‘विवाह’ शताब्दियों से मानव सभ्यता का वो आवश्यक अध्याय माना जाता है, जहाँ से गृहस्थाश्रम की शुरूआत होती है। विवाह के तौर-तरीकों, नियमों ने भले ही अपना रूप-रंग बदला हो, लेकिन इस परम्परा के निर्वहन का उद्देश्य, गृहस्थी में प्रवेश के बाद विविध दायित्वों और उनको पूरा करने की जिम्मेदारी का भार वर-वधू समेत परिवारों के काँधों पर टिका रहता है। कड़ी से कड़ी जुड़ती जाती है, रिश्ते सुझाते-बुझाते, जोड़-मिलान करवाते रिश्तेदार, जानकार, पडोसी आदि या फिर बदलते समय में बच्चों का खुद ही जीवनसाथी चुन लेना। उसके बाद शुरू होता है कुंडली-टीपने का मिलान वगैरह या जो इसमें विश्वास नहीं करते, वे सीधी रस्मों पर उतरते हैं।
ये एक ऐसा संदर्भ है जो किसी भी विशेष धर्म, जाति, देश की सीमा से परे जाकर अपनी महत्ता को दर्ज़ कराता है। विवाह धरती पर सर्वव्यापी है। ये हर जगह अपने शामियाने वैसे ही सजा लेता है, जैसा उस जगह का कल्चर,रीति,व्यवहार हो।
सनातनी परंपरा में देव उठते ही ये सिलसिला शुरू होता है। फोटो और फिर घर-परिवार देखने-दिखाने से शुरू होने वाला सगाई, तिलक, लगुन और विवाह से बारात और विदा तक का थका कर चूर कर देने वाला लंबा रास्ता। देवउठनी ग्यारस के बाद अमूमन ये चहलपहल,रौनकें हर गली, मोहल्ले, सैक्टरों, सेलिब्रेशन गार्डन्स, बैंक्वेट हॉल्स, धर्मशालाओं से लेकर दो,तीन,चार, पाँच सितारा होटलों में बिखरी मिलती हैं। साथ ही किसी लेंडमार्क या मेन रोड के आसपास बारात असेंबल होने के लिये सजावटी टेंट की सज्जा और क्लब्स में रंगीन लाइटें अपनी जगमगाहट बिखेरती दिखती हैं।
ये जगमगाहटें हों भी क्यों ना! भई दो अलग-अलग इंसानों की ज़िन्दगियाँ वचनबद्ध होकर आखिर एक गठबंधन में बँधकर एक जो होने जा रही हैं। इस मेल की भव्यता ही तो वर्षों-बरस याद की जायेगी, बातों में उसका बखान किया जायेगा कि-फलाँ के बेटे/बेटी की शादी में क्या आलीशान व्यवस्था थी, क्या सजावट थी,उसका खाना तो आज भी मुँह में चटखारे मारता है और वह दुल्हन का लहंगा, दूल्हे की शेरवानी…अरे! घर भर ने क्या हैवी जेवर-कपड़े पहने थे। क्या शानदार टीम-टाम थी भई वाह्ह्,खूब पैसा लुटाया था उन ने।
बरसों-बरस इस गप्पबाज़ी के लिये एक की जगह चार अनर्गल खर्चे क्या उचित है? गलत मत समझिये पहले पूरी सुन तो लीजिये!
हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, शंकाओं के ढ़ेरों समाधान, प्रश्नों के, संदर्भ के एक से अधिक उत्तर होते हैं, ठीक वैसे ही इस विषय के अलग-अलग परिवारों के सामर्थ्यवान स्तर के भी हैं-
पहला कि- बेटी/बेटा बचपन या युवापन से ही सपना संजोये बैठे हों कि…हमारी शादी ऐसी होगी, उसमें ये व्यवस्था, वो सजावट, ये पहनावा, फलाँ ट्रेंड इत्यादि सब कुछ होगा, कहीं कोई अंगुल मात्र भी कमी नहीं होगी।
दूसरा पहलू- यदि वर पक्ष अपने रौब में लकदक माँगों को परोस दे! अब बारातियों का स्वागत पान-पराग से करवाने की कोई सोचता तक नहीं (अच्छा भी है,गुटका-मसाला सब पहले ही हानिकारक ठहरे), बल्कि वर पक्ष की बढ़ती-चढ़ती माँगें व उनकी पूर्ति के वचन की मजबूरी यह सब टीमटाम करा देती है।
इसी से इतर कहीं वधू पक्ष भी अपनी धौंस मनवाने वाला निकल आता है।
तीसरा पहलू- स्वयं वह परिवार जहाँ ये आयोजन होना है, फिर विवाह बेटी का रहे या बेटे का, भई वर्षों का व्यवहार है हमारा,दूसरों की बारातें, बियाह देखे-खाये हैं,तो अब अपनी भी चमक दिखायेंगे ही।
लेकिन मैं यहाँ उस पाले की बात कह रही हूँ,जो मध्यम वर्ग में आता तो है, परंतु ईश-कृपा से आर्थिक रूप से समर्थ व स्थापित है। जो कि माथे पे बल पड़े बिना इन आयोजनों के व्यय को झेल पाने में सक्षम है।
इससे इतर उपर्युक्त सभी पहलू निम्नवर्गीय, उच्चवर्गीय खाँचों में भी अपनी घुसपैठ सदियों से बनाये हुये हैं।
यहाँ निश्चित ही मैं किसी राजनेता के परिवार, करोड़ों-अरबों के टर्नओवर वाले व्यवसायिक परिवार या सिलेब्रिटियों की बात नहीं कर रही हूँ। क्यों कि कोई भी बम्बानी, खोपड़ा, टौशल इन आयोजनों में अतिरिक्त दिखावों से परे जाकर,उन पर लगाम लगाकर! क्या परहित करते हैं मुझे इसका भान नहीं।
ये सब मैं किसी की हँसी उड़ाने के लिये नहीं कह रही हूँ, बल्कि ये सब वो बातें हैं, जो हम में से किसी भी साधारण से संवेदनशील मन की उपज हो सकती हैं, संग घटी हुई हो सकती हैं या आगे भविष्य में हमने ऐसे किसी आयोजन की कोई प्लानिंग तय भी कर रखी हो शायद।
ये बहुत सोच-विचार वाला मुद्दा है, जिसकी उलझी लच्छियों को सुलझाने के लिये विद्वता,समय और संयम तीनों की आवश्यकता है।
सोचिये सृष्टि की हर शै फिर वो बदलते मौसम हों, ग्लोबल वार्मिंग से निरंतर होते पर्यावरणीय बदलाव हों, भूकम्प हों, वायरस हों या महामारियाँ हों, ये सब के सब प्राकृतिक इशारे हैं, जिनके माध्यम से सृष्टि हमें कुछ ना कुछ समझाना चाहती है। वह इशारे देकर निरन्तर चेताती रहती है हमें कि…संभलो, बदलो, कोई राह नई निकालो, समस्या बढ़ाने की जगह उसे हल करो।
अभी पेंडमिक के साये में बीते दो-तीन वर्षों ने इस प्रक्रिया में काफ़ी हद तक बदलाव भी किया था। धरती पर हम इंसान बहुत ही कर्रे किस्म के प्राणी हैं,कुछ ठान लें तो क्या गोलाबारी और क्या महामारी, सब से दो-दो हाथ करके समस्या का समाधान खोज ही लेते हैं। वही हुआ भी विगत वर्षों में महामारी के ताड़ के तले आयोजन रुके बिल्कुल नहीं! एडवाइजरी जारी हुई तो भी विवाह सम्पन्न हुये नियत महूर्त में, भले ही मजबूरी रही कि…शादी बियाह में वर-वधु पक्ष के गिने चुने परिवारी,मित्र,रिश्तेदार सम्मिलित होंगे।
कहीं ना कहीं इस आदेश ने जहाँ सकते में डाला कि भैया ऐसे कैसे? ना गाजा ना बाजा ना टीमटाम,ना भीड़-भाड़!
वहीं इससे इतर कुछ जगहों पर इक राहत की साँस भी मुस्कान सी आकर टिक गई चेहरों पर। राहत मितव्ययिता की,राहत बेमतलब की आपाधापी,हबड-दबड की। राहत रूठने-मनाने के क्रम की। लोग कम होने से व्यवस्था के हर पहलू में एक सरलता आ गई। देने-लेने के उपहारों की खरीदारी, खाने-पीने के मेन्यू के आइटम का बजट, सजावट, डीजे,बैंड, धर्मशाला, होटलों की किल्लत आदि के छोटे-बड़े खर्चों में एक सुनिश्चित ठहराव आ गया था। आदेश के कारण किसी के बुरा मानने, खिसियाने, जिद्द करने के साथ-साथ किसी फूफा-मौसा के मुँह फुलाने हेतु कोई माकूल वजह भी तो नहीं थी।
सोचिये, कर देखिये कि… इन आयोजनों के सभी पहलुओं को ध्यान में रखकर, किसी पेंडेमिक या आदेश से इतर हम सदा के लिये सुधार कर लें तो हम अनर्गल खर्चों को सीमित करके हम अपनी व अपनों की बहुत मदद कर सकते हैं। उनकी आर्थिक स्थिति में उनकी कमर भी नहीं टूटेगी और एक मानसिक व आर्थिक मजबूती ही मिलेगी इस बदलाव से।
खाया, पिया, खिसका-टाइप इन भव्य आयोजनों को यादगार व सफल बनाने के लिये ढ़ेरों तरीके और मिलेंगे हमें, दिमाग में बात बैठाने की देर है बस।
बिग फैट इंडियन वेडिंग तो बहुत सुनी और कुछ सम्मिलित होकर बहुत करीब से देखी भी हैं, जिनमें एक सादा सा कोना भी फोटोग्राफी करने लायक था, जहाँ विदेशी डान्सर भी थिरके और लोकनृत्य की छाप भी खनकी। खाने में सलाद और रोटी और डेजर्ट ही इतने तरह का कि..देख कर ही मन मस्तिष्क तक तर हो जाये। एक बार में दिमाग को जितनी याद रहें, वो सारी कुजिन एक ही प्रांगण में।
लेकिन याद करने लायक कुछ बचा ही नहीं क्योंकि अति का था सब, और ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’ तो सबने सुना ही है।
कुछ सिलेब्रिटी विवाह ऐसे भी सुने-पढ़े जो कि सुकून बन कर ज़ेहन में टिक गये। मैं यहाँ नाम नहीं लूँगी लेकिन प्रभावित होने से और सुझाव बटोरने से रोक भी नहीं सकी खुद को।
इन्होंने सस्टेनेबिलिटी को ध्यान में रखकर अपने विवाह आयोजन की सजावट आदि व्यवस्थाओं में वेस्ट मटीरियल और रीसाइक्लेबल मटीरियल के इस्तेमाल पर ज़ोर दिया और गज़ब चतुराई से खूबसूरती भरी आयोजन में।
आप खुद सोचिये कि…इन भव्य व्यवस्थाओं में प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं का अत्यधिक दुरुपयोग तो होता ही है, साथ में हम प्रदूषण के कारकों को बढ़ावा देने वाले कारण भी बन जाते हैं, फिर चाहे वो अति की फूलों,पत्तियों की सजावट हो,आतिशबाजी पटाखों से होता वायु प्रदूषण हो, लगातार तेज आवाज में डीजे,ढोल,शोर वाले डेक आदि से बढ़ता ध्वनि प्रदूषण हो,खाने के लिये इस्तेमाल होने वाली प्लास्टिक की कटलरी, जूस के ट्रेट्रापैक, कोल्डड्रिंक्स और पानी की बोतलें आदि से होती कूड़े की बढोत्तरी हो। विद्युतीय सजावट की अधिकता भी एक बड़ा नुकसान है।
सोचिये ज़रा से चातुर्य से, बुद्धि-कौशल से हम कितना कुछ बदलकर कंट्रोल कर सकते हैं। ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ कहावत तो सबने सुनी ही होगी!
हम मानव पहाड़ों को काटकर नदियाँ बहा लाये, रास्ते बना दिए, सागरों को पुलों से नाप लिया, अंतरिक्ष में ध्वजा लहरा आये, हिमालय तक को जीत लिया तो ये तो बहुत छोटी सी बात है, चाहें तो मन चंगा करके, चुटकी में हल करके खुशियों की गंगा के भागीरथ बन जाइये।
ये सब कहने का मेरा आशय बस इतना भर है कि…क्या हम पेंडमिक जैसी किसी भी मजबूरी से परे यही सुनिश्चित सी संयमित खर्चों, मेहमानों वाले बड़े आयोजनों की प्रक्रिया शुरू नहीं कर सकते?
क्या दूसरों को दिखाने या होडाहोडी में आर्थिक रूप से अपनी या अपनों की कमर तोड़ देना उचित है?
जिस धरती के हम बच्चे है,जो प्रकृति हमें पालती-पोषती है, हमें उसके साथ खिलवाड़ का अधिकार किसने दिया? ये कार्य ये सोच किस तरह उचित है?
समस्याओं को बढ़ाना उचित है या उनका हल खोजकर जीवन को सार्थक व सुव्यवस्थित करना ?
हम जैसे मध्यमवर्गीय लोग यदि लुक्स में, ट्रेंड्स में कहीं किन्हीं सिलेब्रिटियों से प्रभावित होते हैं, तो ऐसी सस्टेनेबिलिटी वाले आयोजन की पहल से क्यों प्रभावित नहीं हो सकते?
आज ज़रूरत बस तनिक ठहर कर सोचने भर की है। यदि इन भव्य आयोजनों के नाम पर होते अनर्गल खर्चों को संयमित कर यदि उसे बचाकर परहित के, समाजिक उत्थान के, पर्यावरण संरक्षण के कार्यों में लगा दिया जाये तो भी तो हम संसार भर के लिये,भावी पीढ़ियों के लिये एक उदाहरण सैट करेंगे।
आर्थिक सहायता की दरकार ढ़ेरों जगह है। ग्रामीण-पिछड़े इलाकों में आस लगाये विद्यालयों में, अनाथालयों में, वृद्धाश्रमों, मूक-बधिर, मानसिक रूप से पीढित जनों और इस सबसे इतर अपने बेटे या बेटी की शादी के संयमित खर्चे से बचे धन को यदि आप सक्षम हैं तो किसी जरूरतमंद गरीब की बेटी के कन्यादान में भागीदारी देकर भी तो कर सकते हैं।
थोड़े से कर्रे हो ही जाइये अब…
ज़रूरत है चलने की, यदि चलना शुरू करेंगे तो राहें तो ढ़ेरों मिल जायेंगी।
बढ़ाइये कदम से कदम,ये कारवाँ तभी तो आगे बढ़ेगा।