1995 में राकेश प्रेम का कविता संकलन ‘ जंगल और जुगनू’ प्रकाशित हुआ और 2021 में ’सूरजमुखी सा खिलता है जो’ तथा ‘जड़ पकड़ते हुए’ पाठकों के हाथ में आए। इससे पहले किशोरावस्था में इस प्रातिभ कवि के दो संकलन अपने कवि बंधु दिलजीत दिव्यांशु के साथ 1972 में ‘पुष्पांजलि’ और 1977 में ‘ रंगों की पहचान में’ प्रकाशित हो चुके थे।
‘सूरजमुखी सा खिलता है जो’ मानव मूल्यों/ जीवन मूल्यों की खोज में निकले एक भावुक चिंतक की काव्य यात्रा है। मूल्यों का सीधा संबंध हमारे सामाजिक आदर्शों, व्यावहारिक प्रतिमानों, नैतिक नियमों, सहअस्तित्व और सर्वकल्याण से रहता है। आदर्श बने- बनाए और स्थिर होते हैं तो मूल्य गतिशील।
इस पुस्तक में सत्तावन कवितायें हैं। कवि कर्म राकेश प्रेम के लिए आत्म साक्षात्कार है, संजीवनी है, उजली धूप का अहसास है, गंधक का चश्मा है, जीवंत जगत से पहचान का अहसास है, प्रकृति से सहवास है,जीवन तरु का मूल अंश है। कवि कहता है-
यह
कविता की पगडंडी ही है
होता हुआ जिससे
शब्दों के जंगल से गुजरता हुआ
जीवन की भाषा बोल पाता हूँ
और पहुँच पाता हूँ
आपके पास
अपने पास
सृजन का निस्पंद होना कवि के लिए भाव के अभाव में बदलने जैसा है, अनुभूति के द्वारों पर प्रहरी बैठने जैसा है। दार्शनिक कवि कविता के शब्द, अर्थ, भाव, मंत्र, नाद का विश्लेषण करता कहता है-
एक शब्द है कविता
मोती है मनोमय कोश का
संजीवनी है जीवन सत्व की
संवाद है जीव जगत का।
एक अर्थ है कविता
सूरजमुखी सा खिलता है जो
आलोकित करता
संशयात्मक मन को
कवि कविताओं में रिश्तों में समाये मूल्यबोध की बात भी करता है। दाम्पत्य की मूल्यवत्ता और उसमें समाई पुरुषीय अहमन्यतापुस्तक के ‘समर्पण’ में ही साकार हो उठी है, जब कवि सहधर्मिणी नीरजा से कहता है-
‘तुम जो मेरी सृजनधर्मा पृथ्वी हो
और मैं; तुम्हारा निरभ्र आकाश!
तुम मुझे ग्रहण करती हो
मेरे समस्त भावों- अभावों में
और मैं तुम्हारा वरण करता हूँ
तुम्हारी संपूर्णता में
रिश्तों के अनेक रूप कवि ने चित्रित किए हैं। माँ की स्मृतियाँ उसे सर्वाधिक हांट करती हैं। माँ की ममता की गलियों में कवि चक्कर लगाता ही रहता है। माँ के बिना जीवन कैक्टस की नगरी सा लगता है। माँ बरगद- पीपल कीछाया है। उसकी उपस्थिति जीवन में टेसू, रजनीगंधा, चम्पा- चमेली सी गंध बिखेरती है, वही बच्चे में आत्मविश्वास और संघर्ष की शक्ति भरती है।
एक समय था- जब पिता सिर्फ पिता होते थे और बच्चे की सारी चिंताएँ माँ के लिए होती थी। एक समय यह आया है कि माँ का दुधमुंहा बच्चा, पिता की अंगुली पकड़कर चलने वाला बच्चा, बड़ा होते ही पिता को दिशा निर्देश देने लगता है, व्यंग्योक्तियाँ करने लगता है। यह अर्थमेव जयते का युगहै, जहां व्यक्ति उलझनों और प्रश्नों से घिर जाता है, अकेला हो जाता है, व्यर्थताबोध दबोच लेता है। लगता है ज़िंदगी दसों अंगुलियों से फिसल रही है।
स्कूली बच्चों की भाग-दौड़ भी यहाँ चित्रित है औरकवि के जीवन में प्रकाश की प्रथम किरण सा ‘अयांश’ भी है, जिसकी भाव- भंगिमाएँ कवि को जीवन संगीत सा मोहित- आकर्षित करती हैं।
एक हमजोली दिलजीत दिव्यांशु बहुत याद आता है। राकेश प्रेम की आरंभिक दो पुस्तकें इन्हीं के साथ हैं-
साहित्य को किसी की बपौती न मानकर
तुम
निरालाई अंदाज में लट्ठ लिए फिरते थे
कविता हमें आत्म साक्षात्कार भी कराती है और जीवंत जगत से पहचान भी कराती है। कविता शब्द के बाट से अर्थ के ठाठ तक पहुंचाती है।
‘अमरबेलि’ में राकेश प्रेम उस संकुचित मानसिकता वाले स्वार्थी मनुष्य की बात करते हैं जो राष्ट्रीय एकता के मूल्यों को ताक पर रख,प्रांत, भाषा, धर्म, संप्रदाय के नाम पर देश को बांटना चाहते हैं। ‘प्रार्थना’ में आतंकवाद से मुक्ति की प्रार्थना और सद्भाव की, अमृतवाणी की मूल्यवत्ता है।‘भेड़िया’में हिंस्त्र शिकारीको लोलुपता, विजयाभिमान, मर्यादातिक्रमण के लिए फटकार है। ‘मील- पत्थर’ में अडिग रहकर मार्ग दर्शक होने का संताप है। आशावादी,आस्थावादी कवि गुनगुनाता है- ‘क से कविता, ज से जीवन, ह से है’। ‘एक ओर यात्रा’में दार्शनिक कवि आश्वस्त है- ‘मैं फिर आऊँगा’।
मूल्यवत्ता की पुष्टि के लिए पौराणिक संदर्भों को भी लिया गया है। ‘विषपायी’ में त्रिकालद्रष्टा शिव/ नीलकंठ के हलाहल पान, मस्तक पर शशि और जटाओं में गंगा धारण करने का उल्लेख है-
जन कल्याण में बिखेरते
शिवत्व की छटा।
शिव हैं विषपायी
शिव थे विषपायी
‘दर्शन’ में कृष्ण और अर्जुन का कर्म और मोहत्याग का दर्शन है। ‘संदर्भ’ में पौराणिक प्रसंग को प्रतीकात्मकता दी गई है-
टंकार गाण्डीव की गूँजे कैसे
सारथी न हों जब कृष्ण
मन अर्जुन के
सब के पास अपने अपने सत्य और तर्क हैं- युधिष्ठिर के पास भी और दुर्योधन के पास भी।
शब्द का मानवीकरण करता कवि कहता है कि शब्द उस दुधमुंहे बालक सा है, जिसके नेत्र माँ का प्यार और दुलार ही खोलते है-
जगाना ही चाहते हो शब्द को,
उसे होले से
प्यार से थपथपाओ
माँ के दुलार सा सहलाओ
सोया हुआ शब्द
दुधमुंहे बालक सा आँखें खोलेगा
अखबार का मानवीकरण करता कवि कहता है-
उजड़ते सुहाग/ टूटती चूड़ियाँ/ बिलखती राखियां
सब फैले हैं
अखबार के सीने पर
भावाभिव्यक्ति के लिए कवि रूपक रचना भी करता है-
पिंघलने दो शब्द को
जीने दो अर्थ को
जन्मने दो संवाद को
कि शायद कोई बिन्दु
आकार लेने लगे ।
सम्बन्धों की वाटिका में
खिल उठें फूल।
कहीं कहीं सूत्र भी बिखरे हैं- कुछ पल ही तो जीते हैं हम
बाकी तो खोते और ढोते हैं।
जब कभी अपने से कट जाता है आदमी
बाहर और भीतर में बंट जाता है आदमी।
नए मुहावरे भी यहाँ जन्म ले रहे हैं- कीलियों पर टंगा ईमान, इच्छाओं के आकाश राम जी की माया, कांची है काया
यह छोटी, सरल,स्वानुभूत, सहज, शैल्पिक क्लिष्टाओं से मुक्त बोधगम्य कवितायें हैं, जिनमें मूल्यवत्ता के ढेरों पक्ष बिखरे पड़े हैं। निराशा है, संताप है, दुख है- लेकिन कवि का मूल्यबोध,आस्था,आशावाद सब पर भारी पड़ रहा है।