‘…और कितने दुर्योधन’ एक कविता संग्रह है और यह शब्दाहुति प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। शब्दाहुति प्रकाशन का आदर्श वाक्य है “जहां ज्ञान ही सर्वोपरि है।” वाकई में यह प्रकाशन अपनी कही बात को चरितार्थ करता है। जहां दुनियाभर के प्रकाशन ऐसे वैसे कैसे भी लेखकों की पुस्तकें छाप कर पैसे कमाने की होड़ में लगे हैं, वहां शब्दाहुति प्रकाशन पैसे पर लेखक की काबिलियत को तरजीह देता है।
पुस्तक पर बात की शुरुआत करते हैं इसके शीर्षक व आवरण पृष्ठ से। नाम से ही स्पष्ट है कि यह कविता संकलन सवाल उठाते हुए आक्रोश ज़ाहिर करता है। शीर्षक किसी संघर्षरत युवा की हताशा को ध्वनित करता है। जहां तक पुस्तक आवरण चित्र की बात है, यह अनेक अर्थ लिए हुए है। चित्र में एक ओर मानव संत्रास उभर कर आ रहा है वहीं पृष्ठभूमि में प्रकृति निर्विकार अपने सृजन में तल्लीन है। एक मानव है जो तमाम उलझनें खड़ी कर लेने के बाद न जाने किस आध्यात्मिक कमल को पाना चाहता है।
अहम और उस से उपजा संत्रास इस खूबसूरत दुनिया में मानव का जीवन विकट बना देता है। जिसमें माताएं अपनी संतान के जीवन में सुख शांति की फ़िक्र में दर दर झोली फैलाए घूमती हैं और संतान दुनियावी साजिशों को सुलझाने की फ़िक्र में घुलता है। किताब उठाओ तो यह आवरण पृष्ठ ही काफ़ी देर तक पाठक को बांधे रहता है।
फ़्लैप पर टिप्पणी स्वयं हरदीप सबरवाल की है। जहां वे कहते हैं, “मेरा मन किसी बंजर ज़मीन जैसा, वर्षों तक पड़ा रहा फिर न जाने कब जीवन की संवेदनाएं अपनी नमी इस पर गिराने लगीं और स्वत: ही इस पर उग आईं खरपतवार सरीखी कविताएं।”
पुस्तक में कुल इक्यासी कविताएं हैं और कुल पृष्ठ 118 हैं। अधिकतर कविताएं छोटी या मध्यम लंबाई की हैं। दो कविताएं अपेक्षाकृत लंबी आई हैं – ‘भरी सभा में’ और ‘मुसलमान क्या सोचते होंगे’
हरदीप जी के ही शब्दों में आपको इस पुस्तक की सैर करते,”जीवन का एक अलग और असल रूप” दिखाई देगा। पुस्तक की पहली ही कविता पढ़ कर मैं थोड़ा चौंक गई। शीर्षक है ‘छींक’
माता-पिता की धुरी पर बेहद सरल सुलझी हुई प्रेम कविता है।
हरदीप जी यथार्थपरक कवि हैं ऐसा मैं जानती थी किंतु उनकी कविता में प्रेम का यथार्थपरक रूप भी इतना प्यारा और सुलझा हुआ होगा मुझे अंदाज़ न था।
अगली कविता ‘अश्लील कविता’ हरदीप जी की बहुचर्चित कविताओं में से एक है। पुस्तक में आने से पहले ही यह कविता पाठकों व श्रोताओं के ज़ेहन में अपना स्थान बना चुकी है। कविता में मौजूद तल्ख़ अंदाज़ के लिए ही हरदीप जी जाने जाते हैं “कि क्रांतियां ना कभी कलात्मक हुई, ना होंगी।”
‘अजीब बात है’ कविता कवि की बात की पुष्टि करती है कि उनके मन की भूमि में कुछ कविताएं खरपतवार सी उग आती हैं, यह वही अनायास सर उठाते विचार हैं –
“हमारे यहां किसान न जाने क्या बीजते हैं कि फसल के साथ साथ उग जाते हैं तमाम कारण आत्महत्याओं के…
कवि ने ‘शतरंज की बिसात’ कविता में शोषित वर्ग की कहानी दर्ज की है
“प्यादे सबसे पहले मारे जाते हैं,
उनका काम ही होता है,
राजा रानी की रक्षा करते मिट जाना”
‘भरी सभा में’ कविता पौराणिक कथाओं की आधारभूमि पर वर्तमान व्यवस्था का यथार्थ उलीचती है।
मध्यवर्गीय स्त्री के द्वंद्व को देखिए कैसे वह आज़ाद खयाली और गुलाम मानसिकता के बीच भ्रमित सी डोलती है –
मध्यवर्ग की औरतें अपनी अपनी
बच्चियों को वो सब
आज़ादी से
करते देखना चाहती हैं जो वो
खुद न कर सकी कभी पर साथ ही
वो उन्हें हूबहू अपने जैसा बना देना चाहती
बंधी हुई …
कवि मन में आलोड़ित होते सवाल देखिए-
“आसमान का रंग भी समुद्र सा ही नीला है,
डूबना ज़्यादा बेहतर होता है या उड़ान भरना”
सबरवाल जी को प्रेम का ऐसा रूप चित्रित करते मैं सहज पाती हूं –
“कौन कहता है कि जीवाश्म केवल चट्टानों और बर्फ़ की ठंडी परतों पाए जाते हैं?
मेरे पूरे शरीर और दिल में तुम देख सकते हो/ मेरे प्यार, महत्वाकांक्षाओं और मेरी सभी यादों के जीवाश्म…”
‘तीन टांगों वाला कुत्ता’ कविता बिंब, प्रतीक, सघन विचार और व्यवस्था पर करारी चोट का उदाहरण प्रस्तुत करती कविता है।
कवि की तीर सी तेज़ नुकीली और मर्म भेदी रचना है ‘सार्वजनिक शौचालय’
“सार्वजनिक शौचालय की दीवारें इन दिनों
साफ़ सुथरी नजर आती हैं/ उनपर नहीं दिखती/ किसी का नाम लेकर लिखी गई, अभद्र शब्दों में की गई टिप्पणियां…
वो सारे चित्रकार और लेखक / उस सार्वजनिक शौचालय की भौतिक दीवार को छोड़कर आ गए हैं/ एक आभासी शौचालय की दीवार के पास / छद्म नाम और छद्म पहचान के साथ…
कवि का प्रेम अत्यंत यथार्थपरक है-
“प्रेम की रूहानी अनुभूति का अनुभव लिए
प्रेम कविता के तमाम आयामों को छूने में
अनुत्तीर्ण सा रहने पर भी
ना जाने कैसे सहज ही फूट पड़ती हैं
मेरे अंतर्मन में प्रेम की धाराएं…”
कवि को प्रेम दर्शाती बेहद आम सी छोटी छोटी बातें प्रभावित करती हैं- पत्नी का खाने पर भूखे रह इंतजार करना, अपने खर्च में कटौती कर पति के लिए ब्रांडेड चीज़ लेना आदि।
ऐसा निस्वार्थ प्रेम ही तो प्रेम पात्र के मन में नैसर्गिक निश्छल प्रेम की धारा प्रवाहित करने में सक्षम है। यही तो प्रेम का यथार्थ है।
“मेरी जिंदगी में इतवार नहीं होता
कि मैं एक नुक्कड़ का दुकानदार हूं…”
क्या यह निराला के दुख से कम है जो कह गए
“दुख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूं आज जो नहीं कही”
सबके अपने अपने दुख हैं दुखों की गहराई भी अनंत है।
मध्यवर्गीय व्यक्ति अगर कवि भी हुआ तो उसके दुख की, संघर्ष की गहराई मापना असंभव है। हरदीप सरीखा कवि लंबे लंबे डग भर चलता है, अपने साथ साथ ज़माने भर का दुख महसूस करता है, अपने कंधों पर ढोता है।
कभी वह उत्साही है कभी अत्यंत निराश मगर हर हाल में संघर्षशील, विकासशील…
इस सब में खुद को तलाशता वह कहता है-
“शायद किसी रोज़ मुलाकात कर पाऊं मैं
अपने आप से
पर अभी बहुत देर तक मुझे
मिट्टी में गरक होना होगा…
वर्ग भेद की टीस कवि को रह-रह कर सालती है। ऐसा लगता है मानो वह एक छोर पर खड़े हो देखता नहीं वरन स्वयं पे यह भेदभाव अनुभव करता हो ‘इश्क और रोटी’ ऐसी ही कविता है।
आज के हालात को साफ़गोई से पिरोते कवि कहता है –
सच बोलने का मतलब
इन दिनों साम्यवादी होना हो गया है
और
त्योहारों के प्रतीकों में ही जँचती है सिर्फ़
अन्याय के खिलाफ उठती आवाज़ें …
सबरवाल की कविता में खरपतवार आम जन और उसकी जिजीविषा का प्रतीक है, खरपतवार आशावान और ऊर्जावान है –
“लोकतंत्र के आका
बीज ले धरती के कोने कोने पर चाहे
फसलें नफरत के खेल की
अपने खेतों का क्षेत्रफल बढ़ाते हुए
शब्दों की दरातियों कुल्हाड़ियों से
काट ले चाहे तमाम मानवता के जंगल…
… तुम्हारे केमिकल के नाश को सहकर
मिटकर भी फिर आते रहेंगे
मानवता की अलख जगाते रहेंगे…
‘दीवार’ कविता मे कवि कहता है –
दीवार के इस पार या उस पार बैठे लोग ये जान ही न पाए
कि दीवार में छुपे बैठे लोग कुछ सोच नहीं सकते,
सिर्फ़ शक कर सकते हैं।
आसपास के समाज का खाका वे कैसे प्रस्तुत करते हैं, देखें जरा-
“उत्तर आधुनिक लोग आँखों में चमक बिखेरते रहे
चमकदार दहेज़ को देख
और उठाते रहे दावत के लजीज व्यंजनों का स्वाद।”
हरदीप जी की कविता ‘घर’ यथार्थवाद का बड़ा प्यारा उदाहरण प्रस्तुत करती है, एक बानगी देखिए-
तुम्हारी बातें,
चेतन भगत के किसी नॉवेल सदृश्य
सीधी और सपाट,
मेरे शब्द, उलझे-उलझे,
विक्टोरिया ताराकोवा की किसी कहानी सरीखे…
कवि ने अपनी लेखनी से अब तक के अनसुने अकल्पित प्रतीक गढ़े हैं-
कुत्सित इच्छाएं
फ्लश सीट में गिरे हुए किसी मेंढक की भांति
बाहर आने को बेचैनी से उछलती…
‘संदर्भ से परे कविता हरदीप जी की बहुचर्चित कविता है, साहित्यिक वातावरण का यथार्थ बहुत करीने से बस सामने रख दिया गया है-
“संदर्भों की चर्चा में इतने मशगूल हुए संदर्भ
कि बातें तो बेहिसाब हुईं
हुईं मगर सारी ही संदर्भ से परे।
सरोकारों के कवि हैं सबरवाल जी; उन्होंने मध्यवर्ग की परेशानियों जीया है, आस-पास रोज़मर्रा के जीवन में देखा है, महसूस किया है; वही उनकी कविताओं का आधार भी है। वे भोगा हुआ सत्य ही कविताओं में यथारूप परोसते भी हैं।
कहीं लगता है उनकी कविताएं अतियथार्थवादी हो आई हैं। कई बार आवश्यकता से अधिक बौद्धिकता का नकारात्मक पहलू यह हो जाता है कि यह कहीं कहीं क्लिष्टता को जन्म देता है और शब्द चयन काव्यात्मक, लयात्मक न रह गद्यात्मक अधिक रहता है। हताशा, निराशा, और तमाम नकारात्मक परिवेश के बावजूद कवि में आक्रोश की चिंगारी रह-रह कर भड़क उठती है, उसमें जिजीविषा उत्साह और आशा का संचार होता है। वह पलट कर जब-जब भी अपने माता-पिता और जीवनसंगिनी की ओर देखता है उसका सौम्य चेहरा उभर आता है, वह तमाम परेशानियों को दरकिनार कर प्रेम पर सोचता है, प्रेम लिखता है।
यह पुस्तक बहाव में नहीं पढ़ी जा सकती। पुस्तक समय मांगती है, हर कविता अपने लिए भरपूर समय की मांग करती है। कवि की हर कविता पढ़ने के बाद उस पर चर्चा के लिए मन मचल उठता है, हर रचना कई कई बार ध्यान पूर्वक पढ़े जाने वाली रचना है, एक पाठ में ही कविता चुक नहीं जाती बल्कि विचार तरंगों को आलोड़ित करती रहती है।
भले ही यह हरदीप सबरवाल जी का पहला कविता संकलन है लेकिन यह बहुत परिश्रम, सब्र, चिंताओं, चिंतन मनन, वैचारिक आलोड़न और गहन अनुभूतियों का परिणाम है।
इस कविता संग्रह के आने के बहुत पहले से ही हरदीप सबरवाल जी साहित्य की दुनिया में अपना एक विशेष स्थान बना चुके हैं। आशा है उनकी लेखनी में यह धार बरकरार रहेगी।