कविता के लिए मुख्य रूप से एक दृष्टिकोण की जरूरत होती है जो गहरी संवेदना के साथ जीवन के अनुभवों और मानवीय सरोकारों को सच्चाई और प्रतिबद्धता से अभिव्यक्त कर सके । इस गहन दृष्टि के साथ स्त्री रचनाकार अस्मिता के संकट में और निर्मम होते समय में जब अपनी पहचान और अस्तित्व का संघर्ष करते हुए कविता में प्रस्तुत होती है तो इतिहास में सदियों से चला आ रहा पितृसत्तात्मक भेदभाव और स्त्री-शोषण का अमानवीय रूप बेनकाब हो जाता है । हिंदी की समकालीन स्त्री- कविता के परिदृश्य में आज नयी पीढी की युवा कवयित्री रश्मि भारद्वाज इस संवेदनशील मानवीय दृष्टि से संपन्न एक सशक्त और सक्रिय उपस्थिति हैं जिनकी कविताएँ अनेक नयी संभावनाओं की दस्तक हैं । उनकी कविता स्त्री के पक्ष में बोलने वाली प्रखर आवाज़ है जिसमें संघर्ष के साथ ही उम्मीद के सजग-सचेत स्वरों की भी अनूगूंज स्पष्ट सुनाई देती है।
कवयित्री रश्मि भारद्वाज का पहला कविता- संग्रह ‘ एक अतिरिक्त अ’ शीर्षक से भारतीय ज्ञानपीठ से नवलेखन पुरस्कार से अनुशंसित और प्रकाशित कृति है जिसका युवा स्त्री-कविता में बहुत स्वागत हुआ है । व्यक्ति और समाज से जुड़े सभी विषयों और अनुभूतियों को कवयित्री की संवेदनशील दृष्टि ने इतने मार्मिक तरीके से इन कविताओं में उकेरा है कि पाठकों को अपनी आत्मीयता से प्रभावित करनें में ये कविताएँ समर्थ हैं। इन कविताओं में जीवन के सभी रंग और भावबोध हैं जिनमे तमाम निराशा, दुख और अवसाद के बावज़ूद स्त्री की अस्मिता के प्रश्नों को उठाने का साहस है, दैहिक और मानसिक शोषण का प्रखर विरोध और उसके अधिकारों का आह्वान है। इनमें स्त्री को समाज की पितृसत्तात्मक संरचना से मुक्त करने, सच्चे मानवीय संबंधों और प्रेम की तलाश के साथ ही अस्मिता की नयी परिभाषाएँ गढ़ने की बेचैनी है । लीक से हटकर इन कविताओं में अपनी बात कहने का मौलिक तरीका है जो रचनाकार रश्मि भारद्वाज ने भूमिका मे भी व्यक्त किया है- ‘ मेरी लेखनी भी तभी सार्थक होगी अगर मेरी बेचैनी, मेरी तलाश बस मुझ तक नहीं सिमट जाए, उसका कुछ अंश आप तक भी पहुँचे।…वह जिसका अब तक रचा जाना शेष है, उसके होने से ही शेष है, मुझमें मेरा होना।‘
पहली कविता में ही कविता को हताशा, सवाल और उम्मीद का एक साथ पर्याय बताने वाली यह पुस्तक एक मनुष्य के भीतर दबे उस अवसाद, दुख और बेबसी को कुरेद देती है जिसका सामना हमें न चाहते हुए भी कई बार करना पडता है । यह विवशता और अनुभव की निराशा जिस मानवीय सामर्थ्य को जन्म देती हैं उनमें रश्मि की कविता उसी गहरी नाउम्मीदी से उम्मीद बनकर पैदा होती है । उनकी कविता में जिस विराट दु:ख की अभिव्यक्ति है उसके अनुपस्थित रहने पर शायद उस बड़ी कविता की रचना नामुमकिन है जो मानवीय संवेदनाओं से गहरे जुड़ी हैं –
जब बदला नहीं जा सकता कुछ भी
तो उपजती है कविता
हताशा है कविता
जब दफन कर दिए जाएँ सारे प्रश्न
और चीखने लगें सन्नाटे
घायल करने लगे खुद को अपना ही मौन
तो लिखी जाती है कविता
सवाल है कविता
उम्मीद है कविता
कविता उस जीर्ण समय की रस्सी पर खुद को टिकाए रखने का है जतन
जिसके एक ओर अंत है
और दूसरी ओर हार ।
इस कविता संग्रह में आखिरी कविता तक निराशा और शिकस्त का जो स्वर गूँजता है वह सिर्फ कवयित्री की निजी हताशा नहीं बल्कि हमारे अपने समय का नि:संग अवसाद है जो जीवन और समाज के विभिन्न पहलूओं से जुड़ा है । स्त्री कवि के रूप में इनसे आँख चुराना संम्भव नहीं बल्कि अवसाद से मुक्ति की आशा करता एक रागात्मक मन है जो जीवन के सारे अनुभवों को बहुत तरलता से इन कविताओं में पाठकों के सामने रखना चाहता है । इसलिए ये कविताएँ ज़िन्दगी के सच को बहुत करीब से जीती नज़र आती हैं । इन कविताओं का अनुभव संसार बहुत व्यापक है क्योंकि नयी कविता की मुक्ति स्त्री मुक्ति के साथ मानव मुक्ति का भी अटूट अंग है और कवयित्री का स्वर इस सामूहिक वृहत्तर संवेदना में जाकर मिल जाता है । इन कविताओं में विचार और संवेदना का अनूठा सामंजस्य है जो इस पुस्तक के शीर्षक ‘एक अतिरिक्त अ’ से ही शुरु हो जाता है । इस शीर्षक की दोनों कविताएँ इतिहास और समाज पर हमेशा हाशिये पर पड़े वंचित मनुष्यों की मुख्य धारा से अलग अतिरिक्त कही जाने वाली उन अस्मिताओं की उपस्थितियों की पीड़ा और बेबसी को उभारती है जिन्हे कभी समानता का, न्याय का अधिकार नहीं मिला-
वे जो लय में नहीं
उनके सुर में नहीं मिला पाते अपनी आवाज़
उनमें भी दफन होता रहता है एक इतिहास
जिसे पढ़ने वाला बहिष्कृत हो जाता है
देवताओं के बनाए इस लोक से
देवता जो विजेता हैं
एक उपसर्ग मात्र से बदलती हैं भूमिकाएँ
साल दर साल ज़िंदा जलाया जाने की तय हो जाती है सज़ा
बस एक अतिरिक्त अ की खातिर
वे जो सुर में नहीं रहते हैं
इतिहास में।
समाज में हाशिए पर रहने वाले लोगों की त्रासदी का यथार्थ, अपनी मूलभूत आकांक्षाओं से विस्थापित- निर्वासित अस्मिताओं के कटु अनुभव, दुख-तकलीफ और शोषण के प्रति भी कवयित्री का स्वर आक्रोश के साथ -साथ संवेदना से आप्लावित है-
दुनिया की तमाम पवित्र जगहों पर कतारबद्ध प्रार्थनाएँ
अक्षमताओं की त्रासद कथाएँ हैं
बेबस पुकारों से प्रतिध्वनित है ब्रह्मांड ।
इन कविताओं का अनुभव संसार बहुत व्यापक है जिसमें महानगरों के जीवन की उपस्थिति में साँस लेते हुए भी कस्बे या छोटे शहर की स्मृतियाँ अंतर्धारा की तरह व्यक्ति की चेतना में बहती रहती हैं । स्त्री-जीवन के सभी जटिल आयाम, संघर्ष और अनुभव बहुत संवेदनशील, मार्मिक और सहज रूप से इन कविताओं में व्यक्त हुए हैं जिनमें स्त्री मन के अंतर्द्वंद्व से जुडे सभी संवेगों- भावों का गहन समुद्र जैसे विशाल लहरों की तरह उमड़ कर चला आता है । इनमें शामिल देवी, वह कुछ नहीं कहेगी, माफ करना मुझे, मेरा शहर, आसान होगा फिर औरत होकर जीना, थोड़ा सा कुछ अपना, बिजूका, माँ से कभी नहीं छूटता है घर, वह नहीं देखती आसमाँ के बदलते रंग, चरित्रहीन, अपशगुन जैसी सभी कविताएँ ऐसे महसूस होती हैं जैसे वह स्त्री की समकालीन विडंबनाओं, त्रासदियों का जीता जागता प्रतिबिंब हो जिसको सदियों से शोषण और भेदभाव के अमानवीय पर्दे में अब तक छुपाया जाता रहा है । इन कविताओं में वह क्रूर सच बेनकाब होता है जो धर्म, परम्परा और चरित्र के आधार पर पितृसतात्मक व्यवस्था में अभी तक स्त्री के लिए तय किया जाता रहा है और कविता के वास्तविक मर्म का अंदाज़ा पाठक को इन कविताओं से हो जाता है-
कच्ची मिट्टी सी होती हैं अच्छी बेटियाँ
गढा जाता है उन्हें ताउम्र जरूरत के हिसाब से
माफ करना मुझे
कि मैंने नहीं सुनी तुम्हारी सीख
दरअसल मैंने सुन ली थी
उन घरों की नींव में दफन
सिसकियाँ और आहें
कि मैंने समझ लिया था कि
उन दीवारों में चुनी जाती हैं कई ज़िंदा ख्वाहिशें ।
भूमंडलीकरण के प्रभाव से स्त्री का संघर्ष अब इकहरा न होकर अधिक जटिल हो चुका है जिसमें उसके अस्तित्व को अनेक जगहों पर जिन चुनौतियों से जूझना पड़ता है वह आज की स्त्री का भी सच है । इनमें अवसाद मुक्ति है, मेरा शहर, भारहीन, एक मृत्यु नींद के बाद, दु:ख कहीं जाता नहीं, तुम मुझे वहाँ ढूंढना, इसे प्रेम ही कहेंगे शायद, रूकता नहीं है कुछ भी, भाषा से कविता, हमें झूठ कहना नहीं आया और आत्मा के बंद कपाट जैसी कविताओं में अपने सपनों के टूटने की पीड़ा और परिवेश की विसंगतियों से अनवरत लड़ते हुए जीने की जद्दो-जहद है।
हिंदी के प्रख्यात कवि ‘मंगलेश डबराल’ ने इस पुस्तक के आवरण पर लिखा है-
‘’रश्मि भारद्वाज की कविताओं में मानवीय दु:ख अपने को प्रचारित नहीं करता, बल्कि अपनी विविध छवियों के साथ ‘किसी की अनुपस्थिति में खुद को सहेज लेता है- हमेशा उपस्थित रहने के लिए।‘ ऐसे दु:ख में एक अंतर्निहित शक्ति चमकती है । मिर्ज़ा गालिब ने कभी कहा था- मैं हूँ अपने शिकस्त की आवाज़ । रश्मि की जो कविताओं में निराशा और शिकस्त का जो षडज बजता रहता है वह इस तरह है-
सबसे एकाकी लोगों ने नहीं झांका था कभी अपनी आत्मा के अंदर
वे जो अंधेरों में घिरे थे, रोशनी के असली चेहरे पहचानते थे
बहुत हिम्मती लोग जागते थे अपने दु:स्वप्नों में
नींद में सुनते थे अपने रोने की आवाज़
सबसे हारे हुए लोगों ने रची सबसे भव्य विजय गाथाएँ
टूटते ,थकते रहे
लेकिन पन्नों पर रचते रहे प्रेम और जीवन ।
यह हताशा सिर्फ अपनी नहीं, बल्कि अपने समय की निर्ममता और उदासी है । ऐसे कई अनुभव इन कविताओं में हैं जो बतलाते हैं कि रश्मि विचार और संवेदना के अच्छे सफर पर है ।‘’
‘एक अतिरिक्त अ’ में जीवन को उसके सभी रंगों के साथ, स्त्री के अस्तित्व की गरिमा और शोषण मुक्त समाज में उम्मीद और प्रेम को खोजते हुए जिन चिंताओ और प्रश्नों को शब्दों के साथ कागज़ पर उतारती हैं ,वह स्त्री के अस्तित्व का भी संघर्ष है । आत्मानूभूति के स्तर पर सघन, सच्ची और सभी क्षणों को जीती हुईं यह कविताएँ समकालीन युवा स्त्री- कविता में एक नयी दृष्टि, संभावना और सार्थक हस्तक्षेप मानी जा सकती हैं जिसमें हमारे समय की संवेदना के साथ स्त्री का यथार्थ भी दर्ज़ है –
कुछ भी हो
जब तक जियेगी, वह टूटेगी नहीं
जीने के बहाने गढ़ती ही रहेगी
अपने सपनों के घर में
उम्मीदों के नए रंग सजाकर
फिर अकेली ही उसे निहारेगी
वह शिला सी मजबूत औरत ।