सृजन चाहे मानव द्वारा हो या प्रकृति द्वारा,उसकी सौरभ चतुर्दिक् फैलती है और चाहे न चाहे हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करती है। प्रकृति का सृजन हमें पग पग पर दिखाई देता है लेकिन मनुष्य का सृजन तभी प्रस्फुटित होता है जब उसका प्रकृति से तादात्म्य हो। मनुष्य और प्रकृति की एकलयता ने मानव-सृजन को नित-नये आयाम दिये। प्रकृति के स्पर्श से ही अधोगामी चेतना, उर्ध्वगामी हुई और मनुष्य ने उस अखण्ड सच्चिदानन्द से साक्षात्कार किया। जब भीतर की प्रकृति,बाहर की प्रकृति की लय को समझ-पकड़ कर विकसना आरम्भ होती है तब फैलती है सृजन-सौरभ।
जी हां,सृजन-सौरभ कुलदीप सिंह भाटी के सद्य: प्रकाशित काव्यकृति का नाम है जो कि उनकी बाह्य प्रकृति के साथ अन्तश्चेतना से युक्त आन्तरिक प्रकृति और उसकी प्रवृत्ति के विषय में इंगित कर जाती है। हालांकि अपने आत्मकथ्य में वे इस पुस्तक को पूर्णतया अप्रत्याशित और अनियोजित प्राप्ति कहते दीखते हैं जो कि किन्हीं अर्थों में सही भी है कि आज और अभी मैं कविता लिखूंगा जैसा निश्चय करके कोई रचना में प्रवृत्त नहीं होता। वह उतरती है अनायास किसी आवेग की तरह, आवेशित करती आत्म को,कि क्षण में कौंधती है किसी बिजुरी-सी। वह अपने होने में विराजती है हमारी चाहना में नहीं। कुलदीप जी ने आपने आत्मकथ्य में अपनी पूरी सृजन यात्रा को ईमानदारी और सरलता से अभिव्यक्त किया है,पढ़ते हुए इसे महसूस किया जा सकता।
कवि-व्यक्तित्व की झलक काव्य-दर्शन से स्वत:हो जाती। किसी कवि को पढ़ने से उसकी प्रकृति, प्रवृत्ति, प्रतिभा और प्रतिमानों का भान स्वत:पाठक के कान में आ उतरता।
संग्रह का आरम्भ मानचित्र कविता से होता है और अवसान मृत्यु कविता पर। नियति हमारे जन्म के साथ ही हमारे हाथ में हमारे जीवन की दिशा का एक कच्चा-पक्का मानचित्र थमा देती है। हम अपने कर्मों के माध्यम से उस मानचित्र मे उजाला-अधेरा भरते हुए मृत्यु तक पहुंचते है। कुलदीप जी कविता में मातृभूमि के प्रति आदर है तो प्रकृति के प्रति एक उदार मन। वसुधैव कुटुंबकम् की भावना में पला-बढ़ा कवि-मन मानचित्र पर खिंची गयी विभाजन रेखाओं को खंरोंचों की तरह देखता है धरती की बिलखती काया कवि-मन को मथती है और त्राण हेतु पुकारती है,पर किसे पुकारे आपको या मुझे किसे पड़ी है इस धरती की-
इन्हीं खरोंचों को दिखा
यह धरती
आज भी मांगती है न्याय
अपने साथ हुई
इस ज़्यदती का।
उगना और सृजन कविताएं आशाओं के महनीय आकाश को हमारे सामने उद्घाटित करती हैं वहीं सृजन कविता सृजन के असामयिक अवसान की पीड़ा को रेखांकित करती है।
भावों और विषयों की कोई कमी कवि के पास नहीं है। एक तरफ भावनाओं की हिलोर है तो दूसरी तरफ विषयों का विशाल पर्वत। हिलोर पर्वत से चोट करती है, आती है जाती है कुछ निशान छोड़ जाती। उन निशानियों का उच्छवसित दस्तावेज है सृजन-सौरभ।
मेरी मां उदास और भारत की खोज, इन दो समीपस्थ कविताओं को एक कर यदि *उदास भारत माता की खोज* कह दूं तो फलक की व्याप्ति बहुत दूर तक हो जाएगी।
नहीं लगता है
कुछ भी खास
जब लगती है
(मेरी) मां उदास।
यहां *मेरी* शब्द एक ठोकर-सा लगता है और क्षितिज को संकुचित करता हुआ भी। मां किसी की भी हो उसकी उदासी,पूरी उपस्थिति को उदास कर देती है।
प्रेम एक पवित्र-आशा और निश्छल-विश्वास की तरह इनकी कविताओं मे आता है और पाठक पर छा जाता है। फूलों के खिलने पर भी प्रेमियों का न मिल पाना, कवि-मन में दुखता है। प्रेम में रूठना भी प्रेमांग ही है लेकिन आज की ओछी मानसिकता के कारण रूठना कब द्वेष में बदल जाता, कवि इसके प्रति सावधान है। फूलों का खिलना शीर्षक कविता में कवि लिखता है-
नाराज़ प्रेमियों के प्रति मौन रहकर
खिलने और झरनें के
इस अनवरत क्रम में
बन्द हो चुका है
प्रेमियों का मिलना
लेकिन नहीं बंद हो पाया
फूलों का खिलना…
कहता हुआ कवि फूलों के निरन्तर खिलने-झरनें के व्याज से प्रेम में रूठने-मनाने की परम्परा को इंगित करता है।
नदी जलधारा मात्र नहीं, जीवनधारा है। सभ्यताएं नदी की गोद में फली-फूली लेकिन आज मनुज का स्वार्थ देवतुल्य मानी जाने वाली नदियों क्रा क्या हश्र कर रहा,यह विदित ही है। *विस्मृत कर दो* कविता में हिमशैलसुता भागीरथी से प्रार्थना करता है कि अब कभी तुम अपने उतुंग शिखर से उतर मत आना सपाट मैदानों में कि पाप-शोधन के साधन के रूप में स्नान करते हुए हमने छीनी है तुम्हारी पवित्रता –
…पर न आना कभी उतर कर नीचे
अपनी पवित्रता पर दाग़ लगाने
जितना करना था,
तुम कर चुकी हो
मत आना वहां,जहां तुम हो उनके
पापों के प्रक्षालन का साधन मात्र…
इन पहाड़ों में ही तुम्हारी
पावनता और निर्मलता
रह सकती है अब सुरक्षित
दुख नदी का या कि स्त्री का,दोनों को ही त्यागना होता अपना उद्गम। जाना पड़ता सुदूर। अपनी मिठास,निज-उल्लास सब कुछ त्यागकर मिल जाना होता सागर-कुटुम्ब में। कवि के शब्दों में
-कितना कुछ
मिलता-जुलता हहोता है दुःख
नदियों और स्त्रियों का।
संग्रह में प्रकृति का हास है तो महामारी का त्रास भी है। विगत दो-तीन वर्षों में मानवजाति पर आये कोरोना नामक महासंकट ने जन-जीवन को जो हानि, जो दुःख पहुंचाया, सोचकर ही मन सिहर उठता है। चारों तरफ छाया हुआ मातम, एम्बुलेंस के सायरन की सनसनाती चीत्कार मोहल्ले से गुज़रती तो प्राण कांप उठते कि महिषवाहन यम किसे उठाने आया। चौक,चोराहे मोहल्ले,हथाइयों का सूनापन,कवि उस स्थिति को याथातथ्य कविता मे दर्ज़ करता है और प्रेम लिखने की चाहना वाला कवि लिखता है विवशता-
जब लिखना चाहता है कोई
प्रेम, स्नेह, आत्मीयता,वात्सल्य के लिये कुछ शब्द
पर आक्सीजन के ख़त्म सिलेंडर की तरह
दवात मे जो स्याही
दारुण दुख के दाह में
स्वाहा हो चुकी है।
ओर भी बहुत-सी भाव-सम्पदा को समेटती है कविताएं। कवि बैंक में सेवारत है। कवि कहीं भी हो कविता उसके साथ ही चलती। विषय का अभाव कवि के लिये कभी नहीं होता। कहा भी गया है-कविरेव प्रजापति। उसे जैसा विश्व रुचता,वह वैसा बना लेता। बैंक मे पेंशनधारकों को हर वर्ष अपना जीवित होने का प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करना होता लेकिन उनके कठोर व्यवहार से कवि-मन कभी आहत भी हो जाता और कह उठता-
– कोई महीना ऐसा भी निर्धारित किया जाए कि
इंसान जमा करवाए
ख़ुद में
इंसानियत के जीवित होने का
प्रमाण-पत्र।
इस प्रकार कुलदीप जी का कवि कभी दर्शन की पगडंडी पकड़ बुद्ध तक हो आता है तो कभी वर्तमान का हाथ पकड़ यथा-दृष्टि तथा-सृष्टि को परिभाषित करता है। रोना हमें निर्मल बनाता है और ठहराव जीवन में स्थायित्व लाता है। कहीं आंगन में उतरती शाम का दृश्य है तो कहीं प्रेम के गणित में जोड़ का परिदृश्य। विभावरी वेला के साथ कवि भूख को रेखांकित करना नहीं भूलता कि कल्पना को उड़ान यथार्थ के धरातल से ही मिलती। काठ की हांडी,आग ,मौन शीर्षक की कविताएं भिन्न शीर्षक होते हुए भी लयात्मक अन्तर्सम्बन्धों को रेखांकित करती है।
मृत्यु जीवन का अन्तिम सत्य भी है और इस संग्रह की अन्तिम कविता भी। लेकिन हमारी परम्परा में न तो मृत्यु हमारा अन्त है न ही कविता का।