मूल्यांकन
शतरूपा: नारी विमर्श का नया अध्याय
– डॉ. गुरूदत्त जी राजपूत
स्त्री हृदय की थाह पाना स्वयं देवाधिदेव ब्रम्हदेव को भी मुमकिन नहीं इसलिए नेति-नेति कहकर असमर्थता दर्शायी है। जगत जननी का बहुमूल्य योगदान समय के भाल पर रहा है और सदैव रहेगा। उसे देवी, माँ, माता, नारायणी कहकर शीष भी नवाया। लेकिन युगों-युगों से उसे वो सम्मान नहीं दिया गया, जिसकी वह हक़दार थीं। पुरूष प्रधान समाज की अमानवीयता की दकियानूसी रूढ़िवादी मनोवृत्तियों ने औरतों के घुट-घुट कर, आश्रित जीवन की देन देकर उसको अपमानित किया। प्रतिरोध तो हर स्त्री के तन-मन में था। वो दबी-सी चिंगारी उसे हवा देने पर दहकते अंगारों को महसूस कर सकते हैं।
‘शतरूपा’ काव्य संग्रह के बहाने दोलन राय ने जहाँ स्त्री के सौंदर्य पर मुग्ध रहने वाले संसार को उसके मूल सौंदर्य, जो अंतर्मन है उसका दीदार कराया। उसके मन-मस्तिष्क के मनोवैज्ञानिकता के आयामों को जो सदियों से अनछूए थे, उन भावनाओं शब्दों में चित्रित किया है। पीड़ाओं के रूखे सिंघू प्रवाह को बहने का रास्ता देने का यत्न किया है। पौराणिक स्त्री चरित्रों को वर्तमान में आरोपित किया है। भारत की नारी पाश्चात्य स्त्री की भांति भी योग्यताएँ रखती है पर परिवार को बिखरने नहीं देती। इसलिए भी वंदनीय है। इस रचना के पढ़ने से पूर्व पुरूष अपने अहं को त्यागकर तटस्थता से रचना को पढ़े, सोचे तो न्याय संभव है।
‘सीता’ कविता में सीता के अंतर्मन की पीड़ाओं की अभिव्यक्ति हुई है। राम ने उसकी पवित्रता पर सवाल कर अग्नि परीक्षा देने पर बल दिया। जब पति-पत्नी के रिश्ते में संदेह के दायरे बढ़कर हदें पार करने लगे तब पति-पत्नी एक-दूसरे के लिए अजनबी हो जाते हैं। फिर करता रिश्ता
और केवल शारीरिक संबंधों तक सीमित होकर जानवरों-सा प्रतीत होता है।
राम नहीं, सिया के
गरिमा और महिमा के पृष्ठों में
मन की पीड़ा दबी रह गयी
करता वहीं रह गई सीता?
मंदोदरी जैसी सौंदर्य, पवित्र और ज्ञान की त्रिवेणी की बातों को अनसुना कर रावण की गति मति बौराई और नतीजा
रावण कभी नहीं हारता
अपनी संगिनी के विशाल हृदय को जो स्वीकारता
एक बार दिव्य मुखमंडल को यदि निहारता
फिर कैसे हारता?
कुंती कविता के माध्यम से दानवीर कर्ण जैसे महान योद्धा पुत्र को लोक लाज के भय से त्यागना पड़ा। समाज के रूखे तेवरों ने औरत को जिल्लत, अपमान के सिवा क्या दिया। इसलिए वर्तमान युगीन कुंती मानो दृढ़ संकल्प कर रही है-
भविष्य में ये न होने दूँगी
मेरे गर्भ में सूर्य पुन: उदय होगा
अब मैं समाज के प्रहार से
न मानूँगी हार
चाहे निंदा हो हज़ार
कुंती ने मन से कर्ण का कभी त्याग नहीं किया था। विवशता ने उसे रोक दिया था।
‘कैकयी’ कविता के माध्यम से कैकयी के योगदान को सराहने के बजाय उसे कोसती मानसिकता को उत्तर दिया है।
क्यों कोसते हो कैकयी को
उसने ही तो जन-जन को राम दिया
प्रभु रामचंद्र के साथ भाई लक्ष्मण भी चौदह बरस के वनवास के लिए निकल पड़े पत्नी उर्मिला को घर छोड़कर। उस समय उसके मन-मस्तिष्क में क्या हो रहा था। यह समझने की कोशिश भी नहीं होती। इससे बढ़कर कोई और विडम्बना हो सकती है क्या? हर कामयाब व्यक्ति के पीछे स्त्री का हाथ होता है, पर उसके योगदान को नजरंदाज़ करना समाज की मानसिकता होती है। मुझे यही खलता है, सखि क्या दोनों ओर प्रेम पलता है।
मैं वह पत्र हूँ प्रियवर
जिसे कभी न खोला गया
‘गांधारी’ कविता में गांधारी द्रौपदी के पक्ष में खड़ी होती हैं। यह सकारात्मक बात है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में नारी विमर्श में नारी की पक्षधर हैं।
जब कोई पुरुष नारी का बल से हरण करेगा
उसी क्षण उसकी माता भी उलंग होगी
पूरे समाज का शील भंग होगा।
‘रूक्मणी’ कविता में कृष्ण पर जो अटूट विश्वास दिखाया है। यह है नारी का विश्वास। यह है समर्पण।
हे कृष्ण! तुम मेरे प्राणनाथ हो
कहती है, दुनिया तो कहने दो
तुम तो रूक्मणी के ही साथ हो।
‘शिखंडी’ कविता के माध्यम से शिखंडी के युगों-युगों की त्रासदियों को दर्शाया गया है। अपमान के प्रतिरोध की दास्तां है। शिखंडी को समाज का हिस्सा बनाने का यत्न किया गया है। किन्नरों को समाज में सम्मान देना ज़रूरी विचार है।
मेरी गंभीर पीड़ा को न पढ सकें
श्रद्धा को न मढ सकें
इस विकृति को
अब स्वीकृति दिलाओ
अंबा को प्रेम और सम्मान
शिखंडी को समाज का हिस्सा बनाओ
‘अहिल्या’ कविता में अहिल्या के साथ इंद्र ने छल किया। ऋषि मुनि ने उसे पाषाण शिला बनने का शाप दिया। अहिल्या को अपना पक्ष रखने का अवसर भी नहीं दिया गया। पुरूष ही सज़ा दे और पुरुष ही उद्धार करें। यह अहिल्या को नामंजूर है।
यदि स्त्री का करोगे इतना अपमान
विद्रोही हो
मिटा सकती है किसी दिन तुम्हारे होने का प्रमाण
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रुको राम!
नहीं चाहिए तुम्हारी दया
न ही माया
पाषाण में ही है
अहिल्या की काया
कवयित्री द्रौपदी के वस्त्र हरण प्रसंग पर सभी को सवालों के घेरे में खड़ा करती है और श्रीकृष्ण से भी सवाल करती है-
बोली, हे कृष्ण!
कर्मों दिया वस्त
न दे सके शस्त्र
चीर देती जंघा दुर्योधन की
काट देती भूजा दु:शासन की
सखा, तुमने भी इसे पूर्ण रूपेण
कहाँ रोका?
‘शूर्पणखा’ कविता में वह राम पर मोहित हो प्रेम का प्रस्ताव रखती है। लेकिन उसे सज़ा दी जाती है। वह कहती है-
एक प्रेम प्रस्ताव के अतिरिक्त
किया था मैंने
तुम पुरूषोत्तम नहीं हो राम
एक दिन मिलेगा सीता को भी इसका प्रमाण
संयोग की बात कहें यह प्रमाण सीता को मिलता है।
त्रिजटा रावण की दासी है लेकिन सीता को निराश देख समझाती है। यह है नारी। मंथरा ने जो वचन दिया था केवल उसे निभाया चाहे दुनिया उसे कुछ भी कहे परवाह नहीं करती है। माधवी ने तो इस समाज की समझ को बेनकाब किया है–
तुम नारी को कहाँ समझ पाए
राजनीति हो या धर्म
व्यवसाय हो या साधारण कर्म
नारी को तो सभी ने देह समझा।
‘शतरूपा’ संसार की पहली स्त्री, श्रुतकीर्ती, मांडवी, गार्गी, अपला, सत्यवती, शांता, यशोधरा, अरुंधती, संध्या, मैत्रेयी, चित्रांगदा, सुभद्रा, धात्री को नये सिरे से, नव दृष्टिकोण से साकार किया है।
अंत में ‘नगरवधू’ कविता में सदियों के संताप को उजागर किया गया है-
स्वार्थ परायण परंपरा ने
हर काल में
हर हाल में
उसे द्वितीय श्रेणी का समझा
भोगवादियों ने शिकार किया
समाजवादियों ने भी उसके संपूर्ण अभिव्यक्ति को
कब स्वीकार किया
निस्संदेह यह काव्य संग्रह पाठकों को एक नया चिंतन प्रदान करेगा और पाठक भी इस रचना का स्वागत करेंगे। भाषा पात्रों के मनोभावों के यथार्थ अभिव्यक्ति को साकार कर रही है। उज्ज्वल भविष्य की कामना के साथ दोलन राय का अभिनंदन करता हूँ।
समीक्ष्य पुस्तक- शतरूपा
कवयित्री- दोलन रॉय
प्रकाशन- विश्वगाथा प्रकाशन, सुरेंद्रनगर (गुजरात)
मूल्य- ₹150
पृष्ठ- 104
– डॉ. गुरूदत्त राजपूत