सुभाष पाठक ‘ज़िया’ एक ऐसा नाम है, जिसने मात्र ३२ साल की उम्र में ग़ज़ल के क्षेत्र में वह मुक़ाम पाया है, जिस तक लोग उम्र-भर की साधना के बाद भी नहीं पहुँच पाते। आखिर ऐसी क्या खास बात है उनमें ? स्वयं उन्हीं के शब्दों में ‘ग़ज़ल और ज़िंदगी दोनों की फ़ितरत मुझे एक सी समझ आई, बाहर से आसान और दिलचस्प लुभाने वाली मगर अंदर से उतनी ही मुश्किल, पेचीदा और उथल पुथल भरी। ग़ज़ल से मेरा रिश्ता एक अहसासी रिश्ता रहा है जहाँ मैंने इस रेशम से एहसास को अपने अंदर उतरने दिया तो ग़ज़ल ने मुझे इस फ़िज़ा में तर-ब-तर कर दिया’। आगे ‘मैं और मेरी ग़ज़ल’ के अंतर्गत ग़ालिब के एक मिसरे का हवाला देते हुए वे एक और पते की बात कहते हैं कि ‘सुनते तो यही आये हैं कि हुनर आते आते ही आता है और एक उम्र भी कम है। मगर इस बात को आप बहाना बनाकर नहीं बैठ सकते। आपको अपनी तरफ़ से कोशिशें जारी रखनी चाहिए’। इसी में आगे बढ़ते हुए वे कहते हैं ‘मैंने कोशिश की है कि अपने अंदाज में कुछ अलग कह सकूँ। मैंने कुछ नई और लंबी रदीफ़ों पर हाथ आज़माया है साथ ही कुछ अलग क़ाफ़िये इस्तेमाल करने की कोशिश भी की है’।
श्री ज़िया का यह वक्तव्य उन गजलकारों के लिए एक जवाब है जो ग़ज़ल को एक आसमानी विधा मानते हैं। जो इस हवाई ज़ोम में फूले रहते हैं कि ग़ज़ल लिखी नहीं जाती, कही जाती है। वह ‘ऊपर’ से उतरती है। हम मानते हैं कि ग़ज़ल हो या कविता की कोई अन्य विधा, उसकी प्रतिभा ईश्वरप्रदत्त होती है। एक खयाल आपके हृदय में जन्म लेता है, वह कहाँ से आता है, आप स्वयं नहीं जान पाते, किन्तु उसे गीत, ग़ज़ल, या कविता का रूप प्रदान करना आपकी रुचि, मेहनत, अध्ययन-क्षमता और अरूज़ आदि की जानकारी पर निर्भर करता है। ‘हाथ आजमाने’ का मतलब ही यह है कि श्री ज़िया ने लंबी रदीफ़ और कुछ अनछुए क़ाफ़ियों के प्रयोग के लिए श्रम किया है। अगर वे प्रयास नहीं करते तो ऐसे टटके रदीफ़ और क़ाफ़िये नहीं ला पाते। तो अच्छी ग़ज़ल के लिए मेहनत और अभ्यास आवश्यक है।
‘तुम्हीं से ज़िया है’ में सुभाष जी की कुल 106ग़ज़लें तथा कुछ फुटकर अश्आर संगृहीत हैं। इस संग्रह की लगभग सभी ग़ज़लें प्यार-मुहब्बत की परंपरागत भावभूमि पर आधृत हैं। खयालों की ताज़गी, कहने का निराला अंदाज़ तथा भाषा में हिन्दी-उर्दू की बेमिसाल मैत्री इनकी खासियत है। जिस क़ाबिलीयत और नफ़ासत के साथ श्री ज़िया अपनी बात को अंजाम देते हैं, वह देखने योग्य है। कुछ अश्आर देखिये-
सूरज जब दिन की बातों से ऊब गया
परबत से उतरा दरिया में डूब गया
ज़ायक़ा तो चखो मुहब्बत का
दर्द मीठा है अश्क खारे हैं
रौशनी में चराग़ का मतलब
कुछ नहीं, तीरगी से यारी है
कभी-कभी उनके अश्आर में सूफियाना अंदाज़ दिखायी देता है। लौकिक प्रेम जब हद से गुज़र जाता है, तो उसमें आध्यात्मिकता की झलक दिखायी देती है। इस लहजे के कुछ अश्आर देखना उचित होगा –
उसको महसूस करता है ये दिल
फूल तितली शजर हवाओं में
वो हक़ीक़त है ख्वाब जैसा मैं
वो है दरिया सराब जैसा मैं
कभी-कभी तो वो फ़रियाद भी नहीं सुनता
कभी-कभी हमीं फ़रियाद भी नहीं करते
ऐ ‘ज़िया’ जिस्म दरमियां आया
रूह से जब भी की शनासाई
रूह को हमने ढका है जिस्म की पोशाक से
और ये पोशाक बनवाई गई है खाक से
इसका मतलब यह नहीं है कि श्री ज़िया ने दुनियादारी की ग़ज़लें ही नहीं कही हैं। उनके अनेक अश्आर हमारे दैनंदिन जीवन से जुड़े प्रसंगों को सामने लाने का कार्य करते हैं। उनका एक शे’र देखिये, जिसमें प्रकृति के विनाश और पर्यावरण की क्षति पर क्षोभ जताया गया है। ‘आरियाँ भी चलायेँ पेड़ों पर / और उम्मीद भी बहारों की’ में उनके संवेदनशील दिल का दर्द सुना जा सकता है तो ‘जिस्म तहज़ीबे हिन्द है मेरा / साँस है बिरहमन तो खां है दिल’ तथा ‘मिलाना चाहते हैं हाथ हिन्दू और मुस्लिम पर / सियासत है कि इनको पास भी आने नहीं देती’ जैसे शे’रों में उनका देश-प्रेम और हिन्दू-मुस्लिम एकता की राह में आनेवाली राजनीति पर कटाक्ष भी देखा जा सकता है। ऐसा ही एक शे’र उनके ‘चंद अश्आर’ में दर्ज है, जिसमें बेटियों के प्रति उनके दिल की भावना अभिव्यक्त हुई हैं। वे कहते हैं –
बेटियाँ हैं वो महक जिनसे महकते दो जहां
ये नहीं तो मायका ससुराल सब वीरान हैं
श्री ज़िया ने अपनी अधिकांश ग़ज़लें मध्यम प्रकार की बह्रों में रची हैं, किन्तु कुछ प्रयोग लंबी बह्रों के भी देखने को मिलते हैं। खूबी यह है कि ऐसे मुश्किल प्रयोगों में भी उन्होंने न तो तग़ज़्ज़ल से समझौता किया है और न रवानी से। कुछ नमूने देखिये, जिनमें चार से अधिक अरकान अपनाये गये हैं –
दिन गुज़ारो तुम कहीं भी शाम को घर लौटना उसने कहा था
ध्यान रखियो हो न जाये यार अँधियारा घना उसने कहा था
चलो आइने से मिलो और खुद को सँवारो निहारो तुम्हीं से ज़िया है
थकन को उतारो न यूँ थक के हारो वफ़ा के सितारो तुम्हीं से ज़िया है
भाषा पर भी श्री ज़िया का अच्छा अधिकार है। शायद इसी कारण वे ग़ज़लों में कॉमन, मून, बलून, जून, वेट, लिफ्ट, मूड, सिस्टम, एलीमेंट, फ़ील जैसे अंग्रेजी शब्दों का प्रभावपूर्ण प्रयोग करने में सफल हुए हैं। किन्तु कहीं-कहीं उर्दू के प्रति उनकी आसक्ति अपनी सीमा लाँघती प्रतीत होती है। लोच और लज़्ज़त के नाम पर ग़ज़ल में यों, क्यों, यह, वह, आदि की जगह यूँ, क्यूँ, ये, वो आदि का प्रयोग तो आजकल फैशन बन ही गया है, किन्तु ज्यों, त्यों की जगह जूं, तूं का प्रयोग क्या दर्शाता है, कहने की आवश्यकता नहीं है।
जहाँ तक इन ग़ज़लों की छांदसिक कसावट का प्रश्न है, श्री ज़िया ने अरूज़ का पूरा ध्यान रखा है। यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि श्री ‘ज़िया’ की गज़लें सचमुच ज़िया (रौशनी) की ग़ज़लें हैं। ग़ज़लों की दुनिया में वे एक रौशनी लेकर आयी हैं। अभी तो शुरुआत है, देखना है, ज़िया का नूर कहाँ तक फैलता है !