2021 में ‘जड़ पकड़ते हुए’ और ‘सूरजमुखी सा खिलता है जो’ के बाद 2023 में राकेश प्रेम जी का अगला कविता संग्रह ‘कविता में जीते हुए’आया और आज‘ अस्ति- नास्ति’ पढ़ने को मिल रहा है। एक लंबे अंतराल के बाद उनका लेखन और प्रकाशन क्षिप्र गति से आगे बढ़ रहा है। ‘अस्ति- नास्ति’ एक दार्शनिक कवि की आध्यात्मिक चिंतन यात्रा है। युगों से अस्ति- नास्ति पर मंथन- चिंतन होता आया है। सब वर्णनातीत है.. है भी और नहीं भी… अनिश्चय की स्थिति। कवि कहता है-
“कुछ क्षण हमें अभिभूत करते हैं, अन्य चकित- विस्मित—–आशा के साथ निराशा है, लालसा के साथ चिंता और सृजन के साथ विनाश। उल्लास भी और आँसू भी। दार्शनिक इसे ‘अद्भुत’ और ‘विचित्र’ कहते हैं और भक्तजन,‘हरी अनंत हरि कथा अनन्ता’।“
पुस्तक की कविताओं को चार शीर्षक दिये गए हैं- प्रकृति, जीव, जगत, मन।प्रत्येक मुख्य शीर्षक के आगे भी अनेक उपशीर्षक हैं।
‘प्रकृति’ के अंतर्गत प्रकृति, अस्तित्व, जिज्ञासा, आस्था, विवेक, मंथन,समर्पण शीर्षकों को समाहित किया गया है। चिंतक कवि देखता है कि खेत- खलिहान में लहरा रही प्रकृति माँ ही ऋद्धि- सिद्धि की महिमा लिए है। ऋद्धि यानी ज्ञान-बुद्धि और सिद्धि यानी आध्यात्मिक शक्ति। प्रकृति सर्जन और विनाश दोनों को सहेजे है। यह जीवनदायिनी भी है और त्रासदायिनी भी। अनेक प्रश्न हैं- अस्तित्व क्या पानी के बुलबुले सा है? विवेक की पहचान क्या असंगतियों में होती है? मंथन, समर्पण क्या है? प्रत्येक प्रश्न का उत्तर चाहिए। काया और माया,धूप और छांव के खेल, मन की अजब- गजब दुविधाएँ कवि के अंदर जिज्ञासाएँ उत्पन्न करती हैं। आस्था ही मूल है-
मानो तो मिट्टी है
मानो तो सोना ।
झंझावात वटवृक्ष का और जल प्रलय या भूकंप पानी में खड़े जहाज का कुछ नहीं बिगड़ सकते। क्योंकि वृक्ष की जड़े और जहाज का लंगर उन्हें आस्था से जोड़े हैं। विवेक क्या है- असंगतियों के बीच के ऊबड़- खाबड़ रास्तों से, ठंडी मीठी हवाओं से बतियाते निर्विग्न निकल जाना। मंथन हमें सार तत्व के पास ले जाता है, दूध से निकले मक्खन की तरह। समर्पण तो रेत पर नंगे पाँव चलने के समान है। इस के लिए अपनी आकांक्षाओं/लिप्साओं पर अंकुश लगाना पड़ता है।
जिज्ञासाएँ कवि को पल-पल झंझोड़ती हैं- ‘क़हत कबीर पुकारि कै, अद्भुत कहिए ताहि। ’‘जीव’ के अंतर्गत जीव, आत्मा, चेतना, दर्शन, श्रद्धा, वैराग्य औरभक्ति पर काव्य रचनाएँ हैं। जीव राम भी है और रावण भी, कृष्ण भी है और कंस भी, देव भी है और दानव भी।
प्रोफेसर जयप्रकाश ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय का अन्तर्नाद‘ में ‘ अस्ति- नास्ति’ के विषय में लिखते हैं-
“ये कविताएँ पार्थिवता में देवत्व की तलाश की कविताएँ हैं। देवत्व की तलाश, मनुष्यत्व को छोड़ने और उसके ऊपर उठने से ही संभव नहीं बनती, मनुष्यत्व की काट- छांट और तराशगी से भी छविमान बनती हैं, यही इन कविताओं का प्रतिपाद्य है। ”
‘जीव’ शीर्षक में राकेश प्रेम कहते हैं-
न देव
न दानव–
मानव है
दोनों की
ईर्ष्या का केंद्र।
चेतना जीवन को अर्थ देती है। यह उषाकाल का आलोक है,कीचड़ में कमल है, चन्दन की सुगंध है। दर्शन दीपशिखा सा दिशा निर्देशक है, जीवन को सार्थकता देता है। श्रद्धा महक है, संगीत है, आस्था है, पुष्पांजलि, आदराञ्जलि है। वैराग्य रमता योगी की स्थिति है, स्वर्ग का द्वार है, जब कोई मेनका किसी विश्वामित्र की तपस्या भंग नहीं कर पाती। भक्ति मन- मृदंग को मस्त करने वाली लय और ताल है।
‘जगत’ में उपशीर्षक हैं- जगत, जीवन, संबंध, माँ, बेटियाँ, बेटे और बच्चे।जगत जीव और उसके कर्मों का, नाना सम्बन्धों की, जीवन की अबूझ पहेली है। ‘अस्ति- नास्ति’ का यह दार्शनिक कवि सम्बन्धों के प्रति अति संवेदनशील है। बच्चे भले ही आत्ममुग्ध हो अपने सपनों का संसार बसा लें, लेकिन माँ की आत्मा बच्चों में ही बसती है। बेटियों की तुलना तो तुलसी, मौलसिरी से की गई है। उनकी महक अगरबत्ती सी है, जबकि –
पिता की जूती
पाँव में आते ही
बाप बन जाते हैं बेटे।
वे चाहते हैं
अपनी भागीदारी
निर्णयों में
उन्हें होना है
महत्वपूर्ण।
‘मन’ में भावजगत की बातें मन, स्नेह, प्रेम, क्षमा उपशीर्षकों के अंतर्गत हैं। “मन शीर्षक की पहली कविता में संतों की वाणी, भक्तों के भजन, गीता के उपदेश तथा वेदान्त का सार घुल- मिल गया है।“ मन भवसागर में तैरती कागज की नाव है, काजल की कोठरी है, सुरसरिता की निर्मल धारा है, हठयोगी की साधना है। स्नेह की डोरी में भाव- चाव, रस- रंग, आशा- विश्वास, मोह- माया- सब पिरोये रहते हैं। प्रेम को कवि बहुत- बहुत कोमल अनुभूति मानता है- ओस भरी हरी दूर्वा पर नंगे पाँव चलने के समान। हरि अनंत हरि कथा अनंता की तरह प्रेम के अनेक रूप हैं। लालसाएं मन को अनियंत्रित करती हैं।
शब्द- युग्म पुस्तक को अतिरिक्त साहित्यिक गरिमा देते हैं- अस्ति- नास्ति, सर्जन- विसर्जन,सभ्यता- संस्कृति, खेत- खलिहान, काया- माया, अजब- गज़ब, सोना- मिट्टी, पानी- हवा, ऊबड़- खाबड़, आशा- आकांक्षा,मद- मोह, राम- रावण, अंग- उपांग, पुष्पांजलि- आदरांजलि,अस्तित्व, अनस्तित्व, बच्चे- कच्चे, भाव- चाव, रस- रंग, रीति- प्रीति आदि।
चाह गई चिंता मिटी, हरि अनंत हरि कथा अनन्ता, मन के हारे हार है, मन के जीते जीत, काजल की कोठरी जैसी उक्तियाँ काव्य रस में संवर्द्धन भी करती हैं और कवि के दर्शन को पुष्ट भी।
सूत्र
1. अपने से ही साक्षात्कार देता है आत्ममुग्धता का एहसास।
2. आत्मा को परिभाषित करता कवि कहता है कि आत्मा –
‘काया की माया से निर्लिप्त, ज्ञान चक्षुओं से दीप्त, चैतन्य, भूलोक की सीमाओं से बंधनमुक्त, काल का अतिक्रमण’ है।
3. कीचड़ में खिले कमल सी, चन्दन की सुगंध सी, करती सुवासित मन की कन्दराओं को, जीवन को देती एक अर्थ। (चेतना)
4. यात्रा भीतर की होती है आरंभ, होती है मुक्ति भावफंद से, मोह- माया से, कामी काया से,सौंदर्यानुरागी मन हो जाना चाहता है रमता योगी। (वैराग्य)
5. स्नेह बंधन नहीं, भाव है उन्मुक्तता का- रस की फुहार का। (स्नेह)
‘तत्ती छांव’,‘रब्ब दा रूप’ जैसे पंजाबी प्रयोग स्थानीय भाषा पर कवि की पकड़ का पुष्ट प्रमाण हैं।
अनेक पौराणिक- ऐतिहासिक प्रसंगों का भी जिक्र है। जैसे राधा, मीरा, स्वर्ण मृग, लक्ष्मण रेखा, शकुनि, हरिश्चंद्र।
‘रेत पर नंगे पाँव चलना’‘ काजल की कोठारी’‘ बेलगाम अश्व सा भागना’,‘खाँड़े की धार’आदि मुहावरों का भी प्रयोग मिलता है। यह मुक्त छंद की रचनाएँ हैं। यहाँ अंत्यानुप्रास नहीं है, लेकिन यह उपमा रूपक से आवेष्ठित अनुप्रास बहुल रचना है।
‘अस्ति- नास्ति’ में डॉ. राकेश प्रेम का दार्शनिक रूप मिलता है। एक अध्यात्मवादी चिंतक भौतिकवादी संसार में अनेक प्रश्नों से जूझ रहा है। कवि का चिंतन, मंथन, मनोविश्लेषण देव और दानव के बीच के मानव पर आ टिका है। रचना तत्व ज्ञान पर टिकी है, जबकि निष्कर्ष रूप में कवि कहता है कि धरती के मानव के लिए अपनी आकांक्षाओं का अतिक्रमण सहज नहीं होता, मन की जड़ता को ज्ञान की ऊष्मा से आलोकित करना आसान नहीं है।