आदिकाल में चारण काव्य की गाथा बड़े गर्व से इतिहास में उल्लिखित है। चारण की यह परंपरा वीर गाथात्मक काव्य से जुडी हुई है। बहुत कम लोगों को ज्ञात है कि चारण गाथा की इस परंपरा का निर्वाह कुछ रानियों ने भी किया था। उनका काव्य उत्कृष्ट होने के बावजूद इतिहास में दर्ज नहीं हो पाया है। आज मैं तीन रानियों का यहाँ उल्लेख करूंगी जिनकी चारण रचनाएं अपने आप में अद्भुत हैं। इनकी कुछ रचनाएं ही प्राप्त हैं जिनके आधार पर इनपर संक्षिप्त प्रकाश डाला जा सकता है। इनकी बाकी रचनाएं शोध के अभाव में काल के गर्त में जा डूबी हैं। फिर भी जो प्राप्त हैं वह सहेजना हमारा कर्तव्य है।
रानी रारधरी जी
रानी रारधरी जी का उल्लेख महिला मृदु वाणी में मिलता है। मुंशी देवी प्रसाद को राजपूताना के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज रिपोर्ट में इनका उल्लेख मिला था। इनके पिता मारवाड़ के राज धरा प्रांत के राणा थे। इनके पति का नाम रावजी था। इनके ऐसा कहा जाता है कि इनके पति इनको घूमाने ले जाते है और थक कर इन्होने यह दो पंक्तियाँ कहीं –
पिय आछू भखनो जहर, पालो चलनो पंथ।
अरबुद ऊपर बैठनो, भलो सरायो कंथ॥
इनके द्वारा लिखित जो पद प्राप्त होता है उसमें प्राकृतिक सुंदरता वर्णित है। अपने पिता के निवास पर रचित दो ही पंक्तियां प्राप्त होती हैं जो इस प्रकार है-
घर ढ़ांगी, आलम धनी, परगण लूना पास।
लिखियो जिण ने लाभ सी, राड़धड़ा से वास॥
रानी चावड़ी जी
रानी चावड़ी जी का उल्लेख मुंशी देवी प्रसाद ने महिला मृदुवाणी में किया है। उन्होंने इन का समय अट्ठारह शताब्दी का उत्तरार्ध माना है। इनका जन्म गुजरात में हुआ था। यह राजा मानसिंह की दूसरी पत्नी थी। इनका लिखा एक ख्याल इस प्रकार से है –
बेगानी पधारो म्हारा आलीजा जी हो
छोटी सी नाजक धीण रा पीव
ओ सांवडियो उमंग रयोदे
हरि जी ने ओड़न दिखाती चीर
हण ओसर मिलयो कह होसी
लाडी जी रो थां पर जीव
छोटी सी नाजक धड़ रा पीव
रानी चावड़ी जी के द्वारा रचित कुछ मंगल गीत भी चर्चित रहे हैं। एक उदाहरण देखा जा सकता है –
चाली मृगा नैणिया जी चंपा ब्याहियां
उठे लाल तंबूड़ा तड़ियां
पनी सुमरे संगरा साथी
ज्यूँमाल्या रा मणियाँ
फेर बंधावल चालो सखी
पिव केसरिया बणियाँ
डॉ. सावित्री सिन्हा का मानना है कि रानी चावड़ी जी द्वारा रचित काव्य में कल्पना अनुभूति और कला तीनों तत्वों का समावेश है। इनके काव्य में माधुर्य और कल्पना की अनूठी व्यंजना है। चावड़ी जी की भाषा सुंदर कही जा सकती है। साधारण भाषा और साधारण भाव को व्यक्त करना इनके काव्य की विशेषता है। भाषाई कसौटी पर इनके काव्य को कसना इनके साथ अन्याय होगा। आत्माभीव्यक्ति ही इनके काव्य की मुख्य विशेषता है।
सारावाली रानी
सारावाली रानी ने डिंगल भाषा में काव्य की रचना की है। इनके नाम से प्रसिद्ध एक हस्तलिखित प्रति “कृष्ण जी री वेली” का उल्लेख टेसिटरी जी ने किया है। यह ग्रंथ वर्तमान में अनुपलब्ध है। पर इनका लिखी एक पंक्ति प्राप्त है जो इस प्रकार है-
अनोपम रूप सिंगार अननोपम भूषण अंग
इन रचनाकारों के ग्रंथ न उपलब्ध होते हुए भी इनका नाम उल्लेख करना मैं आवश्यक समझती हूं क्योंकि इन्हीं से परंपरा आगे बढ़ते हुए चलती है जिसके कारण हमें स्त्री रचनाकारों की कुछ रचनाएं मिलती हैं।