समकालीन स्त्री कविता अपनी संरचना और अभिव्यक्ति में अधिक व्यापक, उदार दृष्टिकोण को केंद्र में रखती है। जिसमें स्त्री मुक्ति को मानवीय मुक्ति के समानांतर रख कर ही इसके मूल प्रश्नों और चिंताओं पर विचार किया गया है। यह भावनात्मक स्तर पर ही नहीं, बौद्धिक और तार्किक आधार पर भी वृहत्तर चुनौतियों से संघर्ष करती कविता है जिसकी परिधि में निःसंदेह स्त्री के मानवीय अस्तित्व की स्वतंत्रता के समकालीन विमर्श को ध्यान में रखा गया है।
युवा कवयित्री, रश्मि भारद्वाज का नया कविता संग्रह सेतु प्रकाशन से आया है। स्त्रीवाद की वैचारिकी के साथ ही स्त्री के व्यैक्तिक – सामाजिक अस्मिता की मुक्ति को ये कविताएँ जिस रूप में दर्ज करती है वह एक सार्थक हस्तक्षेप है।
रचना प्रक्रिया की दृष्टि से यह दूसरा काव्य संग्रह उनकी सर्जनात्मक संवेदना और स्त्री काव्य चेतना का विस्तार है जिसमें उनकी परिपक्व सोच और शिल्प का भी निरंतर परिष्कार हुआ है। ये कविताएं स्त्री मन से सीधा और आत्मीय संवाद करती है जिसे अपने जटिल परिवेश और जीवन में कवयित्री ने बुनियादी रूप से अनुभव किया है। इस संग्रह की कविताओं को जिस रूप में वर्गीकृत किया गया है वह स्त्री के संघर्ष और जीवन दर्शन की क्रमिक यात्रा है जिसमें साझे, सामूहिक स्त्री जाति के स्वप्न और अस्तित्व की मुक्ति की तलाश है। इस प्रक्रिया में महानगर के जीवन की विडंबनाओं, एकल स्त्री की समस्याओं, दो पीढ़ियों के बीच मूल्यों का द्वंद्व, विस्थापन, पर्यावरण , व्यवस्था जैसे समसामयिक विषयो के साथ ही सुख, दुःख, प्रेम की मानवीय सवेदनाओँ को देखने, परखने की आधुनिक दृष्टि है। लैंगिक आधार पर विभाजन की त्रासदी पर, यौनिकता पर लिखी गई कविताओं में अनुभव की ईमानदारी और सच्चाई स्पष्ट है जिसमें देह मुक्ति के अतिरिक्त वैचारिक स्वतंत्रता को बनाए रखने की स्त्री रचनाकार की प्रतिबद्धता और दायित्व के लिए भी ये कविताएं प्रतिबद्ध हैं।
इस संग्रह की कविताओं में स्त्री के अंतर्द्वंद्व में परंपरा और आधुनिकता की टकराहट के बीच अपने विकल्पों और निर्णयों को खोजने का विद्रोह लीक से हटकर स्त्री कविता की जरूरत है। एक वैश्विक स्त्री की मानवीय गरिमा को अपनी काव्य चेतना के केंद्रबिंदु में रखते हुए निर्मम और हिंसक समय में यह स्त्री के पक्ष में बोलने वाली कविताएं हैं। भूमंडलीकरण के बाद स्त्री का संघर्ष अधिक बहुआयामी और शोषण के तरीके भी चुनौतीपूर्ण हुए हैं लेकिन कहीं भी पराजय को स्वीकार न करते हुए प्रतिरोध का स्वर भी उतना ही सजग हो कर इन कविताओं में सामने आता है:
दुख का रंग स्याह है
तुम्हारे दुख उनके किसी काम के नहीं
उन्हें उजास के रंग चाहिए
हाँ, उस दुख को तुमने कैसे बरता
तुम तार तार हुए कि साबुत बचे
यह उनके काम की चीज़ है
उन्हें यह जरूर बताना।