डॉ. अशोक शर्मा द्वारा सृजित ‘समतामूलक दर्शन के प्रस्तोता : संत सुन्दरदास’ शीर्षक संकलन, शोधार्थी, लेखक व समीक्षक के लिए प्रेरणादायक संकलन के रूप में अपनी उपादेयता को प्रमाणित करता है। यह पुस्तक, संत साहित्य और संत सुन्दरदास पर केन्द्रित एक स्वागतेय उपलब्धि है।
संत साहित्य मुख्यत: अपने युग की देन है। वह अपने समय की सबसे बड़ी आवाज है। संत साहित्य मूलतः लोक जीवन का साहित्य है, जिसमें समाज के दलित उपेक्षित-शोषित वर्ग की पीड़ा और उसकी इच्छा-आकांक्षाओं को मुखरित किया गया है, धर्म के नाम पर समाज में व्याप्त कुरीतियों, बाह्याचारों और पाखण्डों पर तीखा प्रहार किया गया है। हिन्दी संत साहित्य में बंधुत्व व भावना और मानवतावाद का संदेश दिया गया है।
संत शब्द का सीधा सा अर्थ है-सदा वने रहने वाला। यह शब्द एकवचन के रूप में प्रयुक्त होता है। इस प्रकार संत शुद्ध अस्तित्व का द्योतक है। जो नित्य, सनातन परब्रह्म या परमतत्व के लिए सम्भव माना जा सकता है। जिसका कभी, किसी युग में भी विनाश न हो, जो हर युग के परिवर्तन के साथ भी बना रहे, वही जो एक रस हो तथा जिसे सत्य के समरूप माना जाए वही संत है। यह संत शब्द परमब्रह्म या उस अज्ञात सत्ता का द्योतक है। परोपकारी, सज्जनता एवं सदाचारी तथा सत्बुद्धि व्यक्तित्व के लिए संत शब्द का प्रयोग किया जाता है।
हिन्दी साहित्य इतिहास के भक्ति काल में अनेक संत कवि हुए हैं, जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व से तत्कालीन समाज में नयी चेतना, स्फूर्ति व आशा का संचार हुआ। संत काव्य परम्परा में दादूदयाल के शिष्य सुन्दरदास का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। सुन्दरदास सन्त काव्य परम्परा के सर्वाधिक शिक्षित, शास्त्रों के प्रकाण्ड पण्डित और विद्वान कवि थे। सुन्दरदास का जन्म संत दादू दयाल के आशीर्वाद से हुआ था। संत सुन्दरदास का जन्म जयपुर राज्य की प्राचीन राजधानी घौसा में बूसर गोत्र के खण्डेलवाल वैश्य परिवार में संवत् 1653 (सन् 1596 ई.) चैत्र शुक्ल नवमी को हुआ था। इनके पिता का नाम चोखा अपर नाम परमानन्द और माता का नाम सती था। कार्तिक शुक्ल अष्टमी, संवत् 1746 (सन् 1689 ई.) को इनका स्वर्गवास हो गया।
संत काव्य परम्परा में केवल सुन्दरदास ही ऐसे कवि थे जिन्होंने काशी में समुचित शिक्षा ग्रहण की थी। इन्होंने संवत् 1663 से 1688 तक काशी में रहकर शास्त्रों का विशेषतः दर्शन और साहित्य, व्याकरण, वेदांत, योग और षट्दर्शन आदि का गूढ़ अध्ययन किया। इसलिए वे काव्य कला तथा इसकी रचना प्रणाली को भली-भांति जानते थे। इनके काव्य में लोक तथा शास्त्र का अद्भुत समन्वय है, जो इनके काव्य को समाज से जोड़ता है। इन्होंने सन्त काव्य को अभिजात्य रूप देने के लिए शास्त्रीय ज्ञान का प्रयोग किया है। सुन्दरदास ने कुल मिलाकर 42 छोटे-बड़े ग्रंथ रचे हैं। जिन्हें दो खण्डों में विभाजित कर ‘सुन्दर ग्रंथावली’ के नाम से पुरोहित हरिनारायण शर्मा एवम् डॉ. रमेश चन्द्र मिश्र ने सम्पादित किया है। इनकी प्रमुख रचनाएं ‘ज्ञान समुद्र’ तथा ‘सुन्दर विलास’ है। संत साहित्य में सुन्दरदास का स्थान अविस्मरणीय है। आज इक्कीसवीं सदी में भी संत सुन्दरदास की प्रासंगिकता है। इसलिए ‘समतामूलक दर्शन के प्रस्तोता : संत सुन्दरदास’ का अध्ययन महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
इस पुस्तक को अध्ययन की दृष्टि से अशोक जी ने चार अध्यायों में विभाजित किया है, तथा अंत में परिशिष्ट दी गयी, जिसमें संदर्भ ग्रंथ-सूची सम्मिलित है। पहले अध्याय में संत सुन्दरदास के काव्य में सामाजिक मूल्यों और प्रासंगिकता का समुचित विवेचन है। दूसरे अध्याय में संत सुन्दरदास का व्यक्तित्व एवं कृतित्व की चर्चा की गयी है। इसी कड़ी में तीसरे अध्याय है, जिसमें संत सुन्दरदास के काव्य में जीवन प्रेरक मूल्य की अनूठी विवेचन है। चौथे अध्याय में, संत सुन्दरदास के वाणी में नैतिक मूल्य पर शोधपरक सामग्री है।
यह पुस्तक संत-साहित्य के माध्यम से मानव जीवन को मानवता सिखाता है। जीवन को उच्च आदर्श पर पहुँचाने में सहायता देता है। अतः संत सुन्दरदास के काव्य में निहित मानव मूल्य समाजोपयोगी और जनोपयोगी है। यह सच है कि संत सुन्दरदास पर बहुत से शोधार्थियों द्वारा शोध कार्य प्रस्तुत हुआ है, जिसमें उपाधिपरक शोध कार्य भी शामिल है और स्वतंत्र रूप से किया गया शोध भी, किन्तु इन सबमें अशोक जी ने एतद् विषयक समस्त सामग्री के संकलन एवं विश्लेषण में जिस श्रम-साधना और अनुसंधान-वृत्ति परिचय दिया है, वह निश्चित रूप से अन्य से हटकर एवं प्रशंसनीय है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस शोधपरक पुस्तक का साहित्य संसार में स्वागत होगा तथा यह ग्रंथ उदीयमान कवियों/लेखकों के लिए नहीं, बल्कि शोधार्थियों एवं अध्येताओं के लिए भी मार्गदर्शक का काम करेगी।
इस तरह हम देखते हैं कि अशोक जी ने संत सुन्दरदास के साहित्य का ही नहीं, बल्कि उनके व्यक्तित्व का विश्लेषण भी बहुत ही गंभीरतापूर्वक किया। अगर लेखक अशोक जी के लेखकीय स्वभाव और उनके इस शोधपरक जीवनी-ग्रंथ को जोड़कर देखा जाए तो एक अच्छे साहित्यकार के साथ-साथ एक प्रखर आलोचक के रूप में भी अशोक जी का नाम स्पष्ट रूप से अपनी एक अलग पहचान के साथ हमारे सामने प्रस्तुत होता है। विवेच्य शोधपरक जीवनी के आधार पर यह धारणा और भी प्रबल हो जाती है कि अशोक जी, जो भी लिखते हैं, वह महत्वपूर्ण, ज्ञानवर्धक और प्रामाणिकता की दृष्टि से विश्वसनीय होता है। वस्तुतः इसके लिए लेखक हार्दिक अभिनंदन एवं शुभकामनाओं के पात्र हैं।