मौन के गहरे अंतस में उतरती हुई भावनाओं के ज्वार में डूबती उतरती अपने आपको झकझोरती हुई कब एक स्त्री खुद ही खुद से बातें करने लगती है वह खुद ही नहीं जान पाती हैं …
बोलो न दरवेश दरअसल खुद को शीशे में देखते हुए आत्म प्रलाप की वह जद्दोजहद है जो मनुष्य होने की अपनी सभ्यता को बचाने की आखिरी सांस तक खुद को पहचानने की एक यात्रा है।
स्मिता सिन्हा की इन कविताओं मेंं अकेलेपन से उपजी एक ऐसा रागात्मक संबंध है जिससे जुड़ने पर हम सभी दरवेश हो जाते हैं। कवयित्री डाल पर कूकती हुई कोयल के मानिंद अपनी गीतों को ऐसे उकेरती हैं कि वह गीत एक स्त्री की न होकर सम्पूर्ण मानव जाति की आदिम कहानी बन जाती है …
स्मिता की एक खूबी है कि वह इन कविताओं मेंन कुछ बोलते हुए भी बहुत कुछ बोल जाती है। दरवेश के प्रति बोलने की यह कोमल आग्रह दरअसल खुद का अपनी खोल से बाहर निकलने की प्रक्रिया है ….
पहली ही कविता पता में जब.वह कहती है
और अगली सुबह/ओस की बूंदें/अपना पता भूल गई …
यह ओस पगडंडी और कोलतार से लिपटी सड़क की कहानी नहीं है यह तो हमारे असीमित सभ्यता के बिखरने की दास्तान है, जिसे हम अपने ही पांवों से रौंद रहे हैं इन दिनों ..
स्त्रियों की गहरी संवेदना में उतरकर जब वह प्रलाप करती हैं तो उनका मौन और भी मुखर हो उठता है …
मैं महसूस कर रही थी/अपने कंठ में अटके हुए/आंसुओं का वेग …
स्मिता सिन्हा की कविताओं में निर्वासन का जो दुख है उसमें अपनी जड़ों से कट कर फिर से सिर उठा कर चल देने की जिजीविषा पनपती है …
निर्वासन, भूख-प्यास और उसकी उड़ान थी…
महानगरों की बहुमंजिली इमारतों में घुटती हुई उनकी संवेदनाएं जब रिसने लगती हैं तो वह छटपटाहट एक चिड़िया की मासूम डैनों की भांति फरफराने लगती हैं …
और यह कमरा …
मेरे लिए गत्ते का डब्बा बन जाता है …
कवयित्री ने सिर्फ आत्मप्रवंचतना ही नहीं की है वह अव्यवस्थाओं के खिलाफ अपना मुंह भी खोला है। ,विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के होने पर सवाल भी उठाया है। इन सवालों में जादुई यथार्थ है जो गहरा तंज बन कर उनके शब्दों में उतरता है …
यह भी जरुरी होता है कि
हम हों बेहद शांत, सुव्यवस्थित
उस विरुद्ध प्रश्नकाल में भी
और धीरे धीरे निगलते जाएँ
उन सभी शब्दों को
जो चाहते हों चीखना …
स्मिता चुप रह कर भी अट्टहास करना जानती हैं जरूरत इस बात की है कि हम कितना टटोल पाते हैं उन जज्वाती चुप्पी को …
वह गिद्धों की गरदन
मरोड़ कर बैठा है
बेखौफ
जबकि छिपकलियाँ
छटपटा रही है
उसकी मुट्ठियों में …
दरवेश की बोलने के प्रति आग्रह को जब वह गहरे आत्मिक संवाद में उतरती हैं तो वहां कुछ भी अनकहा नहीं रह जाता ।
और अनावृत होती जाती हूँ मैं/ अपनी आत्मा तक
और वह दर्द के गहरे समंदर में गोते लगाते हुए जब वह कहती हैं कि
मैं हूँ बस उतनी ही
फटे पैरों की विवाई में जाकर खत्म होती
पीड़ाओं की उम्र जितनी …
यह पीड़ा तब उनकी अपनी न होकर दुनिया की समस्त स्त्रियों की पीड़ा एकाकार हो जाती हैं …
हाँ तब उस क्षितिज पर जाकर कुछ भी शेष नहीं बचता
बहुत कुछ कह चुकने के बाद भी
जो हमेशा अनकहा सा रह गया हमारे बीच
प्रेम बस वहीं रहा …
प्रेम की इतनी सुंदर.परिभाषा वही स्त्री दे सकती है जिसने अपने जीवन में प्रेम को पाया नहीं जिया है
स्मिता इतना सब कुछ तुम कैसे लिख लेती हो , बोलो न स्मिता
मुझे अभी सुनना है तुमसे बहुत कुछ जो तुम्हारी बेसाख्ता सी हँसी में अब तक नहीं सुन पाई। मुझे सुनना है तुम्हारा वह मौन जिसमें ब्रह्मांड के नाद स्वर छिपे हुए हैं ,तुम्हारे शब्दों में …
क्या अब भी तुम कुछ न बोलोगी जबकि मैं सुन.रही हूं. तुम्हारी चीख उन शांत नदियों की लहरों में जो अपने भीतर छुपा कर रखती हैं ढेर सारी उथल पुथल दुनियादारी की
पुस्तक – बोलो न दरवेश
लेखक – स्मिता सिन्हा
प्रकाशन – सेतु प्रकाशन समूह
कीमत – 150/-
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