हस्तक्षेप
मध्यांतर: कविता में इंसानियत की तहज़ीब का आख्यान
[मानवीय मूल्यों के विघटन, विखण्डन और संक्रमण के इस दौर में आदमी होने का मतलब स्पष्ट करने की एक अत्यंत प्रभावशाली रूप से श्लाघनीय कोशिश है अनंत सम्भावनाओं से लबरेज़ इस कवयित्री प्रीति ‘अज्ञात’ के द्वारा अपनी अब तक रचित समस्त कविताओं का यह एक बेहद पठनीय ‘मध्यांतर’ शीर्षकांतर्गत यह बेजोड़ संकलन]
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चलते-चलते अचानक
नीचे झुक कर
सड़क की धूल से
उठा लेता हूँ:
एक शब्द!
और पाता हूं, कि:
अरे….! गुलाब…!
(अकाल में सारस/ केदारनाथ सिंह)
बा-मुश्किल शुरुआती चार या पांच कविताएँ पढ़ी होंगी मैंने, प्रीति ‘अज्ञात’ विरचित ‘मध्यांतर’ नामक पचासी छोटी और मध्यम लम्बाई की हिंदी कविताओं (कुछेक स्वतंत्र ग़ज़लनुमा नज़्मों, गीतों व नवगीतों-सहित) के इस संकलन की, जबकि पढ़ी जा रही इस चीज़ के बरअक्स मेरे हृदय और मानस में उथल-पुथल मचाना शुरू कर चुकी अनुभूतियों के मानो आवाहन पर ही मस्तिष्क-पटल पर उभरती है श्री केदारनाथ सिंह, विरचित यह लघु-कविता! …और अब, जबकि पिछले पाँच दिनों में छः बार पढ़ चुका हूँ इस किताब को –हर बार आद्योपांत, बगैर एक शब्द भी स्कीप किए– ‘सड़क, धूल और गुलाब’ के त्र्यंबक का बिम्ब शिद्दत के उसी गाढ़ेपन में ताजा है मेरी बौद्धिक-आध्यात्मिक-साहित्यिक-सौंदर्यात्मक अनुभूतिओं के अनंताकाश में, जैसे अभी-अभी कौंधा हो अपनी पूरी उत्कटता में बारिश के बाद वाली ठंडी मद्धम धूप में अपनी मंत्रमुग्ध करती सप्तरंगी छटा के चरम शबाब में उगे हुए इन्द्रधनुष के जैसी!
सुधि पाठक, वह सड़क है: अभिव्यक्ति-सामर्थ्य, विषय-बहुलता और वैचारिक-सरोकारों के विस्तार के पैमाने पर हिन्दी-साहित्य की सरज़मीं पर पनपी अब तक की सर्वाधिक सम्भावनाशील और सर्वोत्कृष्ट काव्य-धारा नई कविता के सृजन की; धूल है: सृजनधर्मिता के नज़रिए से अपनी सर्वोच्च उर्वरता के दौर से गुज़र रही इस काव्य-धारा में अभिव्यक्त आवाज़ों की, और उनकी प्रतिध्वनियों की और संदर्भगत वादों-विवादों-परिचर्चाओं के निरंतर परस्पर संघर्षण से उत्पन्न शब्दों और विचारों की। और तब, साहेबान, वह गुलाब और कुछ नहीं, वरन हमारी ही पीढ़ी की उंगलियों पर गिनी जा सकने वाली संख्यात्मक विरलता में अपने-अपने विशिष्ट रचनात्मक उद्यम में खुद को समर्पित की हुई चन्द सर्वोत्कृष्ट सम्भावनाओं से लबरेज़ युवा प्रतिभाओं में से एक- प्रीति अज्ञात, की अब तक की लिखी कविताओं का अभी-अभी प्रकाशित संकलन: मध्यांतर!
बेशक, विद्वान पाठक, ‘मध्यांतर’ ही है वो गुलाब जो हिंदी के युवा-काव्यकर्म की इस घोर-कुव्यवस्थित और बरगलाती हुई मात्रात्मक बहुलता की भीड़-भड़क्कम से ठसाठस उस सड़क पर मेरे हाथ लगा! और इस किताब के साथ हुई अपनी पाठकीय मुठभेड़ को और किसी तरह तरह से बता ही नहीं सकता मैंने, सिवाए ऐसे कि अपनी लापरवाह बे-ख़याली में सड़क पर चलते-हुए अचानक ही दिखी एक खूबसूरत-चीज़ की तरह से हाथ लगी है वह मेरे… और जैसे ही भान हुआ कि वैसे विरल संयोग से मेरे हाथ लगी वो चीज़ आखिर थी क्या, कि एक हर्षोन्माद-मिश्रित-आश्चर्य के अतिरेक में स्वत: ही फूट पड़ता है मेरे मुँह से, कि: अरे! गुलाब!
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विचार करते हैं कि आखिर कोई भी काव्य-रचना किन विशेष कारणों या तत्वों से श्रेष्ठ कोटि की कविता कहे जाने लायक होती है? प्रश्न गंभीर ही नहीं, मतभिन्नता-युक्त भी है; क्योंकि यह विषय जितना काव्य-तत्व से संबद्ध है, उतना ही उसके सौंदर्य-पक्ष और रचना-प्रक्रिया से भी। लेकिन, सामान्यतया हम उन कविताओं को अच्छी कहते ही हैं जिनका सरोकार जन से हो, जो जीवन के पक्ष में खड़ी हो और जो लोक, संस्कृति और मानवीयता का तिरस्कार करती हुई कारकों के विरोध में खड़ी हो। इस विषय में प्रसिद्ध मार्क्सवादी समालोचक डॉ. जीवन सिंह का विचार है: “कविता महान बनती है अपनी तात्विकता से। जीवन-तत्वों की खोज में वह जितनी गंभीर, व्यापक, सहज और अनुभव-समृद्ध होगी, वह उतनी ही महान होगी। वही कवि जा पाया है महानता की ओर, जो प्रचलित रुढ़ियों से टकराता हुआ पार्थिव-जीवन के इस सागर से वास्तविकता और सत्य के मोती ढूंढकर लाता हो, जिसमें ऐसे सत्यों का संधान करने की कुव्वत हो, जिसमें लोकरक्षण और लोकरंजन की संतुलित शक्ति एक साथ हो, जो अपनी ज़मीन का पता देती हो और अपने समय की संस्कृति को रुपायित करने के केंद्र में हो।”
इस सन्दर्भ में हम अनेक भिन्न-भिन्न दृष्टियों से अलग-अलग समालोचकों द्वारा प्रतिपादित विचार-विथियों को समेकित करें, तो कह सकते हैं कि कवि की संवेदन-क्षमता, कल्पना की संश्लेषण-शक्ति, बुद्धि की विश्लेषण-शक्ति और अभिव्यक्ति-सामर्थ्य की ऊँचाई से लोक के लिये लिखी गयी कविता, जो पूंजी के महत्व को नकार कर मनुष्यता की संस्कृति की रचना में उद्धत हो, और उत्पीड़ित मानवता के पक्ष में खड़ी हो, वह निश्चित रूप से ही श्रेष्ठ कविता की श्रेणी में गिने जाने योग्य है।
और अब, प्रश्न यह है कि ‘मध्यान्तर’ में संकलित प्रीति ‘अज्ञात’ की तमाम कविताओं का समेकित स्वर क्या है? और इसका बेझिझक जवाब है: एक सरल-सुंदर-शुद्ध और अत्यंत-संवेदनशील मानवतावाद!
हाँ, मानवतावाद ही तो है यह! निर्विवाद तौर पर अपने समेकित स्वर और अपनी केन्द्रीय विषय-वस्तु में प्रीति ‘अज्ञात’ की लेखनी पूर्ण रूप से मानवतावादी है। और साथ में यह भी, कि इसका मानवतावाद किन्हीं परम्परा-पोषित मिथकों व मिथ्या आदर्शों की हवाबाज़ परिकल्पनाओं पर आधारित न होकर अपनी यथार्थ-दृष्टि से मनुष्य को उसके पूरे परिवेश में समझने-आँकने का बौद्धिक प्रयासों से उपजा है। मानवमात्र की उलझी हुई संवेदनाओं और संघर्षों की प्रकृति को कवयित्री, चेतना के विभिन्न स्तरों तक अनुभूत परिवेश की व्याख्या के ज़रिये सामने लाने की कोशिश में लगी है। यानि, प्रीति ‘अज्ञात’ की कविताएँ मनुष्य को किन्हीं कल्पित सुन्दरता और मूल्यों के आधार पर नहीं, बल्कि उसके तड़पते दर्दों और उसकी संवेदनाओं और सरोकारों के कलेवर और उनकी गहराई के आधार पर बड़ा सिद्ध करने की कोशिश में रहती हैं। यही उसकी सबसे सुस्पष्ट लोक-सम्पृक्ति अथवा जनोन्मुखता है।
सो, ‘मध्यांतर’ की तमाम कविताओं में हम पाते हैं कि मानवीय अनुभवों और उनके सूक्ष्मतम निहितार्थों के साथ-साथ मानवीय गतिविधिओं की अलग-अलग परिधियों और पड़ावों के मार्मिक-पीड़ाप्रद अनुभवों-प्रसंगों को उभारने वाले बिम्ब हैं। मानवीय सरोकारों के निरंतर फैलते हुए क्षितिज को रेखांकित कराती हुई यह बिम्ब-रचना उनकी कविताओं की एक दुर्लभ विशेषता बन गई है। कठोर अनुभव और सच्चाईयों से लबरेज़ यह बिम्ब कविता में धीरे-धीरे ढलते और पिघलते हुए एक आंतरिक संगीत की सृष्टि करते हैं।
‘मध्यांतर’ की कविताओं में आप पाते हैं: ‘अंतर्मन में लगातार संचित हुई जा रही पीड़ा’, ‘एक बोरी आँसू’; ‘वक्त की तंग गलियों’ में ‘रूंधे गले से कहे गए कंपकपाँते हुए-से शब्द’, ‘उम्मीदों का गला रेतने की चुनौती देता हुआ विद्रूप तंज’, और ‘पाइथागोरस के प्रमेयों की तरह से उलझे-क्लिष्ट रिश्तों के समीकरण’। एक तरफ आप देखते हैं ‘स्वार्थों और लिप्साओं की मौकापरस्ती के द्रव में घुलता हुआ मानव-जीवन’ तो दूसरी तरफ आप सुनते हैं ‘समस्त अराजकताओं और विभीषिकाओं से पूर्णतया मुक्त भारतीयता’ की आकांक्षा का स्वर भी- अपनी प्रत्याशा की पूर्ण-जीवटता में मौजूद। एक तरफ यदि ‘नागफनी के सुरक्षित घोंसलों में सड़ांध मारते शब्दों की उबकाईयां हैं’, तो ईश्वर से उस तरह की प्रतीति वाली इंसानियत के पुनर्निर्माण की प्रार्थना भी है कि ‘जिसमें सभी लोग सिर्फ “मेड बाय गॉड” के लेवल से ही पहचानें जाएँ’, किन्हीं मानव-निर्मित जातिगत अथवा सम्प्रदायगत ठप्पों से नहीं।’ एक तरफ यदि यह शोकगान है कि ‘अंततः एक दिन/ खुद ही रीत जाता/ इच्छाओं का समन्दर/ जिसमें तड़पकर/ आस की अनगिनत मछलियां/ चुपचाप दम तोड़ देतीं हैं! (पृ०.152); तो वहीं दूसरी ओर एक अदम्य जीवेषणा और जिजीविषा की ऐसी स्वर्णिम अभिव्यक्ति भी है कि ‘सुबह हुई है अभी/ रात की गुमसुम कलियां/ खिलखिला रहीं बेवजह।’ (पृ०.84)! और फिर, इन सबके अलावा है सभी उत्पीड़नों और विद्रूपताओं के मध्य जीने की जद्दोजहद में लगा हुआ एक अदना-सा, मगर अदम्य जीवटता से लबालब, अंकुर- मानवीय आशाओं का… कि जिसमें अपने चारों ओर की विषम परिस्थितिओं से भी जीवन-रस को खींच लेने का माद्दा है, अपने अस्तित्व को पहचानने की कोशिश और कशिश है, और जो विपरीत परिस्थितियों की आंखों में आंखें डालकर उन्हें यह चुनौती भी देने का दम रखता है कि: ‘जिंदगी परेशां है कि हम क्यूं परेशां नहीं!’ इन कविताओं में समय का एक तीखा बोध भी है, क्योंकि कवि ने देख रखी है इस गलीज जिंदगी की सारी घृणास्पद हिकायतें… उनकी पूर्ण उत्कटता में:
मैनें देखें हैं
सपने बनते हुए लोग
और ढहते हुए ख्वाब
जगमगाती हुई एक रात
और सिसकते हुए जज़्बात
मचलते अरमान
टूटता आसमान!’ (पृ०.59)
लेकिन जैसा कि पुस्तक के प्राक्कथन में प्रीति ‘अज्ञात’ के रुप में हिंदी काव्य-जगत को मिले इस अनंत सम्भावनाओं से सिक्त युवा कवयित्री का स्वागत किए जाने का आह्वान करते हुए वरिष्ठ समालोचक श्री लक्ष्मीशंकर वाजपेई ने, परिस्थितियों के विरूद्ध क्षोभ और आक्रोश के बावजूद भी कवयित्री निराशा और विषाद के आधिक्य में उनसे हार मान कर बैठ जाने की बजाय उनसे लड़ना और जूझना अधिक सार्थक समझती है; क्योंकि संघर्ष की यह चेतना और उसकी अभिव्यंजना की ये कोशिश ही ‘एक कवि का कर्तव्य भी है और उद्देश्य भी’ और संघर्ष-चेतना की यह अदम्य जीवटता मिलती है कवयित्री को उनके देखे ‘उम्मीदों के सूरज’ (पृ०.69) से… उनके देखे ‘उम्मीदों के पाराशूट’ (पृ०.107) से।
और फिर, इस तीखे समय-बोध को स्पष्टतया समझ जाने और समझा देने के पश्चात कवयित्री उसकी नब्ज पकड़कर उसके पार और उससे परे जाने का अपना दर्शन सौंपती हैं पाठकों को भी… सुझाती हैं उन्हें उस दुनिया की आकांक्षा कि जिसमें:-
न क़िस्मत की पीर हो
न आंखों में नीर हो
न शब्दों का वार हो
न रिश्ता- व्यापार हो
न कोई जीत-हार हो
… …
न वक्त की मार हो!
न पैसों की चाह हो
न अंधी ये राह हो (पृ०.32)
स्पष्ट है कि समाज में परिवर्तन का आह्वान करती हुई कवयित्री की इस दृष्टि से दुनिया देखता हुआ मन चिंतन को विवश हो उठता है और एक सकारात्मक समाज में जीने की उम्मीद कर बैठता है। और इसी उम्मीद को हवा देती हैं कवयित्री, इसी उम्मीद की पैरोकारी करती हैं… क्योंकि, पाश के शब्दों में, आदमी के साथ सबसे बुरा तो यही हो सकता है न: “उसके सपनों का मर जाना”… उसकी उम्मीदों का नेस्तनाबूद हो जाना? और इसीलिए कहती है कवयित्री, कि:
मैं छोड़ती नहीं हूँ उम्मीद
उम्मीद के खत्म हो जाने पर भी
नहीं रहती मौन
शब्दों के चुक जाने पर भी
हँसती हूँ व्यर्थ ही
हँसी न आने पर भी
पुकारती हूँ गला फाड़
अनसुना कर दिए जाने के बाद भी। (पृ०.52)
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प्रीति ‘अज्ञात’ के कविताओं की एक अत्यंत श्लाघनीय खासियत है उनकी जीवनानुभूतिओं की सच्चाई… कि, एक बार पुनः श्री लक्ष्मी शंकर वाजपेई के ही शब्दों में, उनकी कविताओं को पढ़ना “एक सम्पूर्ण जीवन जिया जाता हुआ देखना है!” और मैं जोड़ता हूं इसमें यह, कि “इनकी कविताओं को पढ़ना न सिर्फ जिंदगी को सामने से देखना ही है, बल्कि इन कविताओं से होकर गुजरना स्वयं ही जिंदगी से होकर गूजरने के जैसा भी है!”
एक प्रभावशाली काव्य-कृति के बन पड़ने की, प्रो० रामचंद्र के शब्दों में, कि एक और शर्त यह है कि “कवि जब तक अपनी कविता में सामूहिक सच्चाइयों के व्यक्तिगत भोग को आत्मसात कर प्रस्तुत नहीं करता, तब तक उसकी कविताएं खुद से अपना सही अस्तित्व खड़ा नहीं कर सकतीं! कवि के अनुभव जब पाठकों को भागीदार बनाते हैं, तभी काव्यात्मकता की जान अपनी पूरी धज में आ पाती है सामने!”
तो इस सन्दर्भ में, पाठक को स्पष्ट दृष्टिगोचर होगा कि प्रीति अज्ञात की कविताओं में सन्निविष्ट लगभग समस्त काव्यानुभूतिओं और अवबोधनों की प्रतीति भी ऐसी ही है मानो वे खुद कवयित्री के ही अंतरंग रूप से निजी जीवनानुभवों और सीधे-तौर पर भोगे गए यथार्थ का ही भाषिक तर्जुमा हों। इनकी कविताओं का अंतरंग– यानी उनका केन्द्रीय वैचारिक पक्ष– अत्यंत धीर-गंभीर, अर्थपूर्ण, तर्कसंगत और मन की गहराईयों से स्फुटित हुए होने की प्रतीति देने के साथ-साथ एक सामान्य पाठक को भी एक ऐसे भावलोक में ली जाने में सफल हो जाया करतीं हैं कि जहाँ पहुँचकर उनकी कवितायेँ सिर्फ अपनी खुद की ही न रहकर पाठकों की भी हो जाया करती हैं। ऐसा तभी संभव होता है जबकि कवि सचमुच में ही अपने वैचारिक-कर्म के प्रति सद्यः-ईमानदार रहा हो, और अपनी जिंदगी या अपने जीवनानुभवों की गहराईओं में डूबकर ही रचा हो अपनी रचना का अंतरंग; बहुत कुछ टटोलकर और उसमें से सिर्फ सर्वश्रेष्ठ ही चुन-छाँटकर ही प्रस्तुत कर पाने में सफल हो पाया हो अपने सम्प्रेष्य भावों को, जिससे कि कथ्य, कथन, शिल्प और भाषा– सभी एकाकार होकर साकार होते दीख पड़ें कविता की वैचारिकी में, निःशब्द सोच, शब्दों का सहारा लेकर चलने-बोलने लगें, और एक बहुअर्थी अथवा एक बहुस्तरीय अर्थान्विति की बेहद असरदार भंगिमा में ही सामने आएं। प्रीति अज्ञात की कविताओं का मानवतावाद ऐसा है, उनके काव्य-संसार में उद्गारों, अवबोधनों, अनुभूतिओं, विचारों, अनुभवों, मानवीय-सामाजिक-राजनितिक सरोकारों, और व्यक्तिगत स्तर पर मानवीय पीड़ाओं की अभिव्यक्ति इतनी सहज, इतनी परिष्कृत और इतनी सच्ची और ईमानदार है कि, एक कवयित्री के तौर पर वो अपने दर्द को भी इस प्रकार से बयां कर पाने में सफल हो जाती हैं जैसे वो आम-आदमी का दर्द हो। इस स्तर के काव्यानुभव में अपने विचारों और अपनी अभिव्यक्ति को ढाल पाने के लिए रचनाकार को जीवन पथ पर उम्र के मौसमों से गुजरना होता है। और प्रीति में स्पष्ट परिलक्षित होता है उनका गहरा जीवनानुभव, भले अभी उम्र कम ही क्यों न हो।
मानवमात्र के, या विशेष रूप से– पीड़ित और संघर्षरत मानवमात्र, के भावों और अनुभूतिओं के विभिन्न रंग, विचारों के चेतन और अवचेतन तरंग, बिम्बों और दृश्यों की गति, संवेदनाओं के सूक्ष्म कोलाज़, काव्यात्मक वैचारिकता के पीछे का भाव और उस भाव के पीछे की पीड़ा तथा उस पीड़ा का मानवीय सन्दर्भ: ये सब स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं प्रीति अज्ञात की कविताओं में। मनः स्थितिओं को शब्दों में उकेरने और उन्हें अनुभूतिओं में ढालने की प्रक्रिया इतनी स्वतः-स्फूर्त, इतनी अनायास, सहज, मानवीय और मनोवैज्ञानिक है की संवेदनशील पाठकों की आँखों से छूट पाना असंभव ही है “मध्यांतर” की कविताओं का यह गुण। बाह्य जीवन के संघर्षों और आंतरिक जीवन की संगीतियां इतने बेहतरीन रूप से एक दूसरे में घुली-मिली हैं कि उनसे जीवन का एक अत्यंत सुन्दर सम्मोहक स्वप्न, सौंदर्य तथा संगीत निर्मित होता है। इसीलिए ही यह भी संभव हो पाता है की आप इन कविताओं के विशेष भाव-भूमि से सहसा ही खुद को अटूट रूप से जुड़ा हुआ पाते हैं… और इस जुड़ाव के बगैर कविता को पढ़-समझ तो सकते हैं, किन्तु उसे जी पाना संभव नहीं। किन्तु, प्रीति की कविताओं में जो दर्द का, जिस पीड़ा का, मानवता के दिनानुदिन क्षरण का और उससे उत्पन्न विसंगतिओं और विद्रूपताओं का जो समन्दर है, उसमें आपको कवयित्री बड़ी ही सहजता से धीरे-धीरे उतार ही लेती हैं आपने साथ… और तभी ये भी संभव हो पाता है कि आप उनकी कविताओं की भावभूमि की गहराई और गूँज को महसूस करते हुए कविता को जी पाने में भी सफल रहते हैं। और इसीलिए, “मध्यान्तर” नामक इस संग्रह की तमाम कविताओं में सामान्य से सामान्य पाठक भी उनके पीछे की पीड़ा के संगीत को सुनता चलता है… उनके पीछे (या समस्त कविताओं को एक समेकित स्वरधारा में बांधती हुई वह चीज़ जिसे निरंतर बहती संवेदना की रागिनी के रूप में जान सकते हैं।
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हिंदी कविता की जमीन पर छंदों-मात्राओं के नियमों में आबद्ध और कृत्रिमता की हद तक जाती हुई अलंकार-जड़ित भाषा के नकार का जो सिलसिला महाकवि अज्ञेय ने शुरू किया अपने पहले “तारसप्तक” से, आज तक बदस्तूर जारी ही है! कहना न होगा, हिंदी की नई कविता प्रयोगवादी धारा द्वारा अंगीकृत छन्द-मात्रा-तुक की रूढ़ियों से मुक्त उसी भाषा-शैली की निरंतरता की ही हामी है! साथ में यह भी कि आज के दौर के यथार्थ की अति-क्लिष्ट जटिलता को नाना प्रकार की वैयाकरणिक रुढ़ियों से आबद्ध और गेय अथवा गीतात्मक तुकांतता के उद्देश्य से अभिप्रेरित उस पुरानी काव्यात्मक भाषा-शैली का प्रयोग करते हुए अपनी पूर्ण ईमानदारी और सूक्ष्मता से अभिव्यक्त कर पाना संभव भी नहीं! लेकिन, सच यह भी है कि छंद-मीटर और तुक केे बंधनों से मुक्त भाषा-शैली की पैरोकारी ने एक ओर जहां जेन्युइन कविओं को अभिव्यक्ति-सुक्ष्मता और सशक्तता की वृहत नई सम्भावनाओं के दर्शन कराए, वहीं पर मिथ्या कोटि के कवियों को भी उनकी अनगढ़, गैर-संस्कारी, गैर-प्रांजल, अपठनीय रुप से खुरदुरी, लुटी-पिटी और सपाट अभिधात्मक शैली की कच्ची गद्यात्मकता की प्रतीति देती हुई भाषा के इस्तेमाल का जस्टीफिकेशन दे दिया! कहने का तात्पर्य यह कि नई कविता के भाषिक-सिद्धांतकारों की ओर से मिली इस गद्यात्मक-प्रतीति वाली काव्य-भाषा की छूट ने वास्तव में इन कुकुरमुत्ता-ब्रांड कविओं के लिए किन्हीं ‘नई’ सम्भावनाओं के द्वार नहीं खोले, वरन उनके लिए काव्य-रचना के क्षेत्र में प्रवेश का एक आसान-सा चोर-दरवाजा ही सुझा दिया… क्योंकि वे तो उससे इतर कुछ लिख पाने में शायद ही कभी समर्थ भी थे, या हैं! यही हैं वे कवि-गण, जिन्होंने गद्य और पद्य के अंतर को ही पाट दिया है… और जबरदस्ती, बड़े ही अनगढ़ तरीके से पाट दिया है! फलत: कविताएं महज अपने खुरदुरेपन की वजह से ही घोर रुप से अपठनीय होती चली गई!
परम संतोष और श्लाघा का विषय है यह देखना कि प्रीति अज्ञात की भाषा नई कविता के इस भयानक रुप से निरुत्साही भाषाई अंदाज– जटिल वाक्य विन्यास और सुपर-सोफिस्टीकेटेड बिम्ब-विधान से लबरेज होना– से बिल्कुल ही असम्पृक्त रही हैं! उनकी भाषा सर्वसाधारण की समझ में आने वाली सरल, सुगम, मधुर और कर्णप्रिय शब्दावली से निर्मित होती है… मूलतया देशज और आम बोलचाल की शब्दावली के प्रयोग की कोशिश से! अभिव्यक्ति-सम्प्रेषण की जटिलता से पूर्णतया परहेज करते हुए ही कवयित्री ने रचा है अपनी सभी कविताओं का अंतरंग जहां कथ्यों और कथनों की बेहद सुलझी हुई पुख्तगी बहुधा आपको विस्मय की हद तक आकर्षित करती है!
एक और प्रशंसनीय पक्ष इनकी भाषा का यह है, कि बावजूद इसके कि प्रीति ने अपनी काव्य-भाषा की शैली और शिल्प के रुप में हिन्दी की “नई कविता” की फ्री-वर्स (free verse) वाली परम्परा को ही अंगीकृत किया है, इनकी कविताओं को पढ़कर सामान्य से सामान्य पाठक को भी स्पष्टतया प्रतीत होगा कि गद्य और पद्य की भाषा में अंतर है; “मध्यांतर” की कविताओं की भाषा के तुक, छंद, भारी-भरकम अलंकरण और मात्रिक नियमों से पूरी तरह आजाद रहती हुई भी एक बेहद सम्मोहक तरतीब, एक हसीन काव्यात्मक गीतात्मकता, आंतरिक गेयता और नैसर्गिक लय से भरी-पुरी है!
नई कविता द्वारा प्रारम्भ और परिचालित की जाने वाली और पाठकीयता की दृष्टि से चंद बेहद नुकसान-देह परिपाटियों में से एक यह भी है कि तुकांत होने का मतलब ही सतही होने से लगा लिया जाता है; और बिडम्बना यह है कि इस दौर का कवि तुकांतता और लयबद्धता से इस कदर हड़का और भड़का है कि इन तथाकथित भाषाई-रूढ़ियों के प्रति विरोध के प्रदर्शन में वह स्वयं ही फ्री-वर्स का कट्टरपंथी अनुयाई बन गया है… यानि, एक रुढ़िवाद के विरोध में पैदा हुआ दूसरा रुढ़िवाद! … और इसीलिए, क्या ही गजब की भाषाई सहिष्णुता से लबरेज नजर आती हैं प्रीति अज्ञात की काव्य-भाषा, कि ये दोनों प्रकार की रुढ़ियों से काफी उपर है! “मध्यांतर” में ढेरों पुरानी तुकांत शैली की लयात्मकता से भरी-पूरी रचनाएं पढ़ने को मिलतीं है… ग़ज़लों के काफिया और रदीफ के निर्वहन की प्रतीति देने वाली बेहतरीन गेयता और सुमधुर रागात्मकता से भरी-पूरी मनोहारी रचनाएं– ऐसी जबरदस्त पठनीयता और रागात्मक सौंदर्य से लबरेज़ कि पढ़ते-पढ़ते ही चढ़ जाएं जूबान पर, और उन्हें गुनगुनाने का मन हो आए! बानगी देखिए:
“जीते जी ना जान सके
वो मरने पे क्या जानेंगे?
एक मिनट को चर्चा होगी,
दो मिनट का मौन रहेगा
सोच जरा मन मेरे तू अब
सच में तेरा कौन रहेगा
पल में नजरें उधर फेरकर
दुनिया नई बसा लेंगे!
एक दिवस की पूजा होगी
तीन दिवस का रोना होगा
फिर तेरे फोटो से छिपता
घर का कोई कोना होगा
राज किया जिसने उसकी
शुद्धि करने की ठानेंगे!” (पृ०39-40)
सुस्पष्ट है, कि तुकांत लयबद्धता से संतृप्त काव्य-रचना में बेहतरीन रुप से समर्थ होते हुए भी यदि कवयित्री ने नई कविता की फ्री-वर्स-शैली को ही अपनी अभिव्यक्ति का मुख्य हथियार बनाया है, तो उसके पिछे कारण फ्री-वर्स की शैली में भाषाई अनुशासन-हीनता की सुविधा के कारण होने वाली आसानी का फायदा उठाना कतई नहीं! तो क्या उन्होंने ऐसा नई कविता की बनी-बनाई परम्परा के विरुद्ध न जाने के अपने साहस की कमी से किया है ऐसा? कतई नहीं! आप स्वयं पढ़ लें कवयित्री की यह इमानदार स्वीकारोक्ति जो कि फ्री-वर्स के इस्तेमाल की न सिर्फ उनकी, बल्कि इस दौर के किसी भी जेन्युइन कवि की, आवश्यकता की एक बेहतरीन तर्कसंगीति है:
“शब्द, रिक्त स्थान, शब्द
शब्द? शब्द..? शब्द…
क्रम टूटा, बिखरा, खो गया
बढ़ता रहा, तितर-बितर मौन,
नैराश्य की ओर
लय, राग और अनुराग से विमुख
…
हारती-टूटती जिंदगी
और है भी क्या
एक अतुकान्त कविता के सिवा.. (पृ०. 34)
जाहिर है, फ्री-वर्स की शैली प्रीति के लिए अपने कविताओं की जिंदगी से प्रतीति को ज्यादा असरदार और ज्यादा सामंजस्य-पूर्ण बना पाने और दिखा पाने के लिए है!
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स्पष्ट है कि प्रीति अज्ञात की रचनाधर्मिता ने नई कविता के अधिकांश रचनात्मक व अनुकरणीय गुणों व् प्रवृत्तिओं को बेहद श्लाघनीय तरीके से जज्ब किया हुआ है। साथ ही साथ इनकी काव्य-भाषा नई कविता धारा की भाषाई अनगढ़ता और अपठनीयता जैसे त्याज्य-अभिलक्षणों से भी पूर्णतया असम्पृक्त भी रही है। “मध्यांतर” के मानवतावाद तथा मानवानुभूतिओं की सूक्ष्म यथार्थता, उत्कट समय-व-समाज-बोध के अंकन की पर्याप्त बानगी तो हमने देख ही ली है उपरोक्त परिचय के जरिये; इसके अलावा, मध्यांतर की कवयित्री में स्पष्ट परिलक्षित होती है इनकी दृष्टि की उन्मुक्तता, कथ्य की व्यापकता, ईमानदार अनुभूति का आग्रह, सामाजिक एवं वैयक्तिक का प्रभावशाली संश्लेष, रोमानी भावबोध त्यजकर नवीन आधुनिकता और इसकी वैज्ञानिक रेसनलिटी (rationality) से सम्पृक्त भावबोध द्वारा कविता के एक नए गठन, वादमुक्तता, काव्य, स्वाधीन चिंतन की प्रतिष्ठा, नए सौंदर्यबोध की अभिव्यक्ति, अनुभूतिओं की गहनता तथा तीव्रता, राजनितिक स्थितिओं पर तीखा व्यंग्य, नए प्रतीकों-बिम्बों-मिथकों के माध्यमों से तथा मिथ्या छायावादी आदर्शवाद से हटकर नए मनुष्य की नई मानवतावादी वैचारिकता की भूमि की प्रतिष्ठा। कविताओं में निहित प्रश्नाकुलता (कौन हूँ ‘मैं’?, पृष्ठ.२२/ तुम पूछना अवश्य, पृ० ६०), संवादधर्मिता (चर्चा हो/ पृ० १५७), रोमानी भावों से सिक्त चकित-विस्मित मुद्राओं की अभिव्यंजनाएं (अनुपम पल/ पृ०१३७), व्यंग्यों और वक्रोक्तिओँ की तीक्ष्णता (सेलिब्रिटी, पृ० २८/ कौवे, पृ० १०८/ आश्चर्य में हो तुम, पृ० १३३) जैसी सतत व्याप्त खूबियां उन्हें बार-बार पढ़ने और सोचने को मजबूर करतीं हैं।
अनुभूति क्षण की हो अथवा समूचे काल ही की, सामान्य व्यक्ति या लघुमानव की हो या विशिष्ट पुरूष की, आशा की हो अथवा निराशा की, वह सब इनकी कविताओं का कथन है। समाज की अनुभुति अक्सर व्यक्ति-विशेष, अथवा स्वयं कवि, की अनुभूति बनकर ही कविता में व्यक्त हो सकती है। प्रीति अज्ञात की कविताएं इस वास्तविकता को सद्यः-स्वीकार करती हुई अपनी पूर्ण ईमानदारी से उनकी अभिव्यक्ति कराती हैं और व्यक्ति की क्षणिक या सर्वकालिक-सार्वभौमिक अनुभूतिओं को, उसके दर्द को संवेदनापूर्ण ढंग से व्यक्त करती हैं।
इन सबके मद्देनजर, मेरा अभिमत यह है कि हिंदी की नई कविता की इस अत्यंत उर्वर, समृद्ध और शक्तिशाली धारा को यदि इसकी सम्पूर्णता में देखना हो– इसकी प्रवृतियों, इसके सरोकारों, इसकी भाषागत और भावगत खूबियां, इसकी सवेदनात्मकता की दशा-दिशा, उनका घनत्व और उनकी गहराई, शिल्प, सौंदर्यबोध, और, सबसे महत्वपूर्ण, उनके मानवतावादी स्वर की सर्वश्रेष्ठ कोटि की अभिव्यंजना का व्यवहारिक निरूपण देखना हो, तो “मध्यान्तर” आपकी उतनी ही मदद कर पाने में सक्षम होगा जितनी की विश्व-साहित्य में “जादूई यथार्थवाद” नामक उस औपन्यासिक धारा को जान पाने के लिए आपको मार्खेज़ की किताब “एकांत के सौ वर्ष” (मूल स्पैनिश में: Cion Anos de Soledad) होगा।
बल्कि, सच पूछें तो मैं तो आज के दौर में काव्य-रचना में अपनी सम्पूर्ण निष्ठा और ईमानदारी से रमे तमाम युवाओं को सलाह देना चाहूंगा (जो कोई भी इच्छुक हों, या जिस किसी की निगाह में भी मेरे साहित्यिक-बौद्धिक-आलोचनात्मक अभिमत का कोई मोल हो, उन्हें) कि प्रीति अज्ञात के मध्यांतर शीर्षकान्तर्गत इस कविता-संकलन को वस्तुतः काव्य-रचना के सिलेबस में शामिल एक अनिवार्य पाठ्य-पुस्तक तौर पर पढ़ने की सलाह देता हूँ। और यह भी स्पष्ट करना चाहता हूँ कि ऐसी किताबें यदि नियमित अंतराल पर उपजती रहें हिंदी की नई कविता की सर-जमीन पर, तो आम जनता की हिंदी काव्य-कृतिओं के प्रति मौजूदा-उदासीनता और निरपेक्षता को ख़त्म करने में भी काफी मदद मिलेगी, ऐसी चुम्बकीय है इस पुस्तक की पठनीयता।
* मध्यांतर (Madhyantar), Amazon पर उपलब्ध है।
– राकेश कुमार