डॉ. आरती कुमारी निरंतर ग़ज़ल साधना में लगी हुई हैं। दूसरे शब्दों में यदि कहें तो हिंदी की महिला ग़ज़लकारों में जिन्होंने अपने आप को स्थापित कर लिया है उनमें एक प्रमुख नाम उनका भी है। महिला ग़ज़लकार ही नहीं पूरी हिन्दी पट्टी में वह एक ग़ज़लकार के तौर पर स्वीकारी और सराही जाती हैं। सबसे बड़ी बात उनकी ग़ज़लों में जो सादगी और सरलता है वह पाठकों को अपनी तरफ़ आकृष्ट करती है। वह हिंदी ग़ज़ल के ग़ज़लकारों के बीच ही नहीं बल्कि आलोचकों के बीच भी काफ़ी लोकप्रिय हैं। यदि प्रेमकिरण जी की मानें तो उनकी शायरी अंधेरे में शुक्ल पक्ष की तरह है। जाने-माने शायर और आलोचक अनिरुद्ध सिन्हा को उनकी शायरी की कोमलता पसंद आती है, तो ग़ज़ल गो सुभाष पाठक ‘ज़िया’ उनकी ग़ज़लों में सहजता के मुरीद हैं। “साथ रखना है ” डॉ.आरती कुमारी की अस्सी ग़ज़लों और कुछ चुनिंदा शेरों का ख़ूबसूरत गुलदस्ता है जिसकी पहली ग़ज़ल माँ और दूसरी ग़ज़ल पिता पर केंद्रित है। यह इस चीज़ की तस्दीक़ करने के लिए काफ़ी है कि अब ग़ज़ल दरबार से घरबार की तरफ़ आ चुकी है और यही चेतना हिंदी ग़ज़ल की विशेषता भी है। अगर ग़ज़ल औरतों से गुफ़्तगू करना है तो डॉ. आरती के शेर इस बात को स्पष्ट करते हैं कि स्त्रियां सिर्फ़ प्रेम की ही बातें नहीं करतीं हैं बल्कि उनकी फ़िक्र में दुनियादारी, दीनदारी और ज़माने की बेक़रारी भी शामिल है। उनकी कोशिश है कि ग़ज़ल में औरतों का सिर्फ़ हुस्न नहीं बल्कि उनके दर्द और संघर्ष भी दिखलाई दें। तभी तो वह कहती हैं –
अपना वजूद खो के भी सबके लिए जिये
रिश्तों का एहतराम है औरत की ज़िन्दगी
लड़की या औरत प्रेम भी करती है लेकिन ग़ज़ल के अपने तक़ाज़े हैं। वह कभी प्रेम को अख़बार बनने नहीं देती। इस संदर्भ में उनका यह शेर भी कितना ख़ूबसूरत है –
तुम्हें दुनिया की नज़रों से बचाकर साथ रखना है
मेरी चाहत का ख़त हो तुम छुपाकर साथ रखना है
ये ऐसे शेर हैं जिससे सिर्फ़ पठनीयता का रिश्ता नहीं रह जाता बल्कि वह दिल के अंदर जज़्ब भी कर जाता है और हमें महसूस होने लगता है कि यह तो हमारी ही बात है। यदि इसे शायरी की भाषा में कहें तो ग़मे दौरां ग़मे जानां में परिवर्तित हो जाता है। इस पुस्तक की ग़ज़लें कई बार हमें चमत्कृत और हैरान भी करती हैं। हमारी बेचैनी और कश्मकश के जीवंत बिंब इसमें नज़र आते हैं। उनके अंदर एक तड़प है और वह तड़प रोज़-बरोज़ बिगड़ते अपने समाज को लेकर है। उनका सीधा सा प्रश्न है –
आदमी बन गया है क्या आख़िर
चल पड़ी ज़ुल्म की हवा आख़िर
उनकी कोशिश इसी हवा को रोकने की है। तभी तो वह कहती हैं-
प्रेम की भावना रखो मन में
पुष्प खिलते हैं जैसे उपवन में
उनके पास शब्द हैं, शब्दों को रखने का तौर तरीक़ा है और अपना लबो लहजा है। पदम सिंह शर्मा के शब्द को उधार लें तो बिहारी के दोहे की तरह उनके लफ़्ज़ भी शक्कर के वे टुकड़े हैं जिसकी मिठास आपको देर तक आनंदित करती है। कुछ शेर द्रष्टव्य हैं –
एक हो जाते ये दिन रात तो अच्छा होता
फिर न होती ये मुलाक़ात तो अच्छा होता
मंजिले इल्म की डगर में हूँ
मैं ग़ज़ल के हसीं सफ़र में हूँ
तू बदलता है क़ाफ़ियों की तरह
मैं रदीफ़ों सी अपने घर में हूँ
आज ग़ज़ल में हिंदी, शुद्ध हिंदी, संस्कृत निष्ठ हिंदी, उर्दू- हिंदी, नुक़्ता और बिना नुक़्ता की हिंदी जैसे कितने ही विवाद चल पड़े हैं, लेकिन डॉ. आरती कुमारी इन सब से बेफ़िक्र हैं उन्हें जो शब्द अच्छे लगते हैं वह उन्हें उठा लेती हैं। वे शब्द किस ज़ुबान के हैं, उन्हें इससे मतलब नहीं होता। उनकी कोशिश बस यह है कि वह भाषा आवाम की होनी चाहिए। उनका हर शेर मुहब्बत का पैगाम है। आज जब धर्म के नाम पर हमले हो रहे हों, भीड़ तंत्र को लोकतंत्र के द्वारा प्रोत्साहित किया जा रहा हो, तो उनके प्रेम, प्यार और सद्भाव के शेर अपनी ख़ास अहमियत रखते हैं।
पत्थर न देखिए कोई खंजर न देखिए
नफ़रत भरी हो जिनमें वह मंज़र न देखिए
विलियम वर्ड्सवर्थ अपनी एक कविता डैफोडिल्स के साथ नृत्य करते हैं तो डॉ. आरती चाँद, फूल और पंखुड़ी को देखकर ख़ुशी मनाती हैं –
चेहरा जब उसकी याद की बारिश में नम हुआ
फूलों की पंखुड़ी की तरह मैं बिखर गई
ज़ख़्म अलगाव और ग़म , पाकिस्तान की उर्दू शायरा परवीन शाकिर में भी हैं और डॉ. आरती की ग़ज़लों में भी, पर दोनों में अंतर यह है कि परवीन शाकिर का दुख अपने दांपत्य का है और डॉ. आरती पूरे ज़माने के दर्द व ग़म में मुब्तिला हैं-
ये पलकें भीग जाती हैं नमी से
तेरा जब ज़िक्र करती हूँ किसी से
उनकी ग़ज़लों का जो तरन्नुम है वह भी हमें भाता है। उनके शेरों में भरपाई के शब्द नहीं हैं। वह ग़ज़ल मुकम्मल तौर पर कहती हैं। उनका कोई एक शेर दूसरे शेर से कम दमदार नहीं होता और यही ख़ूबी उन्हें पारंपरिक हिंदी ग़ज़लकारों से अलग करती है। एक ग़ज़ल के दो तीन शेर मुलाहिज़ा हों-
शाम आंचल समेटती होगी
शब मेरी राह देखती होगी
चाँद आया नहीं है क्यों अब तक
कोई बदली तो रोकती होगी
उनके पास बातों को सहेज कर रखने का हुनर है। उनके संग्रह में स्त्री और पुरुष के मिलन के साथ विरह के चित्र भी हैं जो हमें अपना मुरीद बना लेते हैं। इस संग्रह के अधिकांश शेरों में वह अपनी बात बिना किसी भाषाई दुराग्रह के रखती हैं। वे अपनी ग़ज़लों में प्रतीक, व्यंजना और अलंकार को साफ़-सुथरे तरीक़े से रखती हैं। ज़ाहिर है कि जब कभी हिंदी ग़ज़ल को समष्टि में समेटने की ज़रूरत होगी तो इस किताब को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकेगा। शुभकामनाएं।