हमारे लिए फिर एक बार बुरी खबर आई है। सहायता कार्यों से जुड़ी आयरलैंड की एजेंसी कंसर्न वर्ल्ड वाइड और जर्मन संगठन बेल्ट हंगर हिल्फ द्वारा संयुक्त रूप से तैयार कराई गई वैश्विक पूछ रिपोर्ट में भारत में भुखमरी के स्तर को चिंताजनक बताया गया है। एक तरफ जहां सन् 2000 के बाद से दुनिया में लगातार भुखमरी घटी है वहीं दूसरी तरफ यह बात इस खुशी को कम कर देती है कि भुखमरी घटने की रफ्तार में कमी आई है।
‘वैश्विक भुखमरी सूचकांक’, भुखमरी की समीक्षा करने वाली वार्षिक रिपोर्ट है, जो आयरलैंड स्थित एक एजेंसी कंसर्न वर्ल्डवाइड और जर्मनी के एक संगठन वेल्ट हंगर हिल्फे द्वारा युक्त क्त रूप से ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट को तैयार और प्रकाशित किया जाता है। वर्ष 2018 तक ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट को अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान द्वारा जारी किया जाता था। 2018 से आईएफपीआरआई ने ग्लोबल हंगर इंडेक्स के प्रकाशन से खुद को अलग करने का फैसला किया था। अब ग्लोबल हंगर इंडेक्स ‘वेल्ट हंगर हिल्फे’ व ‘कंसर्न वर्ल्डवाइड’ की संयुक्त पहल पर जारी जाती है।
जहां सन् 2006 से 2012 के बीच भुखमरी सूचकांक (जीएचआई – ग्लोबल हंगर इंडेक्स) में 4.7 बिंदुओं की गिरावट अंकित की गई थी, वहीं सन 2012 के बाद से यह गिरावट घटकर 2.5 बिंदु रह गई है। न सिर्फ इतना बल्कि यह भी कि कई दशकों तक अल्प पोषण में जो कमी आ रही थी, वह अब न केवल थम गई है, अब अल्प पोषण में फिर से बढ़ोतरी होती जा रही है। यहीं यह बात भी हमें समझ लेना ज़रूरी है कि वैश्विक भुखमरी सूचकांक की गणना जिन चार बिंदुओं के आधार पर की जाती है, उनमें से यह अल्प पोषण एक है। शेष तीन बिंदु हैं बाल अपव्यय (चाइल्ड वेस्टिंग), बाल वृद्धि में रुकावट (चाइल्ड स्टण्टिंग) और बाल मृत्यु दर (चाइल्ड मोर्टेलिटी)। इन चार बिंदुओं को समझ लेना उचित होगा।
अल्प पोषण से आशय यह है कि जितनी कैलोरी आवश्यक है उससे कम मिल रही है। बाल अपव्यय का आशय यह है कि पांच साल से कम उम्र के कितने बच्चे ऐसे हैं जिनका वजन कुपोषण की वजह से उनकी लम्बाई के अनुपात में कम है। इसी तरह बाल वृद्धि में रुकावट का आशय यह है कि इसी कुपोषण की वजह से पांच वर्ष से कम उम्र के कितने बच्चे ऐसे हैं जिनकी लम्बाई उनकी उम्र के हिसाब से कम है। और बाल मृत्यु दर का आशय यह है कि अपर्याप्त पोषण और अस्वास्थ्यप्रद माहौल के कारण पांच वर्ष से कम उम्र के कितने बच्चे काल के ग्रास बन जाते हैं। कुल मिलाकर इन चारों बिंदुओं का सम्बंध पोषण के अभाव से है।
एक सुविचारित और तर्कसंगत फॉर्मूला के तहत इन क्रम बिंदुओं के आधार पर संयुक्त राष्ट्र संघ से प्राप्त प्रामाणिक आंकड़ों के आधार पर विश्लेषण कर वैश्विक भुखमरी सूचकांक तक पहुंचा जाता है। इस सूचकांक के अनुसार सौ बिंदुओं के पैमाने पर दुनिया के देशों में व्याप्त भुखमरी को श्रेणीबद्ध किया जाता है। दस से कम बिंदु प्राप्त करने वाले देशों में अल्प भुखमरी, 10 से 19.9 बिंदु पाने वाले देशों में मामूली भुखमरी, 20 से 34.9 बिंदु तक वाले देशों में गंभीर भुखमरी और 35 से 49.9 तक प्राप्त करने वाले देशों में खौफनाक भुखमरी मानी जाती है। 50 से अधिक अंकों वाले देशों को अत्यधिक भुखमरी वाला देश माना जाता है।
हर साल खाना न मिलने से लाखों लोगों की चली जाती है। एक स्वस्थ इंसान के लिए बैलेंस डाइट बहुत जरूरी है. भोजन हर एक इंसान का मौलिक अधिकार हैं। संयुक्त राष्ट्र के दुनिया भर के 150 सदस्य देश मिलकर विश्व खाद्य दिवस मानते हैं। इस दिन जगह-जगह लोगों को जागरूक करने के लक्ष्य से कई तरह के प्रोग्राम मनाए जाते हैं। ताकि दुनिया से भुखमरी को खत्म किया जा सके। दुनिया में ऐसे कई लोग हैं जिनके पास खाने को दे वक्त की रोटी तक नसीब नहीं होती। वे सही भोजन न मिलने के कारण कई तरह से कुपोषण का शिकार हो रहे हैं।
वैश्विक भुखमरी सूचकांक ऐसा ही एक सच है जो वर्तमान सरकार के सामने आकर खड़ा हो गया है। वैश्विक भुखमरी सूचकांक-2023 में भारत की स्थिति ‘गंभीर’ श्रेणी में रखी गई है। 125 देशों में भुखमरी पर किए गए आँकलन में भारत को 111वां स्थान मिला है। GHI-2022 में यह स्थान 107 वां था। भारत का स्कोर 100-पॉइंट स्केल पर 28.7 है। सूचकांक में ‘शून्य’ सबसे अच्छा स्कोर है (कोई भूख नहीं) और 100 सबसे खराब है। स्थिति यह है कि जब से नरेंद्र मोदी सरकार सत्ता में आई है तब से भारत लगातार इस सूचकांक में पिछड़ता जा रहा है।
इस जानकारी के बाद यह जानना और अधिक त्रासद लगता है कि सन् 2021 में भारत 27.5 प्राप्त करने वाला अर्थात गम्भीर भुखमरी वाला देश था। यह जानकर हमारा संताप और अधिक बढ़ जाता कि वैश्विक भुखमरी सूचकांक के मामले में हमारा प्रदर्शन बेहतर होने की बजाय बदतर होता गया है। साल 2021 में हम 116 देशों की सूची में 101वें पायदान पर थे, जबकि साल 2020 में हम 107 देशों की सूची में 94वें स्थान पर थे। इस साल की रिपोर्ट में हालांकि हमारे कुछ पड़ोसी देशों जैसे नेपाल, बांगलादेश, म्यांमार और पाकिस्तान की हालत भी चिंताजनक बताई गई है, हमारे लिए यह लज्जा को बात है कि इन देशों ने भुखमरी का सामना हमारे देश की तुलना में ज़्यादा अच्छी तरह से किया है। और यह तब, जबकि हमारे राजनेता और देश के कर्णधार अपनी पीठ थपथपाने का कोई मौका नहीं गंवाते हैं। यह बात विचारणीय है कि हमारे लिए एक बार फिर बुरी खबर आई है। अगर आप लोगों को दो वक्त की रोटी भी नहीं दे पा रहे हैं तो आपको गर्वित होने का क्या हक़ है?
यह बात कही जानी ज़रूरी है कि हमारे देश में वास्तविक काम करने और लोगों को समुचित पोषण प्रदान करने के लिए गंभीर प्रयासों की बजाय अधिक ऊर्जा और संसाधन नेतागण के छवि निर्माण पर खर्च किये जाते हैं। हाल में बांटे गए नेताओं की छवि वाले भारी भरकम थैले इस बात का एक उदाहरण हैं। जितनी राशि उन थैलों के निर्माण पर और थैले बांटने के प्रचार प्रसार पर खर्च की गई उतनी राशि से और बहुत सारे लोग कुपोषण से बच सकते थे। लेकिन हमारे कर्णधारों को कुपोषण का निवारण करने से ज़्यादा फिक्र अपनी छवि का निर्माण करते हुए आने वाले चुनावों में अपना भविष्य सुनिश्चित करने की रहती है।
भुखमरी सूचकांक में भारत की स्थिति तो खराब है ही, वैश्विक परिदृश्य भी बहुत आश्वस्तिकारक नहीं है। लेकिन इससे हम अपने निकम्मेपन को नहीं ढक सकते। वह अपनी जगह है। अब एक नज़र इस सूचकांक में प्रकट हुए वैश्विक परिदृश्य पर भी डाल लेना उचित होगा। इस रिपोर्ट में बहुत साफ शब्दों में कहा गया है कि दुनिया के बड़े भाग में भूख से लड़ाई अच्छी तरह से नहीं लड़ी जा रही है। कम से कम 47 ऐसे देश हैं जिनमें 2030 तक भूख से मुक्ति वाला वैश्विक लक्ष्य पूरा होने की कोई उम्मीद नहीं है।
इसी के साथ यह बात भी कि भोजन सुरक्षा पर कई दिशाओं से मार पड़ रही है। कई देश आपसी लड़ाइयों में उलझे हैं तो अनेक जगहों पर मौसम अपना विकराल रूप दिखाकर और वैश्विक मौसम परिवर्तन कर अन्न की उपज को प्रतिकूलत: प्रभावित कर रही है। इन सबसे ऊपर यह बात कि कोविड-19 की वजह से पूरी दुनिया को गम्भीर आर्थिक और स्वास्थ्य विषयक आघात सहने पड़े हैं। सहारा के दक्षिण वाला अफ्रीका और दक्षिणी एशिया दुनिया के ऐसे हिस्से हैं जहां भूख अपने सर्वोच्च स्तर पर है। इन दोनों क्षेत्रों में भूख के नज़रिये से हालात गंभीर माने गए हैं। इनके अलावा, इस अध्ययन से यह भी पता चलता है कि कम से कम एक देश-सोमालिया- में हालात बहुत ही ज़्यादा चिंताजनक हैं। उसके अलावा कम से कम 09 देशों के हालात चिंताजनक और 37 देशों के हालात गंभीर हैं। रिपोर्ट में सबसे खास बात यह कही गई है कि भूख के मामले में पूरी दुनिया में अलग-अलग क्षेत्रों, देशों, जिलों और समुदायों के बीच अत्यधिक असमानता विद्यमान है और अगर इस असमानता को नियंत्रित नहीं किया गया तो संयुक्त राष्ट्र संघ के संघारणी विकास लक्ष्य (सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल) के कोई पीछे नहीं छूटना चाहिए अधिदेश को छू सकना नामुमकिन होगा। यह बहुत बड़ी चेतावनी है।
यह स्थिति विश्वगुरु भारत के लिए बहुत शर्मनाक है। हमारे देश में खाद्य उत्पादन इतना है कि सभी को आसानी से भोजन उपलब्ध कराया जा सकता है लेकिन बीच में वे कौन लोग हैं जिनकी भूख गरीबों तक दो रोटी का इंतजाम तक नहीं करने देती, क्यों भोजन सभी के लिये सुलभ नहीं है?
जवाब है किसी के पास, हर साल अनाज को सड़ा दिया जाता है या सड़ जाता है जिम्मेदार कौन है? भ्रष्टाचार की दीमक गरीबों का खाना चट कर जा रही हैं। ऐसे खाद्य पदार्थों की बर्बादी, मानव अस्तित्व के लिये जरूरी हक भोजन के अधिकार का उल्लंघन है। भोजन की बंदी विश्व के करोड़ों लोगों की सामाजिक सुरक्षा की उपेक्षा करती है। वर्तमान समय में देश विकास के पथ पर आगे बढ़ने का दावा करता है। विकास के संदर्भ में अपनी झूठी-सच्ची उपलब्धियों को गिनाते हैं। ऐसे में जब कोई ऐसा आँकड़ा सामने आ जाए जो आपको यह लगता नहीं कि अभी तो देश भूख जैसी समस्या को भी हल नहीं कर पाया है, तब विकास के आँकड़े झूठे लगने लगते हैं।
यह कैसा विकास है जिसमें बड़ी संख्या में लोगों को भोजन भी उपलब्ध नहीं है। सुरक्षा उपलब्ध नहीं हो। भारत के प्रदर्शन को देखते हुए मौजूदा कुपोषण स्थिति में सुधार की दिशा में किये जा रहे प्रयासों में महत्त्वपूर्ण बदलाव करने की आवश्यकता है। भारत ने वर्ष 2022 तक कुपोषण मुक्त भारत के लिये एक योजना विकसित की थी। इसके लिए क्यों नहीं समुचित प्रयास किए गए। सिर्फ यह कह देना पर्याप्त नहीं होगा कि आंकड़े भ्रामक हैं। वर्तमान रिपोर्ट को ध्यान में रखते हुए इस योजना में अपेक्षित सुधार किया जाना चाहिये।।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2023 के अनुसार, भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा खाद्य उत्पादक देश है। दूध, चावल, मछली, सब्जी तथा गेहूं उत्पादन में अग्रणी राष्ट्र होने तथा वैश्विक स्तर पर सबसे सस्ता पौष्टिक आहार भारत में उपलब्ध होने पर भी कुल जनसंख्या के एक-चौथाई से अधिक अंश का पोषाहार से वंचित रहना, निःसंदेह आश्चर्यजनक है। इसमें जहां व्यवस्थात्मक प्रबंधन की कमियां उजागर होती हैं, वहीं भारतीय संस्कृति के पारम्परिक आहार नियमन भी एक वजह है।
भारतीय सभ्यता में अन्न को देवत्व से जोड़ा गया है। परम्परानुसार भोजन व्यर्थ गंवाना अथवा झूठा छोड़ना सर्वथा निषेध है किंतु परिवर्तित जीवनशैली के आधार पर आयोजित भव्य समारोहों में परोसे गए विविध व्यंजनों का एक बड़ा हिस्सा आस्वादन अतिरेक में कूड़ेदान के हवाले कर दिया जाता है, जो कि अनेक जरूरतमंद लोगों का क्षुधा पूरक बन सकता था।
आज भी सरकारी व्यवस्था का असंतोषजनक व अव्यवस्थित होना सर्वाधिक विडंबना का विषय है। जहां लाखों लोग दाने-दाने को मोहताज हैं, वहीं प्रतिवर्ष लाखों टन अनाज कुव्यवस्था की भेंट चढ़ जाता है। पोषाहार व मुफ़्त अनाज आवंटन योजनाओं की विसंगति तथा सभी जरूरतमंद लोगों तक पहुंच बना पाना एक यक्ष प्रश्न है तो गुणवत्ता मूल्यांकन में अक्षरशः खरा उतरना एक संदेहास्पद विषय।
बड़ा प्रश्न है कि दुनिया में आधुनिक तकनीक एवं विज्ञान के सहारे जब भुखमरी के आंकड़े उजागर हो सकते हैं, तो ऐसी व्यवस्थाएं क्यों नहीं विकसित होती जो भुखमरी को रोक सके। जरूरत इस बात की है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस मसले पर गहराई से नजर रखने वाली संस्थाओं, विशेषज्ञों, तकनीकों सहित बड़ी तादाद में उच्च स्तर की व्यवस्थाएं मौजूद हैं, तो इसके दूरगामी हल के लिए ठोस नीतियां क्यों तैयार नहीं हो पाती ! क्यों नहीं भुखमरी पर नियंत्रण पाया जाता? उल्टे यह समस्या लगातार और गंभीर होती गई है।
दरअसल, संतुलित एवं संवेदनशील व्यवस्थाएं-नीतियां बनायी जाये और धरती पर मौजूद संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल को लेकर गंभीर प्रयास किए जाएं तो खाद्य असुरक्षा और भुखमरी के हालात से निपटने के रास्ते निकल सकते हैं। लेकिन युद्ध और अन्य बेमानी मामलों पर सारा धन खर्च करने और मौजूद संसाधनों को भी नष्ट किए जाने के कारण भुखमरी को लेकर विश्व समुदाय की ओर से गंभीरता नहीं दिखाई जाती, तो इसके पीछे किसका हित है? अभाव से जूझती आबादी को पोषणयुक्त संतुलित भोजन मुहैया कराने को लेकर चिंता जताई जाती है, लेकिन हकीकत यह है कि बहुत सारे लोगों को जीने के लिए न्यूनतम भोजन भी नहीं मिल पा रहा।
भोजन बनाना, परोसना, ग्रहण करना व बचे अन्न का सदुपयोग हमारे परम्परागत संस्कार हैं, इनकी अवहेलना से केवल विकार ही उत्पन्न होंगे और विकारों से आरोग्य व पोषकता की अपेक्षा कैसे व क्यों कर हो सकती है? आवश्यकतानुसार परोसना तथा मिल-बांटकर खाना ही हमारी सांस्कृतिक विलक्षणता है। वही व्यवस्था श्रेष्ठतम आंकी जा सकती है जो न केवल अन्न के मंडीकरण, भंडारण, वितरण आदि के समुचित प्रबंधन के प्रति निष्ठापूर्वक जिम्मेवार हो बल्कि निर्धनता, बेरोजगारी, महंगाई, अज्ञानता जैसी सामाजिक समस्याओं के उन्मूलन हेतु भी संकल्पबद्ध हो ताकि देश की प्रत्येक थाली में भरपेट संतुलित भोजन मिल पाए।
निश्चय ही भूख के संदर्भ में वैश्विक परिदृश्य बहुत आश्वस्त करने वाला नहीं है। लेकिन इससे हमें अपने कर्तव्य से विमुख हो जाने की छूट नहीं मिल जाती। अगर हम अपने को विश्व का एक प्रमुख देश मानते हैं और अपनी वैश्विक छवि के प्रति चिंतित हैं तो हमारा यह भी फर्ज़ है कि हम अपने नागरिकों को समुचित और पर्याप्त पोषण उपलब्ध कराए।
मूल सवाल आज गायब है मीडिया में फालतू के मुद्दों पर बवाल है। 17 अक्टूबर को भुखमरी की रिपोर्ट आती है। हमने-आपने देखा है क्या? किसी भी न्यूज़ चैनल ने सवाल जवाब किया है? इस रिपोर्ट पर चर्चा की है? नहीं ना। क्योंकि ये मुद्दा उनको टीआरपी नहीं देता। आपको-हमको ये मीडिया मरा हुआ समाज करार दे चुका है और ये तो यकीन मानिए कि समाज मर चुका है।
न्यूज चैनलों में बहस हो रही है, तमाम स्वनामधन्य संपादक महोदय बहस कर रहे हैं, सिवाय मूलभूत आवश्यकता के। भुखमरी और कुपोषण अब तो भाषणों से भी लापता हैं। हमारे देश में भूख खबर नहीं है। भूख, सुरक्षा, पर्यावरण पर सवाल उठते हैं तो मजमा नहीं लगता, मंडलियां नहीं जमतीं। एंकर ओए-ओए करके उछलते कूदते नहीं,चीखते चिल्लाते नहीं, संपादकों को स्वाभाविक सवाल नहीं दिखता।
आखिर में दुष्यंत जी की कुछ पंक्तियां … ‘भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ / आजकल दिल्ली में है, जेर-ए-बहस ये मुद्दा ॥