कैप्टन लक्ष्मी सहगल
(आजाद हिन्द फौज)
पीढ़ियों का अंतराल महत्वपूर्ण नहीं होता, यदि पुरातन पीढ़ी वर्तमान परिवेश में भी अपनी प्रासंगिकता बनाये रहें। ऐसे ही पीढ़ी की एक जिंदादिल महिला थी- कैप्टन डॉक्टर लक्ष्मी सहगल। उन्हें किताबों में पढ़ा, चित्रों में देखा, पर जब पहली बार सितंबर 1996 में कानपुर अपने ससुराल गया तो उनसे रू-ब-रू भी हुआ। उनके बारे में इतना कुछ पढ़-सुन चुका था कि उनसे मिलने के पूर्व मन में एक अजीब तरह का भय भी व्याप्त था क्यूंकि बिना कोई पूर्वानुमति के उनके आवास पर मिलने चला गया था। जब पहली बार (अंतिम भी) मिला तो इतना निश्छल और ममत्व भरा आत्मीय व्यवहार देखकर विश्वास ही नहीं हुआ कि यह आजाद हिन्द फौज की वही कर्नल हैं, जिन्होंने अपने साहस और बुद्धिमता के बल पर न सिर्फ आजादी को परवान पर चढ़ाया बल्कि नेता जी सुभाष चन्द्र बोस को आजादी की जंग में नारी-शक्ति में अटूट विश्वास करने पर बाध्य भी कर दिया था। कैप्टन लक्ष्मी सहगल से मिलने के पहले आजाद हिन्द फौज की एक और कैप्टन मीरा सहाय से जमशेदपुर में कई बार मिल चुका था।
देश की आजादी के बाद हर किसी ने उसे भुनाया और सत्ता की चांदी की होड़ में दिल्ली में बसकर अपनी पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित करना सुनिश्चित किया, पर 98 वर्षीया यह चिकित्सक जीवनपर्यंत अपने घर पर लोगों का इलाज करती रही और देश-सेवा को भुनाने की बजाय उन्होंने मानव-सेवा के पीछे अपना पूरा जीवन ही लगा दिया।
कैप्टन डॉक्टर लक्ष्मी सहगल का जन्म 24 अक्तूबर 1914 को एक परंपरावादी तमिल परिवार में मद्रास उच्च न्यायालय के सफल वकील डॉ0 स्वामिनाथन और समाज सेविका व स्वाधीनता सेनानी अम्मुकुट्टी के घर हुआ था। घर पर बेटी के रूप में लक्ष्मी का आगमन हुआ तो माता-पिता ने उसका नाम ही रख दिया- लक्ष्मी स्वामिनाथन। बचपन से ही कुशाग्र लक्ष्मी ने 1930 में पिता के देहावसान का साहसपूर्वक सामना करते हुए 1932 में विज्ञान में स्नातक परीक्षा पास की। 1938 में उन्होने मद्रास मेडिकल कालेज से एम्.बी.बी.एस. किया और अगले वर्ष 1939 में जच्चा-बच्चा रोग विशेषज्ञ बनीं। कुछ दिन भारत में काम करके 1940 में वे सिंगापुर चली गयीं।
लक्ष्मी बचपन से ही राष्ट्रवादी आंदोलन से प्रभावित थीं और जब गाँधी जी ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन छेड़ा तो उन्होंने उसमें सक्रियता के साथ भाग लिया। उनका यह देश-प्रेम सिंगापुर जाने के बाद भी ख़त्म नहीं हुआ। सिंगापुर में उन्होने न केवल भारत से आये आप्रवासी मज़दूरों के लिये निशुल्क चिकित्सालय खोला बल्कि भारत स्वतंत्रता संघ की सक्रिय सदस्या भी बनीं। वर्ष 1942 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब अंग्रेज़ों ने सिंगापुर को जापानियों को समर्पित कर दिया तब उन्होंने आहत युद्धबन्दियों के लिये काफी काम किया। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ही जब जापानी सेना ने सिंगापुर में ब्रिटिश सेना पर हमला किया तो उसी समय ब्रिटिश सेना के बहुत से भारतीय सैनिकों के मन में अपने देश की स्वतंत्रता के लिये काम करने का विचार उठ रहा था।
ठीक इसी वक्त 2 जुलाई 1943 को सिंगापुर की धरा पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का ऐतिहासिक पदार्पण हुआ। नेता जी के विचारों से लक्ष्मी काफी प्रभावित हुईं और अंतत: उन्होंने इस पवित्र अभियान में नेताजी से अपने को भी शामिल करने की इच्छा जाहिर की। पहले तो नेताजी कुछ हिचकिचाए पर लक्ष्मी के बुलंद इरादों को देखकर उन्हें हामी भरनी ही पड़ी। फिर क्या था, आज़ाद हिन्द फौज़ की पहली महिला रेजिमेंट के विचार ने मूर्तरूप लिया जिसका नाम वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई के सम्मान में रानी झाँसी रेजिमेंट रखा गया। 22 अक्तूबर 1943 को डॉ. लक्ष्मी ने बतौर कैप्टन ‘रानी झाँसी रेजिमेंट’ में कैप्टेन पद पर कार्यभार संभाला। यही नहीं अपने साहस और अद्भुत कार्य की बदौलत बाद में उन्हें कर्नल का पद भी मिला और उन्हें एशिया की प्रथम महिला कर्नल बनने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ, लेकिन जुबान पर चढ़ जाने के कारन लोगों ने उन्हें कैप्टन लक्ष्मी के रूप में ही याद रखा। यही नहीं वे 1943में सुभाषचन्द्र बोस की ‘‘आरजी हुकूमते आजाद हिन्द सरकार’’ में महिला विभाग की कैबिनेट मंत्री भी बनीं।
द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की हार पश्चात् अंतत: ब्रिटिश सेनाओं ने आज़ाद हिंद फ़ौज के स्वतंत्रता सैनिकों की भी धरपकड़ की। सिंगापुर में पकडे गये आज़ाद हिन्द सैनिकों में कर्नल डॉ लक्ष्मी भी थीं। 4 जुलाई 1946 को भारत लाये जाने के बाद अंतत: उन्हें बरी कर दिया गया, पर इतिहास गवाह है कि नेताजी के दायें हाथ मेजर जनरल शाहनवाज़ व कर्नल गुरबक्ष सिंह ढिल्लन और कर्नल प्रेमकुमार सहगल पर लाल किले में देशद्रोह के आरोप में मुकदमे चले जिसमें पण्डित जवाहर लाल नेहरू, भूलाभाई देसाई और कैलाशनाथ काटजू जैसे दिग्गज वकीलों की दलीलों के चलते तीनों जांबाजों को बरी करना पडा।
कैप्टन लक्ष्मी सहगल ने लाहौर में मार्च 1947 में कर्नल प्रेम कुमार सहगल से विवाह कर लिया और फिर कानपुर आकर बस गईं। पर उनका संघर्ष यहीं ख़त्म नहीं हुआ और वे वंचितों की सेवा में लग गईं। शरीर की स्वस्थता उम्र से नहीं वरन् सक्रियता से निर्धारित होती है, का अक्षरक्षः पालन करने वाली कैप्टन लक्ष्मी सहगल जीवन के अंतिम समय तक मानवता के सेवा के लिए तत्पर रही। डॉ. सहगल किसी कर्मकांड में विश्वास नहीं रखतीं थी बल्कि मरीजों की देख भाल से वे अपने को ईश्वर के करीब पाती रही।
कालांतर में वे सक्रिय राजनीति में भी आयीं और 1971 में मर्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से राज्यसभा की सदस्य बनीं। यह एक विडंबना ही है कि जिन वामपंथी पार्टियों ने द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान का साथ देने के लिए सभाष चंद्र बोस की आलोचना की, उसी से अंतत: कैप्टन लक्ष्मी सहगल का जुडाव हुआ। वे अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की संस्थापक सदस्यों में रहीं। 1998 में उन्हें भारत सरकार द्वारा उल्लेखनीय सेवाओं के लिए पद्म विभूषण से सम्मनित किया गया। वर्ष 2002 में 88 वर्ष की आयु में उन्होने वामपंथी दलों की ओर से डॉ. कलाम के विरुद्ध राष्ट्रपति पद का चुनाव भी लडा था।
उनकी बेटी सुभाषिनी अली 1989 में कानपुर से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सांसद भी रहीं। सुभाषिनी अली ने कम्युनिस्ट नेत्री बृन्दा करात की फिल्म अमू में अभिनेत्री का किरदार भी निभाया था। डॉ सहगल के पौत्र और सुभाषिनी अली और मुज़फ्फर अली के पुत्र शाद अली फिल्म निर्माता निर्देशक हैं, जिन्होंने साथिया, बंटी और बबली इत्यादि चर्चित फ़िल्में बनाई हैं। प्रसिद्ध नृत्यांगना मृणालिनी साराभाई उनकी सगी बहन हैं।
भारत विभाजन को कभी स्वीकार नहीं कर पाईं और अमीरों और ग़रीबों के बीच बढ़ती खाई का हमेशा विरोध करती रहीं। उन्होंने भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने 1984 के सिख विरोधी दंगों के बाद शांति बहाल करने के लिए भी काम किया। बैंगलोर में मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता के विरुद्ध अभियान में, लक्ष्मी सहगल को गिरफ्तार भी किया गया था।
आजाद हिंद फौज की महिला इकाई की पहली कैप्टन रहीं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी लक्ष्मी सहगल का कानपुर के एक अस्पताल में 23 जुलाई 2012 को निधन हो गया। आज कैप्टन लक्ष्मी सहगल हमारे बीच भले ही न हों, पर उनके बारे में उनकी मित्र एवं उनकी सहयोगी कैप्टन मानवाती आर्या के शब्द बड़े ही महत्वपूर्ण हैं- ‘देश प्रेम और साहस का ऐसा अद्भुत समन्वय बिरले लोगों में होता है। सुभाष की सेना की इस महानायक ने युवावस्था को एक सैनिक की तरह परोधावस्था को समाज सेविका नर्स की तरह और वृद्धावस्था को निराश्रितों की वत्सला माँ की तरह जिया। वह मानव के साथ-साथ मानवता की भी चिकित्सक थीं। ऐसे व्यक्तित्व कभी मरते नहीं, वे हमारे बीच हमेशा जीवंत रहेंगी।
प्रसिद्ध लेखक रिल्के का कथन है कि “ऐसी लड़कियां या स्त्रियाँ होंगी जिनके होने का अर्थ पुरुषपन के सम्मुख मात्र दूसरा ध्रुव उपस्थित करना ही नहीं होगा पर आत्म-सम्पन्न करना होगा”। लक्ष्मी सहगल ने ऐसा ही आत्म-सम्पन्न जीवन जिया है।