‘हिंदी ग़ज़ल के बढ़ते आयाम’ डॉ. भावना की सद्य: प्रकाशित पुस्तक है, जिसमें हिंदी ग़ज़ल के विविध पक्षों को लेकर, समय-समय पर उनके द्वारा लिखे गये आलेख, चौदह अलग-अलग शीर्षकों के तहत शामिल हैं। आरंभ में, ग़ज़ल के हिंदी में आने के पहले के इतिहास की तरफ संकेत किया गया है, ग़ज़ल शब्द से जो आशय लिया जाता रहा है उसकी चर्चा है और इस विधा के छंद-विधान को छूते हुए, उन बुनियादी बातों से बहस की गयी है, जो ग़ज़ल को विधागत-स्वरूप प्रदान करते हैं, अर्थात बहर, क़ाफ़िया और रदीफ़ आदि। इस क्रम में भावना जी, एक महत्वपूर्ण संकेत भी करती हैं, जो उनके शब्दों में इस प्रकार है –
“ग़ज़ल की संरचना कला बिल्कुल अनूठी है। इसमें शब्द अपनी एकांतिकता का विस्तार नहीं करते,बल्कि (मिसरे प्रयुक्त) दूसरे शब्दों से जुड़ाव में अर्थ ग्रहण करते हैं।” – हिंदी ग़ज़ल एक पड़ताल–पृ.11
उपरोक्त-कथन ग़ज़ल-आलोचना में उस वक़्त, ज़रूरी-शर्त की तरह हो जाता है जब हम शेर को समझने या उसका मंतव्य बयान करने के क्रम में, किसी शेर को टटोलने-खोलने और उसके अर्थ की तहों में उतर कर उसके मर्म को पहचानने और बयान करने की कोशिश कर रहे होते हैं, नतीजतन उपरोक्त कथन का रचनात्मक और आलोचनात्मक दोनों ही दृष्टियों से महत्व है। हालांकि, ग़ज़ल की इन दोनों तरह की कार्य-विधियों को घेरता यह कथन, कोई नयी स्थापना नहीं है, लेकिन भावना जी का ध्यान ग़ज़ल की बाबत, इस नुक़्ते पर भी है, यह महत्वपूर्ण और ध्यान देने योग्य, इसलिए है कि शेर में कथ्य का होना मात्र ही नहीं, अर्थ का होना भी महत्वपूर्ण है। इस प्रकार शेर में, ‘कथ्य’ की स्थिति, अर्थ के प्रस्थान-बिन्दु की तरह है और इस यात्रा को, साहित्यिक-युक्तियों के यथोचित ट्रीटमेंट के ज़रिए अंजाम तक ले जाया जाता है, नतीजतन अर्थ की दृष्टि से,(शेर के वाक्य विन्यास में) शब्द और उसकी मौजूदगी की स्थिति, महत्वपूर्ण हो जाती है। यह भी है कि, शेर के वाक्य में, शब्द के उचित स्थान पर होने और न होने से, शेर में (अर्थ की सतह पर) जो फ़र्क़ घटित होता है,वह सूक्ष्म-स्तर का है, लेकिन है प्रभावशाली, जिसे महसूस करके ही, उसके प्रभाव को समझा जा सकता है। विन्यास में शब्द जब उचित स्थान पर होते हैं,तभी वे अपने पीछे-आगे और ऊपर-नीचे स्थित, अन्य सहकारी शब्दों से, जुड़ते और परस्पर संवाद करते हुए शेर को, अर्थ की सतह पर, आगे सरकाने में सक्षम होते हैं।
एक उदाहरण के ज़रिए शेर में शब्द की इस यात्रा को शायद, और भी स्पष्टता से समझा जा सके। शेर है –
एक जुगनू बच गया है
खलबली-सी रात में है.
ऊपर-ऊपर देखें तो इस शेर में रदीफ़ के टकराव का दोष है, यह दोष, शेर की पहली पंक्ति के अंत में “है” के होने की वजह से है।जिसे विन्यास में, बदल कर, दोष से मुक्ति पाई जा सकती थी, लेकिन शायर ने ऐसा नहीं किया। शायद इसकी वजह यह रही हो कि इससे शेर के स्वर में, जो अभिष्ट ज़ोर या बलाघात है, उसकी जगह बदल जा रही है, और जगह के बदलने से, शेर में अर्थ की सतह पर जो फ़र्क़ घटित हो रहा है, वो उसे गवारा न रही हो। आइए “है” की जगह को बदलते हैं, और देखते हैं कि शेर में अर्थ की सतह पर क्या बदलाव आ रहा है। बदली स्थिति में शेर की पहली पंक्ति ये हो सकती है –
बच गया “है” एक जुगनू
खलबली-सी रात में है.
अब, अर्थ की सतह पर जो फ़र्क़ आया, उसे देखते हैं :-
अपनी मूल स्थिति में, शेर (प्रतीकत:) ये कह रहा है कि (उजाले के बाक़ी स्रोत खत्म हैं, अब सिर्फ़) एक जुगुनू बच गया है (जिस पर उजाले की उम्मीद टिकी हुई है)। इस बयान पर ध्यान दें तो, यह बयान उस पक्ष का मालूम होता है, जो अंधेरे से आजिज और उसके ख़िलाफ़ है।
जबकि, बदली हुई स्थिति में शेर का बयान
“बच गया है एक जुगनू”.. अंधेरे के पक्ष का हो जाता है। आम तौर पर कहते भी हैं, अब यही एक बच गया है। जिससे यह आशय लेने की गुंजाइश बन जाती है कि..( ‘औरों को तो निबटा चुके, अब यही एक, रह गया है’) अर्थात ये भी बस निबट ही जाने वाला है।
शेर के अर्थ की ये दोनों स्थितियां, यह स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त हो सकती हैं कि शेर के वाक्य-विन्यास में शब्द का वांछित स्थान पर होना– न होना, क्या मानी रखता है,और शेर में अर्थ की सतह पर कैसा बदलाव घटित हो जाता है। भावना जी के उक्त संकेत का, यही निहितार्थ है।
मुमकिन है, बहस थोड़ी खिंच गयी हो, लेकिन यह नुक़्ता शेर की समझ से इतनी गहराई से जुड़ा है,और इतना महत्वपूर्ण है, कि उसे रेशा-रेशा करके समझना ही उचित था।
संदर्भित किताब में, उल्लेख योग्य यही एक बात नहीं है, यह पुस्तक हिंदी ग़ज़ल के कथ्य या विषय को लेकर, अब तक के लेखन का जायजा लेती है, जो महत्वपूर्ण है। विस्तार भय के कारण, एक-दो और बातों का उल्लेख, अत्यंत संक्षेप में कर के आपको सलाम करता हूँ, बाक़ी कुछ शीर्षकों का यहां सिर्फ़ उल्लेख, इस आशय से है कि उनसे गुज़रते हुए, उनके भीतर के मैटर का थोड़ा-बहुत अंदाज़ा, आपको स्वत:भी हो सकता है। ये शीर्षक “अपनी बात” के अलावा हैं, और इस प्रकार हैं :-
हिंदी ग़ज़ल एक पड़ताल,हिंदी ग़ज़ल की परम्परा, हिंदी ग़ज़ल के बढ़ते आयाम, हिंदी ग़ज़ल में समकालीनता, सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध हिंदी ग़ज़ल, हिंदी ग़ज़ल में प्रकृति और पर्यावरण, हिंदी ग़ज़ल में बुजुर्गों की स्थिति,शहर की तलाश में गुम होते गांव और हिंदी ग़ज़ल,हिंदी ग़ज़ल में प्रेम और सौंदर्य, हिंदी ग़ज़ल में मां, कोरोना काल में हिंदी ग़ज़ल की भूमिका, और समकालीन हिंदी ग़ज़ल में युवा ग़ज़लकारों का हस्तक्षेप।
इनके अलावा, ‘समकालीन हिंदी ग़ज़ल में महिला ग़ज़लकारों की भूमिका’ और ‘समकालीन ग़ज़ल में स्त्री’ दो शीर्षक ऐसे हैं, जिनमें दूसरे के तहत, पुरुष ग़ज़लकारों के शेरों के हवाले से इस बात की पड़ताल की कोशिश है कि पुरुष रचनाकार, परिवार और समाज-जनित नारी-समस्याओं को, किस तरह देखते है। अच्छा यह लगा कि ऐसा करते हुए वस्तुस्थिति को ओझल नहीं होने दिया गया है और जहां ज़रूरी हुआ है किसी रवैये या विचार से तार्किक असहमति दर्ज की गयी है, और सवाल उठाए गए हैं। जैसे –
“प्रश्न यह उठता है कि क्या महिला के जीवन( यानी, घर और समाज में उनकी स्थिति) का सही चित्रण, महिला ग़ज़लकारों द्वारा ही बेहतर ढंग से हो सकता है, या पुरुष ग़ज़लकार भी उसे उतनी ही बारीकी से व्यक्त करने में सक्षम है ? ” पृ.89– समकालीन ग़ज़ल में स्त्री.
इसी अध्याय के तहत महिला-सशक्तीकरण को लेकर भी ज़बरदस्त टिप्पणी है। महिलाओं के खुलेपन को लेकर यह टिप्पणी देखिए –
“स्त्री के जीवन में जो खुलापन या बदलाव महसूस होता है वह महज़ मुट्ठी भर स्त्रियों के हिस्से ही आया है। आज भी,अधिकांश स्त्रियां परिवार के छोटे-बड़े कामों के लिए भी ख़ुद निर्णय नहीं ले सकतीं।आज भी स्त्रियों पर तेजाब फेंका जाता है। उन्हें डायन बता नग्न घुमाया जाता है। सच्चाई यह है कि स्त्री आज भी पुत्र के न जनने पर निर्वंश या बांझ के लांछन से प्रताड़ित होती है”– वही, पृ.95
‘समकालीन हिंदी ग़ज़ल में महिला ग़ज़लकारों की भूमिका’ पुस्तक का अंतिम अध्याय है।इस शीर्षक के तहत अन्य बातों के अलावा, उन पत्रिकाओं का ज़िक्र है,समय-समय पर जिनके महिला ग़ज़लकार-केन्द्रित अंक निकले । इस अध्याय में महिला ग़ज़लकारों के शेरों में कथ्य के बतौर आयी विविध सामाजिक और घरेलू स्तरीय समस्याओं की पड़ताल की गई है और नतीजे निकाले गये हैं, जिनकी अपनी सार्थकता है।
समकालीन हिंदी ग़ज़ल में युवा ग़ज़लकारों का हस्तक्षेप शीर्षक के तहत हिंदी ग़ज़ल में उनकी भागीदारी पर ये आश्वस्तकारी टिप्पणी दर्ज है, जो आगामी वक़्त में उनके योगदान के प्रति उम्मीद जगाती है –
“हिंदी ग़ज़ल की युवा पीढ़ी पूरे दम-ख़म के साथ ग़ज़ल के शिल्प को साधते हुए अपनी ग़ज़लों का लोहा मनवा रही है।” पृ.156
इस टिप्पणी के आलोक में उम्मीद जगती है कि हिंदी ग़ज़ल के संदर्भ से, आगे ऐसी नयी प्रतिभाएं ज़रूर सामने आएंगी जो भरपूर आलोकीय-तैयारी के साथ, इस विधा के अबतक के किए-धरे पर विश्लेषणात्मक-दृष्टि डालेंगी और ऐसे उर्वर नतीजे बरामद कर सकेंगी, जो हिंदी में ग़ज़ल को लेकर, रचनाधर्मी विमर्श का वातावरण सृजित करने सक्षम होंगे और हिंदी में ग़ज़ल-कविता की गुणात्मक-समृद्धि का मार्ग और भी प्रशस्त करेंगे, नतीजतन उत्कृष्ट ग़ज़ल-कविता की संभावनाएं अपेक्षाकृत और भी सघन होंगी।
कुल मिलाकर हिंदी ग़ज़ल के मौजूदा सिलसिले की, निस्बतन निकटस्थ झलक प्रस्तुत करती यह किताब, अपने भीतर ज़रूरी और पठनीय सामग्री समेटे हुए है, जिससे गुज़रना सुधी पाठक के लिए अवश्य ही समृद्धिकारी होगा।