वर्तमान का अध्ययन अतीत के पठन -पाठन से अन्तर्सम्बन्धित होता है। पढ़ने पर हमारे सुषुप्त मस्तिष्क में कई स्मृतियां स्वतः प्रस्फुटित होकर आकार लेती हैं। कुछ यही हुआ जब श्री राजेश्वर वशिष्ठ के ‘प्रेम का पंचतंत्र’ शीर्षकाधीन लिखित पुस्तक को हाथ में लिया। यकायक मेरे अंतस में वशिष्ठ जी की तरह विशिष्टता रखने वाले विष्णुगुप्त का नाम स्मरण हो आया जिनके कारण हमने शैक्षिक पाठ्यक्रमों में जंगल के जानवरों को पात्र बनाकर लिखी गई पंचतंत्र की कहानियों से नैतिकता का पाठ पढ़ा। कुछ लगभग इसी विषय और सोच के साथ वशिष्ठ जी ने चिड़िया, प्रेम, नदी, पर्वत, पत्ते आदि को निमित्त बनाकर प्रेम में नैतिकता का आवश्यक संदेश दिया है। प्रकृति और प्रेम के इर्द-गिर्द चहचहाती चिड़िया के साथ ही इस संग्रह की हर कविता में ‘सुनेत्रा’ को संबोधित कर प्रेम का पारायण करने का अवसर दिया है, बिल्कुल वैसे ही जैसे योगीराज श्री कृष्ण ने अर्जुन की किंकर्तव्यविमूढ़ता का समाधान कर गीतोपदेश प्रदान किया।
यद्यपि कवि / लेखक ने इस संग्रह में अपने विचारों को अपने पाठकों के समक्ष काव्य या गद्य रूप में न रखकर एक अनोखी और नवोन्मेषी पहल “लव नोट्स” के रूप में भावांकित किया है। साहित्य के अग्रिम पंक्ति के लोग इसे स्वीकारें या नहीं, मैं नहीं जानता किन्तु हाँ,एक पाठक के रूप में मैं उनके इस प्रयास को, जो अधिकतम रूप से आज की नई कविता शैली के निकटतम ही है, मैं इन सारे लव नोट्स को कविता के रूप में ही उल्लेखित करना चाहूंगा। मैं तो कवि को बधाई देता हूँ कि उन्होंने साहित्य की बनी बनाई लीक से हटकर एक नई परम्परा और नव-कथ्य विधा का साहसिक कार्य कर हिंदी विधाओं के मुकुट में नया मुक्तक जड़ा है।
मुझ जैसे सामान्य पाठकों से अनुरोध है कि आप विधा के विवाद (जो हुआ ही नहीं) से परे कवि/लेखक के संवाद पर अवधान देंगे तो यह लव नोट्स आपको ठीक वैसी ही अनुभूति और आनन्द का आस्वाद करवाएंगे जो आपको किसी काव्य-संग्रह की कविताओं को पढ़ने से होता है। एक साहसिक कवि के पाठक का भी साहसिक होना नितांत जरूरी है इसलिए कवि से क्षमा याचना करते हुए मैं अपने भावों की समझ और अध्ययन के निकष को सरलतम रूप से प्रकटीकरण हेतु इन लव नोट्स को यहां कविताओं के नाम से ही संबोधित करने का दुस्साहस कर रहा हूँ। राजेश्वर जी जैसे सहृदय कवि/लेखक मेरी इस धृष्टता को एक पाठक की अबोधता और पाठकीय मन की कवि के प्रति आत्मीयता और स्नेह को देखते हुए अनाप्त भाव से स्वीकार करेंगे।
अब आगे जब कविताओं के रूप में इस संग्रह पर दृष्टिपात करता हूं तो मुझे लगता है कि हम हमारे परिवेश में रोज पेड़ों को देखते हैं, चिड़िया को देखते हैं। मैं तो यह कहूंगा कि प्रकृति हम सब की संस्कृति में परिवेश के साथ ही परवरिश के तहत अभिन्न रूप से जुड़ी है। इसलिए यह सब देखते हुए कई तरह की बातें और विचार हमारे मन में उपस्थित होते हैं, ऐसे ही कुछ विचार इस कृति के कवि के मन में भी आये किंतु सामान्य से इतर जब कोई विशिष्ट दृष्टि और विशेष भाव से यह सब देखता है तो वो ‘वशिष्ठ’ जैसे कवि सामने आते हैं और आज के युग के ‘विष्णुगुप्त’ बन पंचतंत्र की आगामी पीढ़ी के एक नये अध्याय के अंतर्गत ‘प्रेम का पंचतंत्र’ सृजित करते हैं । जी हाँ, प्रकृति के ही कुछ पात्रों को उठाकर इस पंचतंत्र में मुख्यतया एक ऐसी प्रेम-कथा का निरूपण किया गया है जहां चिड़िया और पेड़ दोनों के प्रेम को रूपक बना कवि अपनी प्रेयसी ‘सुनेत्रा’ से प्रेमिल वार्तालाप करता है। इस काव्य-संग्रह में एक प्रेमी-युगल को अपनी सभी शंकाओं का समाधान मिलता है, तो वहीं आज के क्षणजीवी आकर्षण को प्रेम का नाम देने वालों को भी ‘प्रेम की परिभाषा’ से परिचित करवाकर उनकी आंखें खोलने का काम इसमें किया गया है। प्रेम के सारे तत्वों को इतनी ख़ूबसूरती से इसमें समाहित किया गया है कि इस संग्रह को प्रेम में नैतिकता के मानक-निर्धारक का प्रतिष्ठित दर्ज़ा दिया जा सकता है।
‘ प्रेम का पंचतंत्र’ में लिखी कविताओं को पढ़ते हुए पाठक आस्वादन और आचमन करते-करते मन की पवित्रता के साथ प्रेम का पारायण कर सकता है। सरस, सरस शब्दों में इतने गंभीर विषय के भावगत सौंदर्य का गुम्फन एक सिद्धहस्त कलमकार ही कर सकता है और इस संदर्भ में कवि श्री राजेश्वर वशिष्ठ शत-प्रतिशत कसौटी पर खरे उतरते हैं ।
कवि प्रेम को प्राणों का आधार मानते हैं, सारे सुखों का स्पंदन प्रेम की पुरवाई में समाहित है। कवि अपनी कविता ”झूला” में कहते हैं कि ‘प्रेमी के सुख-दु:ख के आगमन का संबंध किसी मौसम से नहीं वरन प्रेमिका से जुड़ा है। प्रेम में परस्पर दु:खों को इतनी परवाह होती है कि कवि अपनी कविता ”दु:खों को कोई कहां रखे अपने घर में” में लिखते हैं कि –
‘एक दिन एक प्यारी-सी चिड़िया ने मुझसे कहा
तुम इस दु:ख को मेरे घोंसले में रख दो,
मेरे अंडों के साथ-साथ कव्वे इसे भी खा जाएंगे।’
प्रेम में चिड़िया को लक्षित कर स्त्री / प्रेमिका की प्रेमी के प्रति ऐसी समर्पणता अप्रतिम है। इसी तरह ‘औरत’ कविता में कवि कहते हैं कि ‘केवल साहचर्य ही प्रेम नहीं है, प्रेम तो वह है जहां हृदय प्रेमी का हो और उस हृदय में अनुभूतियां प्रेमिका की। आत्मिक भाव का यह प्रेम कवि का प्रेम के प्रति शुचिता का स्पष्ट द्योतक है, जहां देहों के साहचर्य का महत्त्व आत्मिक साहचर्य से कई गुणा गौण है।
जबकि हम किसी दुःखी इंसान को देखकर यकायक उससे पूछ बैठते हैं कि तुम्हारे चेहरे का रंग क्यों उड़ा है वहीं अपनी अलग दृष्टि से कवि ‘रंग’ कविता में आंसूओं के माध्यम से बताते हैं कि इंसान के दु:ख पर भी रंग चढ़ता है, बस उसे रंगने का कौशल आना चाहिए। दुःखों का यह रंगीलापन केवल कलेवर ही नहीं बदलता वरन् एक अद्वितीय सौंदर्य को भी उकेरता है। दुःख के ऐसे आश्चर्यजनक सौंदर्य उकेरन का दुस्साध्य कर्म वशिष्ठ जी जैसे सुसाधक कवि/लेखक ही कर सकते हैं। कवि इसी सौंदर्य को अपनी इस कविता में वर्णित करते हुए कहते हैं कि प्रेमियों के आँसू (दुःख) भी रंग में घुलकर एक तितली बन जाते हैं। कवि केवल कल्पनाशीलता की बातें करकर रूमानी अहसास ही नहीं जगाते बल्कि वह तार्किकता के आधार पर भी प्रेम का परीक्षण और परिरक्षण करते रहते हैं। ‘आदमी’ कविता में यह पंक्तियाँ देखिए कि ”… कोई परिंदा पीठ पर सपने बांधकर क्यों नहीं उड़ता आसमान में। सहारा के रेगिस्तान पर उड़ने वाली चीलें कमर में क्यों नहीं लटका कर चलती है वाटर बोतलें।’ यह बोध पाकर तार्किक कवि अपनी महत्वाकांक्षाओं का बोझ नीचे फेंककर प्रेम गीत गुनगुनाने लग जाता है । कितना महत्वपूर्ण संदेश है कि महत्वाकांक्षा सुगम जीवन-यात्रा में मात्र एक बोझा है।
कवि ‘प्रेम’ कविता में लजीली बातों से बहलने और बहकने से स्त्रियों को सावधान भी करते हैं। वह कहते हैं कि –
” दुनिया भर की स्त्रियों समझ लो, सहअस्तित्व के लिए
प्रेम और उदारता की नहीं, विवेक और दृढ़ता की जरूरत होती है।”
हालांकि कवि ने अपनी सारी कविताओं में ‘सुनेत्रा’ को संबोधित किया है फिर भी ‘तुम प्रेम हो’ कविता में प्रेम नाम की गौणता को स्वीकारते हुए लिखते हैं कि “मैं तुम्हें जिस नाम से पुकारूँ, तुम प्रेम हो।”
विपरीत परिस्थितियों और अपने दुःखों को भी प्रेमिका की सुरक्षा हेतु स्वयं को मिटाकर प्रेमी, प्रेमिका के दुःख को कम करता है। यह बात तब दीगर हुई जब इस संग्रह की कविता ‘दीमक’ पढ़ने हेतु समक्ष आई। इस कविता में प्रेमी पेड़, दीमक को उसकी जड़ों और तने से उत्तरोत्तर बढ़ते हुए उस शाख को नष्ट करने का आग्रह करता है जहाँ पर बैठा उल्लू पेड़ की प्रेयसी चिड़िया के दुःख और डर का कारण बन गया है । पेड़ अपनी प्रेम की साख बचाये और बनाये रखने के लिए अपने कायिक अंग शाख को नष्ट करने को आतुर है। अपने तने पर दीमक उसको नहीं टीसती है पर अपनी प्रेयसी की दुःख भरी सिसकी से संवेदी पेड़ के हृदय में हूक उठने लगती है। इसी कारण अपने तन का मुख्यांग तने की बलि देकर भी अपनी प्रेयसी के दुःख से पेड़ तनकर मुकाबला करता है। ऐसे अनोखे बिंबों की कल्पना से इस रचना द्वारा कवि ने अपना वैशिष्ट्य सिद्ध कर नामानुकूल अपनी पारंगतता का पुख़्ता प्रमाण दिया है।
‘सुनो वाल्मीकि’ ; ‘अगस्त्य के महानायक श्रीराम’ ; ‘याज्ञसैनी – द्रोपदी की आत्मकथा’ जैसे उपन्यास / कविता संग्रह / चरित काव्य रचने वाले श्री वशिष्ठ की इस संग्रह में भी पौराणिक आख्यान के प्रति आस्था स्वतः प्रस्फुटित हुई है। ‘प्रकृति है सुनेत्रा’ में एक पौराणिक आख्यान से कवि कहते हैं कि ‘स्त्रियाँ ही प्रकृति का श्रेष्ठ रूप है।’ इसके इतर भी अन्य कविताओं की बात करें तो कभी उर्वशी के घुंघरूओं की झंकार में प्रेम थिरकता है (कविता – ‘झंकार’) तो कभी नदी की बिखरी धाराएं यक्षिणी के धूम्राच्छादित केश लगते हैं (कविता ‘आकाश कुसुम’) तो कभी कवि अपने प्रेम को वाल्मीकीय रामायण, विद्यापति की पदावली और कालिदास के कुमारसंभव में छुपा कर रखने की बात करते हैं (कविता -‘आततायी समय’), कभी कवि स्वयं को लज्जाविहीन कालिदास मानते हुए स्वयं को नव-कुमारसंभव का प्रणेता बताते हैं।
शास्त्रोक्त समझ और उनके प्रति कवि की गहरी आसक्ति है, जो यदा-कदा उनकी कविताओं में मुखर होती रहती है। ‘अंधड़’ कविता में कर्ण, कपटी इंद्र और सूर्य-कवच के प्रसंग को उद्धृत करते हुए कवि कहते हैं कि दुख और प्रताड़ना की आंधियों में आत्मविश्वास ही संबल होता है। ‘प्रश्नाकुल प्रेम’ शीर्षक के अंतर्गत कवि कहते हैं कि ‘प्रेम को पाणिनी की अष्टाध्यायी में नहीं वात्स्यायन के कामसूत्र में खोजो’ तो कभी कवि प्रेम में जयदेव की तरह देह, आत्मा की कलम से गीत गोविंद रचते हैं’ तो कभी कवि आग्रह भाव से अपनी प्रीत से कहता है कि “सुनेत्रा, तुमने मुझे गौतमी की तरह दिखाया अहम् मुक्ति का मार्ग।” कुल मिलाकर कवि का शास्त्रीय अध्ययन का वितान पूर्ण विस्तार पाए हुए है, जिसका अंश यदा-कदा इस संग्रह में मुखरित होता रहा है।
जहां प्रेम के पखावज ताल देते हों वहां गीत और राग न हो, यह सम्भव नहीं । प्रेमिल मन का रागों के प्रति अनुराग इसे पूर्णता प्रदान करता है। कवि ने इसी को ध्यान में रखते हुए शास्त्रीय संगीत और उनसे संबंधित विभिन्न रागों के प्रति अपने गहन ज्ञान से अपने संग्रह को सतरंगी सुर और राग से सज्जित किया है। कविता से इतर भी कवि का ज्ञान स्तर विस्तृत होना कितना आवश्यक है, यह बात कवि विभिन्न कविताओं में रागों के प्रति अपनी विद्वत्ता और मनीषा से स्पष्ट करने की कोशिश करते हैं। विविध कविताओं में राग मालकौंस ( कविता – बुद्ध पूर्णिमा ) राग अहीरभैरव (कविता – प्रतीक्षारत पेड़ का प्रेम राग) राग हंसध्वनि, राग जयजयवंती (कविता – प्रेम राग), राग मधुवंती (कविता – मधुवंती) के उल्लेख से यह बात स्वतः सिद्ध होती है।
सैद्धांतिक बातों से परे प्रेम के प्रति गहरी समझ रखते हुए कवि अपनी कविता ‘मोक्ष’ में चिड़िया और पेड़ के हवाले से कहते हैं कि ”प्रेम, स्त्रियों के लिए मोक्ष है और पुरुषों के लिए वासना का तरणताल। पर स्त्रियाँ जानती है, वासना की तृप्ति के बिना मोक्ष संभव नहीं ।” ओशो के ‘संभोग से समाधि’ से कुछ-कुछ प्रेरित यह कथ्य बताना चाहता है कि आत्मिक प्रेम प्राथमिक है किन्तु ऐसा भी नहीं है कि कवि देहों के साहचर्य को प्रेम में अस्वीकार या अनैतिक कहकर पुरातनपंथी सिद्धान्तों की बनी बनाई रेख पर चलते हों। आत्मा से देह और देह से आत्मा के उत्तम माध्यम से प्रेम की परिपूर्णता को दृष्टांत करते हुए कवि प्रेम के प्रति अपनी उदारता को अपने पाठकों के समक्ष रखते हैं। इसीलिए एक परिपक्व और अनुभव जनित जीवन के आधार पर ही कवि ने “देह सिद्धि” कविता को अंत की कविताओं में स्थान दिया। कवि केवल सनसनी नहीं बनना चाहते वो सन्देश प्रदाता है और समाज के प्रति अपनी भूमिका को बख़ूबी जानते हैं इसलिए अप्रतिम बिम्बों के द्वारा युगल की केलि-क्रिया का सांगोपांग वर्णन अपने संग्रह की इस दार्शनिक – कविता में करने के साथ ही वे कहते हैं कि ”…. शरीरों की यौगिक जुगलबंदी में जुड़ते… अंततोगत्वा निकल पड़ते हैं, देह की पवित्र यात्रा से आत्मा के भुवन की ओर।”
इतनी मुक्त और व्यवहारिक सोच रखने वाले व्यक्ति को लोग शायद ऊपरी तौर पर ख़ारिज कर दें पर सामने जब ‘राजेश्वर’ हो तो विशिष्ट से विशिष्ट भी कुतर्क कर उनके मंतव्य को गैर-वाज़िब नहीं कह सकते। ऐसे सशक्त अभिव्यक्ति हेतु किसी भी कवि का आत्म-बल राजेश्वर वशिष्ठ जी जितना सशक्त होना जरूरी है ताकि लोग आपको लंपट और सुर्खियां बटोरने वाला व्यक्ति न कहकर आपके कहे पर चिंतन और मनन कर सके।
अंततः 153 पन्नों में आबद्ध 145 कविताओं यानी लव नोट्स से बुना गया प्रेम का पंचतंत्र पढ़ते-पढ़ते एक ऐसा मंत्र दे जाता है जो हमारी पांचों कर्मेंद्रियों के साथ ही पांचों ज्ञानेंद्रियों को प्रेम के सात्विक और शुचित्व रस से सराबोर कर आत्मिक तुष्टि प्रदान करने में सफल होता है। रश्मि प्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित इस संग्रह के आवरण पृष्ठ को प्रसिद्ध चित्रकार मंजुला चतुर्वेदी जी की कूची से निरूपित चित्र से अभिराम बनाया गया है। वर्तनी दोष से मुक्त, रूपक और अनुप्रास जैसे अलंकारों से युक्त यह संग्रह नि:संदेह संग्रहणीय, पठनीय और जीवन में उतारने योग्य व्यवहारिक दर्शन से ओतप्रोत है। श्री राजेश्वर वशिष्ठ जी को बहुत बधाई और प्रेम को इस विस्तृत रूप में हम पाठकों तक पहुंचाने के लिए आभार।