने ऊंघते हुए जवाब दिया तो वह समझ गया कि इनकी नींद अभी नहीं खुलेगी।
दिल्ली पहुँचने में लगभग दस बज गए, बस स्टैंड पर उतरकर भैया फ्रेश होने गये और मैं पूछताछ काउंटर की तरफ बढ़ा जहाँ मुझे चम्बा के लिए बस का पता लगाना था।
“चम्बा के लिए शाम 7 बजे एक बस है जो कल सुबह 11 बजे तक पहुंचाएगी। आप चाहो तो बस से लुधियाना या पठानकोट निकल जाओ और वहां से चम्बा के लिए साधन मिल जाएगा।”
मैंने हिसाब लगाया, अगले 8 घंटा यहाँ बैठने से बेहतर है कि लुधियाना या पठानकोट ही निकल चला जाए और फिर वहां से चम्बा रात 12 बजे तक तो पहुँच ही जायेंगे। फिर सुबह उठकर आराम से घूमना-फिरना किया जायेगा। कुछ देर में भैया आये तो मैंने अपनी योजना बताई। भैया को क्या दिक्कत होती, वह तो उसके साथ कहीं भी निकल जाते थे। दरअसल रास्ते और सफर की सारी योजना बनाने का काम मैं ही करता था, भैया सामान इकठ्ठा करने और खाने पीने के इंतज़ाम में रहते।
बस स्टैंड पर नाश्ता करने के बाद हम दोनों ने लुधियाना का टिकट लिया और बस में जाकर बैठ गए। लुधियाना जाने का एक कारण उसका एक दोस्त था जो उस समय लुधियाना में ही पोस्टेड था। बस में बैठने के बाद उसने उसको फोन लगाया “हलो, परमिंदर, कैसा है भाई और कहाँ है इस समय?”
परमिंदर ने उसे पहचान लिया और बड़े उत्साह के साथ जवाब दिया “भाई मैं तो लुधियाने ही हूँ, तू कहाँ निकला है इस समय?” दरअसल मेरे सभी दोस्तों को पता था कि मैं जबरदस्त घुमक्कड़ हूँ और किसी भी समय कहीं भी जा सकता हूँ। अक्सर कोई न कोई कहता “अबे तू भी वही नौकरी करता है जो हम लोग करते हैं, लेकिन हम लोग तो बाजार जाने के लिए भी दस बार सोचते हैं। और एक तू है कि जब देखो तब कभी इस शहर तो कभी उस प्रदेश।”और मैं हँस कर उनको बताता “भाई अपने-अपने तरीके हैं जिंदगी गुजारने के, तुम लोग आराम करते हो और मैं घूमता हूँ। लेकिन सभी अपने मन का ही काम करते हैं। इसलिए कभी सोचना नहीं चाहिए कि दूसरा ज्यादा मजे कर रहा है।”
“भाई मैं तो अभी दिल्ली से निकला हूँ और लुधियाना की बस में बैठा हूँ। अब तू बता कि शाम को दो घंटे के लिए मुलाक़ात हो सकती है क्या?”
कुछ पल फोन पर ख़ामोशी रही फिर परमिंदर ने पूछा “अच्छा, तो कितने दिन रुकना है लुधियाने, किसी काम से आ रहा है या बस घूमने-फिरने?”
“मैं तो घूमने ही निकला हूँ लेकिन चम्बा जाना है। ट्रेन छूट गयी इसलिए बस से जा रहा हूँ, तुमसे मिलने की इच्छा थी, अगर चाहे तो दो घंटे गप-शप करेंगे और फिर चम्बा निकल जाऊंगा।” मैंने काफी उत्साहित होकर बताया।
उधर से फिर थोड़ी देर की ख़ामोशी रही और फिर परमिंदर ने बताया “यार पहले बताना था, मैं तो अभी लुधियाने से बाहर हूँ और कल ही वापस आ पाऊँगा। खैर तुमको अभी लुधियाने आने में 7 घंटे लगेंगे और लुधियाने से चम्बा के लिए कोई बस नहीं है। तो बेहतर होगा कि तुम पठानकोट तक निकल जाओ। अच्छा यह बस कहाँ तक जाएगी?” परमिंदर की आवाज़ में नहीं मिल पाने की निराशा साफ़ सुनाई पड़ रही थी।
उसने कंडक्टर से पूछा कि बस कहाँ तक जाएगी तो पता चला कि बस जालंधर तक जाएगी।
“यार यह बस तो जालंधर तक जाएगी।” उसने परमिंदर को बताया।
“कोई बात नहीं, तुमको वहां से पठानकोट के लिए बस मिल जाएगी। अच्छा मैं एक काम करता हूँ, लुधियाने में मेरे दोस्त को बोल देता हूँ, तुमको नाश्ता वगैरह करा देगा। फिर तुम वहां से पठानकोट की बस ले लेना।” परमिंदर को सचमुच नहीं होने का अफ़सोस हो रहा था।
“अरे तुम चिंता मत करो दोस्त, मैं जालंधर निकल जाऊंगा और फिर वहां से पठानकोट। सिर्फ तीन दिन की छुट्टी है इसलिए समय का पूरा उपयोग करना है। अगली बार बताकर आऊंगा, पक्का।” उसने परमिंदर को दिलासा दिया और फोन रख दिया।
इस बीच भैया बस से बाहर देखते हुए सो गये थे। मैंने उन्हें डिस्टर्ब नहीं किया और खुद बाहर देखने लगा।
बहुत महीनों बाद हमने रोडवेज बस की यात्रा की थी लेकिन यह बस बहुत अच्छी थी। और दिल्ली से थोड़ा आगे आने के बाद से ही रास्ता बहुत बढ़िया था तो रास्ते में कहीं भी तकलीफ नहीं हुई। एक और ढाबे पर बस रुकी, दोनों उतरे और तगड़ा नाश्ता करके वापस बस में बैठ गए।
मुझे अक्सर सड़क के किनारे के ढाबे बहुत आकर्षित करते हैं, खासकर ऐसे ढाबे जहाँ खाट बिछी हो और दाल फ्राई में मक्खन डालकर तंदूरी रोटी के साथ गरमागरम खाने को मिलती हो। खैर यह ढाबा उस तरह का नहीं था, थोड़ा आधुनिक किस्म का था जहाँ चाउमीन और नूडल मिल रहे थे। भैया के साथ सबसे अच्छी बात यह थी कि जो भी मिलता, वह खा लेते थे। और मैं आराम से रास्ते भर सोता रहता और भैया रास्ते को अधिक से अधिक देर तक देखना पसंद करते।
बस अपनी रफ़्तार से दौड़ रही थी कि अचानक मेरे फोन पर किसी अनजाने नंबर से कॉल आया। बात करने पर पता चला कि वह परमिंदर का दोस्त था और उसे परमिंदर ने ही नंबर दिया था कि वह मुझसे पूछ ले कि मुझे लुधियाने में कुछ खाने-पीने के लिए तो नहीं चाहिए। मैंने विनम्रता से मना कर दिया और उसको धन्यवाद भी दिया। बस लगभग 7 बजे जालंधर पहुंची, उतर कर पूछने पर पता चला कि आधे घंटे में एक बस पठानकोट जाएगी। दोनों वहां एक बार फ्रेश हुए और एक कप चाय पीकर पठानकोट वाली बस में बैठ गए।
जालंधर बस स्टैंड पर कुछ लोगों ने बताया कि पठानकोट से एक बस आपको मिल जाएगी जो चम्बा रात में जाती है। दोनों को यह सुनकर बहुत राहत मिली और फिर कुछ देर में बस आगे बढ़ी। तीन घंटे के सफर के बाद जब उनकी बस पठानकोट पहुंची तो मैं लपक कर स्टैंड के अंदर बने पूछताछ कार्यालय पहुंचा। वहां पहुँचने पर अंदर तो कोई नहीं मिला लेकिन बाहर मौजूद लोगों ने बताया कि अब चम्बा के लिए अगली बस सुबह करीब 4 बजे मिलेगी।
“अरे यार, गजब हाल है, साला दिन भर यात्रा किये और मामला वही टांय-टांय फिस्स। इससे अच्छा तो दिल्ली में ही रुके होते और डायरेक्ट बस मिलती चम्बा की।” मैं अब थोड़ा झल्ला गया।
भैया ने मुझे ढांढस बंधाया, उधर चम्बा से भतीजी का फोन भी आया कि हम लोग कहाँ पहुंचे।
“हम लोग तो पठानकोट आकर अटक गए, अब यहाँ से सुबह ही बस मिलेगी और हम लोग 11 बजे तक पहुंचेंगे।” मेरी आवाज में निराशा थी।
“ओह, कोई बात नहीं चाचाजी, आप लोग आराम से आईये, वहीँ कहीं कमरा लेकर सो लीजिये और फिर आराम से सुबह निकलिए।” भतीजी ने दिलासा दिया।
मैं तब तक बस स्टैंड के बाहर निकल गया और चारो तरफ देखकर वापस लौटा। चम्बा जाने की कोई सूरत नजर नहीं आ रही थी, हलकी ठण्ड भी पड़ रही थी और पेट में चूहे भी अब दौड़ लगाने लगे थे।
“कुछ खा लेते हैं फिर यहीं कुर्सियों पर लुढ़का जायेगा सुबह तक।” भैया ने कहा तो मैंने भी सहमति जताई। उतनी रात में खाने के लिए बहुत विकल्प नजर नहीं आ रहे थे तो ब्रेड ऑमलेट ही हमें बेहतर लगा। भैया दो प्लेट ब्रेड ऑमलेट और एक बोतल पानी ले आये और हम दोनों बैग रखकर खाने में जुट गए। पानी पीकर शरीर में ताजगी आ गयी और मैं एक बार फिर बाहर टहलने के लिए निकला। तभी मेरी नजर सामने से आ रहे तीन चार लड़कों पर पड़ी। उन्होंने भी अंदाजा लगा लिया कि हम लोग बस के
इंतज़ार में बैठे हैं तो एक लड़के ने आकर पूछा –“आप लोग कहाँ जायेंगे?”
इतनी रात को एक अनजाने बस स्टैंड पर कोई ऐसा सवाल पूछे तो अजीब तो लगता ही है लेकिन चम्बा जाने की बेसब्री में तुरंत मेरे मुंह से निकल गया –“चम्बा जाना था लेकिन अब तो सुबह ही बस मिलेगी।”
जवाब देने के साथ ही उसके मन में एक उम्मीद भी जग गयी कि शायद इन लड़कों को भी चम्बा ही जाना है।
“हम लोगों को भरमौर जाना है लेकिन आपको चम्बा छोड़ते हुए निकल जायेंगे। अगर साथ चलना चाहें तो एक टवेरा है जो जा सकती है।” सामने से मिले इस ऑफर पर मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा।
“ठीक है, हम लोग भी चलते हैं।” उसने कहा और भैया को फोन करके बुलाया। अगले दस मिनट में भाड़े का मामला फाइनल हुआ, वैसे तो वह बस की तुलना में चार गुना था लेकिन उम्मीद थी रात के दो बजे तक पहुँच जायेंगे और फिर थोड़ा सोकर सुबह घूमने निकल जायेंगे।
भैया आये और दोनों अपना सामान उठाकर लड़कों के साथ बाहर निकल गए। बस स्टैंड के बाहर ही एक टैक्सी ऑपरेटर का ऑफिस था जहाँ से उनको टवेरा मिलनी थी। अब पांच लड़के और हम दोनों, कुल सात लोग और एक ड्राइवर, दिक्कत तो होती लेकिन समय इतना कीमती था कि उसके आगे यह बातें बेमानी थीं।
बहरहाल अगले आधे घंटे में ड्राइवर आया और फिर गाड़ी चम्बा की तरफ चल दी। अबतक ठण्ड काफी हो चुकी थी और भूख भी सबको लग गयी थी तो तंय हुआ कि आगे एक ढाबे पर रूककर खाना खाया जायेगा और फिर चम्बा निकलेंगे। ढाबे पहुँचने के बाद सब लोग गर्मागर्म भोजन पर टूट पड़े, भैया और मैंने भी तंदूरी रोटी और दाल फ्राई का आनंद लिया और फिर जब सारे लोग बाहर निकले तो पता चला कि गाड़ी तो पंचर है। अब रात के ग्यारह बजे उतनी ठण्ड में क्या होगा, पंचर बनेगा या रात वहीँ गुजारनी पड़ेगी इसकी चिंता सबको सताने लगी। खैर ड्राइवर ने किसी तरह स्टेपनी निकाली और लगाकर आगे चल पड़ा।
लोगों से बातचीत करके और इसके पहले के हिमाचल के अनुभव से मुझे इस बात का अंदाजा तो था कि रास्ता पूरा पहाड़ी होगा और काफी उतर चढ़ाव से गुजरना होगा। मेरी आदत थी कि रात को कार या टैक्सी के सफर में मुझे नींद नहीं आती थी और मैं बाहर देखने का असफल प्रयास करते हुए जगा रहा।
अँधेरे में बहुत कुछ तो नहीं दिख रहा था लेकिन सामने की सड़क और ऊबड़खाबड़ रास्ता दिखाई दे रहा था। उन लड़कों ने झन्नाटेदार पंजाबी गाने लगा दिए थे और सफर मजे में बीत रहा था।
ढाबे से निकलते ही मैंने भतीजी स्मिता को फोन कर दिया कि हम दोनों टैक्सी से चम्बा के लिए निकल गए हैं। हमें उम्मीद थी कि तक़रीबन भोर 3 बजे हम लोग चम्बा पहुँच जायेंगे और स्मिता और उसके रूम मेट उनको लेने बस स्टैंड आ जायेंगे। गाड़ी सुबह के साढ़े तीन बजे चम्बा बस स्टैंड पहुँच गयी और दोनों गाड़ी से उतरे। चंद मिनट में स्मिता और उसके रूम मेट आ गए और अगले आधे घंटे में काफी चढ़ाई चढ़ने के बाद दोनों फ्लैट पर पहुंचे। उस समय तो नहीं लगा लेकिन जब फ्लैट पर पहुंचकर थोड़ी सांस में सांस आयी तो लगा कि हिन्दुस्तान में भी ऐसी जगहें हैं जहाँ रात के तीन बजे लड़कियां बड़े आराम से अपने फ्लैट से बस स्टैंड तक बिना परेशानी के जा सकती हैं। और इस विचार के आते ही सफर में हुई अब तक की थकान एक मुस्कान में बदल गयी।
नींद तो गहरी आनी ही थी, बड़ी मुश्किल से सुबह आठ बजे नींद खुली। और फिर फटाफट फ्रेश होकर हमने नाश्ता किया और चम्बा घूमने निकल पड़े। कहाँ बनारस और दिल्ली का कंक्रीट का जंगल और कहाँ दूर से दिखते खूबसूरत पहाड़, घूमने का असली मजा ऐसी जगहों पर ही आता है। फ्लैट काफी ऊंचाई पर था और उससे भी काफी ऊपर जाकर रास्ता था जिसपर हम लोग हांफते हुए पहुंचे। स्मिता और उसके दोस्तों की पिछले दो महीने में चढ़ान पर चढ़ने उतरने की आदत पड़ गयी थी लेकिन हमारी हालत खराब होने लगी।
बहरहाल थोड़ा रुकते थोड़ा चलते हम लोग चामुंडा मंदिर की तरफ बढे जो सड़क से काफी ऊपर एक पहाड़ी पर था । जैसे जैसे हम लोग ऊपर पहाड़ी पर चढ़ना प्रारम्भ किये, वैसे वैसे चम्बा के चारों तरफ के पहाड़ और उनमें से बहती रावी नदी दिखाई पड़ने लगी। अब हर पांच मिनट पर हम ठहरते, चारों तरफ की खूबसूरती निहारते और फिर ऊपर चढ़ते। इसी सब में हम लोग कब ऊपर मंदिर में पहुँच गए, पता ही नहीं चला। खैर मंदिर तो सब जगह के एक जैसे ही होते हैं लेकिन चामुंडा मंदिर के बाहर बैठकर चम्बा को निहारने में जो अलौकिक आनंद की अनुभूति हुई, उसे शब्दों में वर्णन करना आसान नहीं था। कहाँ हमारा अपना घर बनारस जहाँ अगर शहर में निकल गए तो सिर्फ ट्रैफिक का शोर और प्रदूषण और कहाँ चम्बा जहाँ न तो ट्रैफिक और न ही कोई प्रदूषण। हाँ बनारस में भी गंगा के किनारे सुबह शाम जाना अपने आप में बहुत सुकूनदायक अनुभव होता है लेकिन शहर आपको हदसा देता है। वहां बैठे बैठे लगभग एक घंटा होने को आया तो स्मिता ने टोका “चाचाजी, आज आपको खजियार भी जाना है और वहां आने जाने में 5 से 6 घंटे लग जाएंगे। इसलिए अब यहाँ से निकलिए।”
नहीं चाहते हुए भी हमें वहां से उठना पड़ा और फिर ढलान से उतरते हुए एक बार फिर चम्बा के नैसर्गिक सौंदर्य को हम लोगों ने अपनी निगाहों में भरसक कैद किया। अब चम्बा का बस स्टैंड मंदिर से लगभग ६ किमी दूर था लेकिन रास्ता ढलान वाला था इसलिए पहुँचने में कोई दिक्कत नहीं हुई। पूरा रास्ता बाजार से होता हुआ गुजरा जहाँ कहीं कोई मंदिर था तो कहीं दुकाने। आधे रास्ते पहुँचने पर एक बड़ा सा पार्क जैसा मैदान मिला जिसके चारो तरफ दुकानें सजी हुई थीं। लोगों ने बताया कि इसे चौगान कहते हैं और यहाँ पर हर साल मिंजर मेले का आयोजन किया जाता है। एक सप्ताह तक चलने वाले इस मेले में स्थानीय निवासी रंग बिरंगी वेशभूषा में आते हैं। इस अवसर पर यहां बड़ी संख्या में सांस्कृतिक और खेलकूद की गतिविधियां आयोजित की जाती हैं।
चौगान को थोड़ी देर देखने के बाद हम लोग बस स्टैंड की तरफ बढे जो वहां से थोड़ी ही दूर पर था। चम्बा का बस स्टैंड किसी भी आम बस स्टैंड की तरह ही था और वहां से बहुत सी जगह जाने के लिए बसें खड़ी थीं। बस स्टैंड से ही लगी हुई रावी नदी बहती है जिसे देखने का लोभ संवरण करना आसान नहीं था और हम लोग कुछ देर के लिए नदी के किनारे जाकर खड़े हो गए। मन तो वहां से आगे जाने का नहीं हो रहा था लेकिन खजियार भी जाना था जिसे मिनी स्विटज़रलैंड भी कहा जाता है, उसे देखने का आकर्षण इससे भी बड़ा था। तो थोड़ी देर में हम दोनों एक बस में बैठकर खजियार के लिए निकल पड़े। पहाड़ी रास्ता, खूबसूरत नज़ारे और स्वच्छ ताज़ी हवा, सफर में थकान तो महसूस ही नहीं होनी थी। खैर लगभग दो घंटे में हम खजियार पहुँच गए, बस से उतरते ही सामने फैला बेहद खूबसूरत हरा भरा घास का मैदान, किनारे की तरफ बड़े बड़े पेड़ और हौले हौले बहती हवाएं, दिल तो मानो बावला सा हो गया। पहले तो एक जगह चाय की टपरी पर एक एक प्याली चाय पी गयी, फिर हम लोग आगे मैदान में बढ़ गए। इसी बीच में घोड़े वाले भी पीछे पड़े कि घोड़े पर घूम लीजिये लेकिन न तो इच्छा थी और न ही ज्यादा समय था हमारे पास। इसलिए हम मैदान में एक बेंच पर आकर बैठ गए और चारो तरफ देखते हुए ताज़ी हवा को अपने फेफड़ों में भरने लगे। कुछ ही मिनट में एक स्थानीय बच्चा एक टोकरी में खरगोश लेकर आया और बोला कि इसके साथ फोटो खिंचवानी है आपको? इतने खूबसूरत और प्यारे खरगोश थे कि क्या बताया जाए, उनसे निगाह हटा पाना मुश्किल था। लेकिन यह सब बच्चों को ही ठीक लगेगा और हमारे साथ तो कोई बच्चा नहीं था इसलिए हमने खरगोश के साथ फोटो का इरादा मुल्तवी किया और वहां की खूबसूरती को निहारते रहे।
कुछ देर बैठने के बाद हमने पूरे इलाके को घूमकर देखने का फैसला किया। मैदान काफी बड़ा था और बीच में छोटा-सा तालाब भी था जिसके आस पास लकड़ी का पुल बना था। कुल मिलाकर बेहद रूमानी वातावरण था और चारो तरफ नौजवान जोड़े एक दूसरे के हाथ में हाथ डाले घूम रहे थे। हम लोगों ने भी लगभग तीन घंटे वहां बिताए और भोजन के बदले वहां पर नाश्ता ही किया। शाम के लगभग चार बजने जा रहे थे और हमारे बस के लौटने का समय भी हो रहा था तो हम लोग बस स्टैंड की तरफ लौटे। लेकिन वहां जाकर पता चला कि हमारी बस तो चली गयी है और अब सिर्फ टैक्सी ही वापस जाने का सहारा थी। वैसे अधिकांश टैक्सियां तो लोगों को लेकर ही आयी थीं जिन्हें उनके साथ ही वापस जाना था लेकिन कुछ खाली टैक्सियां भी थीं जिन्होंने इतना ज्यादा पैसे मांग लिए कि हमारी हिम्मत जवाब देने लगी।
हम लोग इसी उधेड़बुन में थे कि वापस कैसे चला जाए तभी एक स्थानीय व्यक्ति ने बताया कि यहाँ से लगभग 7 किमी नीचे उतरने के बाद एक छोटा क़स्बा है जहाँ से बस मिल जाती है। अब हमें थकावट तो नाम मात्र की भी नहीं थी इसलिए हमने पैदल ही 7 किमी चलने का फैसला किया। सामान भी कुछ नहीं था तो पैदल यात्रा कोई कठिन नहीं थी और रास्ता भी ढलान का था इसलिए हम दोनों पैदल ही अगले पड़ाव की तरफ चल पड़े। एकाध किमी चलने के बाद ही सड़क के किनारे एक जगह दो पहाड़ी महिलाएं बैठकर कुछ खाते दिखाई पड़ीं तो हम उनके पास बात करने पहुँच गए। उन्होंने बताया कि वे मंदिर का प्रसाद खा रही हैं और उन्होंने हमें भी खाने का ऑफर दिया। अब इतनी बेशर्मी भी नहीं थी कि उनके हिस्से का प्रसाद खा जाते लेकिन उन मुस्कुराते चेहरों के साथ एक सेल्फी जरूर ले ली।
धीरे धीरे हम लोग ढलान पर मजे में उतरते गए, चारों तरफ का प्राकृतिक नजारा किसी को भी सम्मोहित करने के लिए सक्षम था और हम भी सम्मोहित होने से बच नहीं पाए। लगभग दो किमी आगे आने पर एक जगह पहाड़ी से पानी की पतली धार गिर रही थी और वहां पर कुछ महिलाएं मूली धो रही थीं। दूर से देखने पर दूधिया चमकती मूलियां हमें जैसे खाने का निमंत्रण दे रही थीं और मैं अपने को रोक नहीं पाया। सड़क के उस तरफ जाकर, जहाँ वे लोग मूलियों को धो रही थीं, मैंने पूछा कि क्या ये मूली आपके खेत की है, तो उन्होंने हाँ में सर हिला दिया। अब उनको भी समझ में आ गया था और मैंने भी अगला सवाल पूछ लिया “क्या ये मूलियां हम ले सकते हैं?”
उन्होंने तुरंत हँसते हुए दो मूली मेरी तरफ बढ़ाया। मैंने लेकर उनसे पूछा “कितने पैसे देने होंगे इसके?”
यह सुनते ही वह महिला थोड़ा नाराज हो गयी हुए बोली “खाने-पीने की चीजों के पैसे लगते हैं क्या?”
अब मेरे पास मूलियों को ले लेने के अलावा कोई और रास्ता नहीं था। भैया ने मूली खाने से मना कर दिया तो एक मूली वापस लौटाकर हम लोग वापस चल पड़े। अब मेरे हाथ में बड़ी सफ़ेद मूली थी जिसे तोड़कर खाते हुए पैदल सफर बहुत ही शानदार था। एक घंटे में ही हम लोग उस कसबे में पहुँच गए जहाँ से बस मिलनी थी, बस स्टैंड के पास भी एक हनुमान मंदिर था जहाँ भंडारा चल रहा था| हम लोगों ने भी थोड़ा थोड़ा प्रसाद लिया और फिर बस का इन्तजार करने लगे। थोड़ी देर में ही बस आ गयी और हम उसपर सवार होकर वापस चम्बा की तरफ चल पड़े। चम्बा पहुँचते पहुँचते रात हो गयी और फिर ठहरने के स्थान पर पहुँचने के लिए काफी चढ़ाई चढ़नी थी। फोन पर बात करके स्मिता भी अपने दोस्तों के साथ चौगान पर पहुँच गयी और फिर हम सब बाजार घूमते हुए वापस कमरे पर आ गए।
खाना बना हुआ था और भूख भी लग गयी थी, फिर सबने जम कर खाना खाया और एक एक कप चाय पीकर बिस्तर में घुस गए। थोड़ी देर दिन भर की घटनाओं पर बात करने के बाद सब लोग नींद की आगोश में समां गए। अगले दिन सुबह जल्दी जल्दी करते हुए भी 8 बज गए, फटाफट नाश्ता करके हम लोग निकल पड़े। आज हमें डलहौजी जाना था जो कि चम्बा से लगभग 50 किमी दूर है। डलहौजी धौलाधार पर्वत श्रृंखलाओं के बीच स्थित एक बेहद खूबसूरत स्थल है और हम लोग चम्बा से मिनी बस द्वारा वहां के लिए निकले।
डलहौजी पहुँचने में लगभग 2 घंटे लग गए और उस समय दिन के 12 बज गए थे। पहले गाँधी चौक, फिर सुभाष चौक पहुंचे जहाँ पर उस दिन आज़ादी से सम्बंधित एक कार्यक्रम चल रहा था और उसे देखने के लिए हम लोग कुछ देर तक रुके रहे। उसके बाद वहां के बाजार में टहलते हुए कुछ खाया पिया गया और फिर हम लोग पंचफुल्ला गए। यहाँ पर सरदार भगत सिंह के चाचा सरदार अजित सिंह की समाधि थी जहाँ पर हम लोगों ने थोड़ा समय बिताया। मौसम इतना खुशनुमा था कि डलहौजी में कुछ दिन रुकने की इच्छा हो रही थी लेकिन मज़बूरी यह थी कि अगले दिन हमें वापस यात्रा करनी थी और इस वजह से मन मार कर हम लोग शाम को मिनी बस से ही चम्बा वापस आ गए।
रात में चम्बा के बाजार में ही हमने भोजन किया और थोड़ी बहुत खरीददारी भी की। अब अगर आप कहीं गए हैं और वहां से कुछ ख़रीदा नहीं है तो आपका जाना सफल नहीं माना जाता। खैर रात काफी देर तक हम लोग वहां के बाजार में टहलते रहे, फिर चढ़ाई चढ़कर हम लोग रहने के ठिकाने पर पहुंचे। अगले एक घंटे खूब गपशप हुआ और फिर अगले दिन की यात्रा की तैयारी होने लगी। न तो हमें अच्छा लग रहा था और न ही स्मिता को, इस जगह तो कम से कम एक हफ्ता बिताना चाहिए था। लेकिन तीन दिन की छुट्टी के बाद ऑफिस भी पहुंचना था और अगले दिन शाम को कठुआ से हमारी ट्रेन थी जो बनारस अगले दिन शाम तक पहुंचती।
अगली सुबह भी वैसी ही ठंडी थी जैसी की पिछले दो दिन की लेकिन आज कुछ उदासी सी थी। इतना जल्दी यह यात्रा समाप्त होने जा रही थी कि बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था। बहरहाल बस से पठानकोट पहुँचने में लगभग 6 घंटे लगने थे और शाम को ट्रेन भी थी। कठुआ में आनंद के यहाँ भी मिलने जाना था इसलिए सुबह 8 बजे ही हम लोग बस स्टैंड निकल गए। स्मिता और उसके दोस्त हमें छोड़ने स्टैंड तक आये और फिर हमारी बस पठानकोट के लिए रवाना हो गयी। आते समय तो हम लोग रात में आये थे इसलिए रास्ते का सौंदर्य देख नहीं पाए थे लेकिन जाते समय तो दिन था इसलिए पूरा रास्ता हम लोग बस बाहर खूबसूरती ही देखते रह गए। पहाड़ी रास्ता, हरियाली, बीच में बहती नदी और खेत, कुल मिलाकर लग रहा था मानो हम सफर नहीं कर रहे बल्कि कोई फिल्म देख रहे हैं। इस सफर में कभी भी यह महसूस नहीं हुआ कि बस धीरे चल रही है या रास्ता लम्बा है, बस यही लगता था कि यह सफर चलता रहे।
2 बजे के आसपास हम लोग पठानकोट पहुँच गए और फिर वहां से कठुआ। अब दो घंटे बाद हमारी ट्रेन थी इसलिए आनंद ने फटाफट कुछ खिलाया और फिर हमारे लिए रास्ते का खाना भी पैक करा दिया। दौड़ते भागते हम लोग स्टेशन पहुंचे और ट्रेन में सवार हो गए। इस बार हमारी ट्रेन छूटी नहीं, सबसे ज्यादा सुकून इसी बात का था। ट्रेन की यात्रा ठीक ही थी, बस खाते पीते और कुछ पढ़ते, बतियाते हम अगली शाम मिर्जापुर पहुंचे। वैसे तो हमारा टिकट चुनार तक था लेकिन हमें मालूम था कि चुनार से बनारस के लिए रात में सवारी मिलना मुश्किल था। इसलिए हम लोग मिर्ज़ापुर में ही ट्रेन से उतर गए और फिर वहां के बस स्टैंड पहुंचे। पता चला कि अगले तीन घंटे तक वहां से कोई बस बनारस के लिए नहीं है और अगर बनारस जाना है तो बस स्टैंड से मिर्ज़ापुर के बाईपास तक जाना होगा और फिर वहां से बनारस जाने वाली कोई बस मिल सकती है। अब कोई चारा नहीं बचा था इसलिए हमने एक टेम्पो पकड़ा और भागते हुए हम लोग वहां पहुंचे। वहां रात में सड़क के किनारे लगभग आधे घंटे खड़ा रहना पड़ा फिर बनारस जाने वाली एक बस नजर आयी। उसे रोका गया और फिर हम लोग बनारस के लिए रवाना हुए। उम्मीद थी कि हम लोग अगले 3 घंटे में बनारस अपने घर पहुँच जाएंगे और हम बस की सीट पर सर टिकाकर सो गए। रात 11 बजे बस बनारस कैंट पहुंची और फिर वहां से टेम्पो पकड़कर हम रात 12 बजे अपने घर पहुंचे। शरीर तो थककर चूर हो गया था लेकिन चम्बा की याद ने हमें महसूस नहीं होने दिया।
खैर यह यात्रा, जो कि सुखद थी, रोमांचक थी और नए नए अनुभव सिखाने वाली थी, हमें हमेशा याद रहेगी। लेकिन अगली बार जब चम्बा यात्रा की योजना बनेगी तो कम से कम एक हफ्ते का समय लेकर ही जाऊँगा और संभव हुआ तो चम्बा से मणिमहेश की यात्रा भी जरूर करूंगा।