आज जब मैंने विश्व मानचित्र देखा। मुझे दो देश से नजर आए पहली ही दृष्टि में, जो थे, भारत और यूरोप। एक देश जिसने कई देशों को अपना गुलाम बनाया या यह कहें उपनिवेश बनाया। दूसरा भारत … तुरंत ही एक सवाल मेरे जेहन में दौड़ा कि क्या उपनिवेशवाद और राष्ट्रवाद कोई आपसी संबंध है। अगर हम देखे तो भारतीय राष्ट्रवाद या भारतीय जनता को राष्ट्र होने की अस्मिता शायद ब्रिटिश साम्राज्य की गुलामी से मुक्त होने में प्राप्त हुई जैसे कई इतिहासकारों का मानना है। भारतीय इतिहासकार शेखर बंदोपाध्याय उद्धृत कर रहा हूं-
The early nationalist school, as well as some of its later followers, while studying this process of nation-building, focused primarily on the supremacy of a nationalist ideology and a national consciousness to which all other forms of consciousness were assumed to have been subordinated. This awareness of the nation was based on a commonly shared antipathy towards colonial rule, a feeling of patriotism and an ideology rooted in a sense of pride in India’s ancient tradition. 1
एक बात को समझना थोड़ा आवश्यक हो जाता है। भारतीय बुद्धिजीवी का राष्ट्रवाद या यह कहें कि उपनिवेशवाद को जवाब कोई भीन बात ना होगी। कहीं ना कहीं भारतीय शुरुआती राष्ट्रवाद कुछ ऐसा ही था। इस विचार को समझने या उस दौर के, मतलब, शुरुआती राष्ट्रवाद उन्नीस सौ से लेकर 1920 तक भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग क्या सोच रहा था की पड़ताल हम उस युग के सबसे बड़े काव्यों में करेंगे।
ऊपर की गई बातचीत के आधार पर इस निबंध में हम राष्ट्रवाद और उपनिवेशवाद के नजरिए से प्रियप्रवास और भारत भारती पर एक नजर डालेंगे।
पहले प्रिय प्रवास पर एक संक्षिप्त वार्तालाप कर लेते हैं ।
विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने प्रियप्रवास जो कि पंडित अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की रचना है अपने साहित्य इतिहास में रोचक टिप्पणी दी है। जो मैं यहां उद्धृत कर रहा हूं।
प्रियप्रयास की रचना का एक उद्देश्य तो खड़ी बोली हिंदी में महाकाव्य के अभाव की पूर्ति करके यह दिखाना था कि इस भाषा में भी महाकाव्य रचा जा सकता है। साथ ही साथ प्रियप्रवास के माध्यम से हरिऔध ने कृष्ण कथा को नए मूल्यों के साँचे में ढालने का प्रयास किया। कृष्ण कथा की अलौकिक घटनाओं को बुद्धिसंगत एवं विश्वसनीय ढंग से प्रस्तुत करने की चेष्ट को जैसे गोवर्धन-धारण की घटना को उन्होंने इस रूप में प्रस्तुत किया
लख अपार-प्रसार गिरीन्द में।
ब्रज धराधिप के प्रिय पुत्र का
सकल लोग लगे कहने, उसे
रख लिया है उँगली पर श्याम ने।
अर्थात् कृष्ण ने इंद्र के कोप से लोगों को बचाने के लिए इतना उद्यम किया कि लोगों ने कहा कि उन्होंने गोवर्धन को अँगुली पर उठा लिया था। इसमें कृष्ण को केवल राधा से प्रेम करते नहीं चित्रित किया गया है। इसमें नवधा भक्ति की लोकपरक व्याख्या भी की गई है। इसमें कृष्ण को जननायक का रूप भी दे दिया गया है। तत्कालीन राजनीतिक दबाव तथा सामाजिक आंदोलनों का प्रभाव कृति में खुलकर पड़ा है। प्रियप्रवास में संस्कृत के अनेक छंदों का व्यव किया गया है, जो पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी का प्रभाव ज्ञात होता है। प्रियप्रवास को भाषा तत्सम बहुल है। कहाँ-कहीं तो केवल सहायक क्रिया ही हिंदी को है, बाकी पूरी पंक्ति संस्कृत की रूपोद्यान प्रफुल्लप्राय कलिका राकेन्द्र बिंबानना, श्री राधा मृदुभाषिणी मृगद्गी माधुर्य सन्मूर्ति थी।2
इसके साथ में एक पद प्रियप्रवास से भी उद्धृत करता चलता हूं-
बहु युवा युवती गृह-बालिका।
विपुल-बालक वृद्ध व्यस्क भी।
विवश से निकले निज गेह से।
स्वदृग का दुख-मोचन के लिए 3
प्रियप्रवास अपनी भूमिका जो हरिऔध जी ने लिखी है वह काफी दिलचस्प है। अगर आप इसको तर्क की कसौटी पर रखेंगे तो यह आपको काफी निरर्थक मालूम होगी परंतु यह अपने युग की सारी बातों पर बात करती है। उस में से महत्वपूर्ण बातें नीचे उद्धृत कर देता हूं, जो हमारे निबंध से संबंधित है।
जब से हिन्दी भाषा में खड़ी बोली की कविता का प्रचार हुआ है, तब से लोगों की दृष्टि संस्कृत-वृत्तों की ओर आकर्षित है, तथापि मैं यह कहूँगा कि भाषा में कविता के लिए संस्कृत-छन्दों का प्रयोग अब भी उत्तम दृष्टि से नहीं देखा जाता। हम लोगों के आचार्यवत् मान्य श्रीयुत् पण्डित बाल कृष्ण भट्ट अपनी द्वितीय साहित्य-सम्मेलन की स्वागत-सम्बंधिनी वक्तृता में कहते हैं
“आजकल छन्दों के चुनाव में भी लोगों की अजीब रुचि हो रही है; इन्द्रवज्रा, मन्द्राक्रान्ता, शिखरिणी आदि संस्कृत छन्दों का हिन्दी में अनुकरण हममें तो कुढ़न पैदा करता है।”4
जब तक खड़ी बोली की कविता में संस्कृत के ललित-वृत्तों की योजना न होगी तब तक भारत के अन्य प्रान्तों के विद्वान् उससे सच्चा आनन्द कैसे उठा सकते हैं? यदि राष्ट्रभाषा हिन्दी के काव्य-ग्रन्थों का स्वाद अन्य प्रान्तवालों को भी चखाना है, तो उन्हें संस्कृत के मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी, मालिनी, पृथ्वी, वसंततिलका, शार्दूलविक्रीड़ित आदि ललित वृत्तों से अलंकृत करना चाहिए। भारत के भिन्न-भिन्न प्रान्तों के निवासी विद्वान् संस्कृत-भाषा के वृत्तों से अधिक परिचित हैं, इसका कारण यही है कि संस्कृत भारतवर्ष की पूज्य और प्राचीन भाषा है। भाषा का गौरव बढ़ाने के लिए काव्य में अनके प्रकार के ललित वृत्तों और नूतन छन्दों का भी समावेश होना चाहिए।5
प्रियप्रवास’ की भाषा संस्कृत-गर्भित है। उसमें हिन्दी के स्थान पर संस्कृत का रंग अधिक है। अनेक विद्वान् सज्जन इससे रुष्ट होंगे, कहेंगे कि यदि इस भाषा में ‘प्रियप्रवास’ लिखा गया तो अच्छा होता यदि संस्कृत में ही यह ग्रन्थ लिखा जाता। कोई भाषा-मर्म्मज्ञ सोचेंगे इस प्रकार संस्कृत-शब्दों को ठूँसकर भाषा के प्रकृत रूप को नष्ट करने की चेष्टा करना नितान्त गर्हित कार्य है। 6
दक्षिण का सादी नामक एक आदिम उर्दू कवि बतलाया जाता है। उसकी कविता का नमूना यह है-
हम तुम्हन को दिल दिया , तुम दिल लिया और दुख दिया।
हम यह किया तुम वह किया , ऐसी भली यह मीत है॥
वली भी उर्दू का आदिम कवि है, उसकी कविता का भी उदाहरण अवलोकन कीजिए
दिल वली का ले लिया दिल्ली ने छीन।
जा कहो कोई मुहम्मद शाह सों॥
इन दोनों के उपरान्त ही शाह मुबारक का समय है, उसकी कविता का ढंग यह है
मत कष्ह्न सेतीं हाथ में ले दिल हमारे को।
जलता है क्यों पकड़ता है जालिम अंगारे को॥
ऊपर की कविताओं से प्रकट है कि पहले मुसलमान कवियों ने जो रचना की है, उसमें या तो हिन्दी-पदों और शब्दों को बिल्कुल फारसी पदों या शब्दों से अलग रखा है, या फारसी अरबी शब्दों को मिलाया है तो बहुत ही कम; अधिकांश हिन्दी शब्दों से ही काम लिया है, किन्तु आगे चलकर समय ने पलटा खाया और निम्नलिखित प्रकार की कविता होने लगी
नूर पैदा है जमाले यार के साया तले।
गुल है शरमिन्दा रुखे दिलदार के साया तले॥
नासिंख़
आफ ता बे हश्र है या रब कि निकाला गर्म गर्म।
कोई ऑंसू दिलजलों के दीदये ग़मनाक से॥
न लौह गोर पै मस्ती के हो न हो तावीज़।
जो हो तो ख़िश्ते खुमे मैं कोई निशाँ के लिये॥
ज़ौक
खमोशी में निहाँ खूँगश्ता लाखों आरजूयें हैं।
चिराग़े मुर्दा हूँ मैं बेज़बाँ गोरे ग़रीबाँ का॥
नक्श्श नाज़े बुतेतन्नाजश् ब आग़ोश र की ब।
पायताऊस पये जामये मानी माँगे॥
यह तूफा ं गाह जोशेइजतिराबे शाम तनहाई।
शोआये आफ ता बे सुब्हमहशरतारे बिस्तर है॥
लबे ईसा की जुम्बिश करती है गहवारा जुँबानी।
क या मत कुश्तये लाले बुताँ का ख्वाबे संगीं है॥
ग़ालिब 7
इन सब विचारों पर बात करने से पहले हम एक बार भारत भारती पर भी एक नजर डाल लेते हैं
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने मैथिलीशरण गुप्त के बारे में खूब कहा है जो मैं यहां फिर से उद्धृत कर रहा हूं
गुप्त जी की और पहले पहल हिंदी प्रेमियों का सबसे अधिक ध्यान खींचने वाली उनको ‘भारत भारती’ निकली इसमें ‘मुसद्दस हाली’ के ढंग पर भारतीयों की या हिंदुओं की भूत और वर्तमान दशाओं को विषमता दिखाई गयी है; भविष्यनिरूपण का प्रयत्न नहीं है। यद्यपि काव्य की विशिष्ट पदावली, रसात्मक चित्रण, वाग्वैचित्य इत्यादि का विधान इसमें न था, पर बीच में मार्मिक तथ्यों का समावेश बहुत साफ और सीधी-सादी भाषा में होने से यह पुस्तक स्वदेश की ममता से पूर्ण नवयुवकों को बहुत प्रिय हुई। प्रस्तुत विषय को काव्य का पूर्ण स्वरूप न दे सकने पर भी इसने हिंदी कविता के लिए खड़ी बोली को उपयुक्ता अच्छी तरह सिद्ध कर दी।8
गुप्त जी वास्तव में सामंजस्यवादी कवि है; प्रतिक्रिया का प्रदर्शन करने वाले अथवा मद में झूमने (या झीमने) वाले कवि नहीं। सब प्रकार की उच्चता से प्रभावित होने वाला हृदय उन्हें प्राप्त है। प्राचीन के प्रति पूज्य भाव और नवीन के प्रति उत्साह दोनों इनमें हैं। इनकी रचना के कई प्रकार के नमूने नीचे दिये जाते हैं-
क्षत्रिय! सुनो अब तो कुयश की कालिमा को भेंट दो।
निज देश को जीवन सहित तन-मन तथा धन भेंट दो॥
वैश्यो! सुनो व्यापार सारा मिट चुका है देश का
सब धन विदेशी हर रहे हैं, पार है क्या क्लेश का ? 9
यह बात बहुत स्पष्ट है कि मुसद्दस में हाली और भारत भारती में मैथिलीशरण गुप्त काफी एक जैसी बात लिख रहे थे तो नीचे में हाली के मुसद्दस में लिखी भूमिका का अंश उद्धृत कर रहा हूं
Learning is dead and even though faithstill exists, it is only in name. Every household is penurious, most bellies are empty. Morality has been ruined and its decline continues. Black clouds of bigotry overshadow the Quom. Customs And traditions have shackled each one’s feet. All weighed down by ignorance and blind imitation of the past. Power elite who may have been able to help are oblivious and carefree, intellectual elite who have a great stake in reform are unaware of the need and impulse of time.10
अब कुछ उद्धृत करता चलूं तो अच्छा होगा, अंत में हम इन सब उदाहरणों पर विचार करते हुए उपनिवेशवाद और राष्ट्रवाद का आपसी संबंध समझने का प्रयास करेंगे।
हम कौन थे, क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभा, आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी यद्यपि हमें इतिहास अपना प्राप्त पूरा है नहीं, हम कौन थे, इस ज्ञान को, फिर भी अधूरा है नहीं 11
यह नियम है, उद्यान में पक कर गिरे पत्ते जहाँ, प्रकटित हुए पीछे उन्हीं के लहलहे पल्लव वहाँ । पर हाय ! इस उद्यान का कुछ दूसरा ही हाल है पतझड़ कहें या सूखना, कायापलट या काल है 12
इसके बारे एक बार साकेत मैं कुछ पर भी देख ले क्योंकि यह वह भारत भारती के विचार को समझने की सहायता करेंगे इस विचार से मैं त्रिपाठी जी के हिंदी साहित्य का सरल इतिहास में से कुछ अंश उद्धृत कर रहा हूं
वे लोक की महिमा प्रतिष्ठित करनेवाले रचनाकार हैं। साकेत के राम घोषणा करते हैं
संदेश नहीं मैं यहाँ स्वर्ग का लाया,
इस धरती को ही स्वर्ग बनाने आया।
गुप्त जी मानववादी रचनाकार हैं। राम के प्रति उनका यह निवेदन इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है
राम तुम मानव हो, ईश्वर नहीं हो क्या ? तब मैं निरीश्वर हूँ, ईश्वर क्षमा करें।
प्राचीन कथा में नया भाव-बोध भरने का उद्योग हरिऔध ने प्रियप्रवास में किया था। गुप्त जी ने भी वही काम साकेत में किया। किंतु गुप्त जी की संवेदना व्यापक तो थी ही, उनमें रचनात्मक क्षमता भी अधिक थी। इसीलिए उनकी रचनाओं में प्राचीन आख्यानों में आधुनिक बोध कलात्मकता के साथ रच-बस गया है और उतरा कर अलग नहीं दिखाई पड़ता।13
किसी प्रकार का उदाहरण मैं प्रणय कृष्ण के शब्दों में उद्धृत कर रहा हूं उनके लेख साकेत का अष्टम सर्ग कुछ विचार वह इस लेख में सभ्यता समीक्षा और उपनिवेशवाद का संबंध तलाश रहे हैं। उनके लेख की अपनी समस्याएं हैं जिनको हम अपने निबंध के दायरे में लाएंगे परंतु प्रियप्रवास की वैज्ञानिक तार्किकता के साथ गुप्त जी की भी एक तार्किकता को समझने का प्रयास करते हैं-
पौधों को पानी देती सीता से राम कहते हैं “पौधे? सींचो ही नहीं उन्हें गोड़ो भी/ डालों को चाहो जिधर उधर मोड़ो भी”
प्रत्युत्तर में सीता कहती हैं-
पुरुषों को तो बस राजनीति की बातें नृप में, माली में काट-छांट की घातें प्राणेश्वर, उपवन नहीं, किंतु यह वन है बढ़ते हैं विटपी जिधर चाहता मन है बंधन ही का तो नाम नहीं जनपद है ? देखो कैसा स्वच्छंद यहां लघु नद है 14
इसी उद्धरण के साथ हम अपने उपनिवेशवाद और राष्ट्रवाद को समझने की दिशा में बढ़ सकते हैं।
अगर हम इन सब उद्धरणों पर राष्ट्रवाद को समझने का प्रयास करें तो कुछ बातें स्पष्ट रूप से नजर आएंगे सर्वप्रथम विज्ञानिक तार्किकता जरूर, जिसका जिक्र हरिऔध अपनी रचना में कृष्ण और गोवर्धन पर्वत की कहानी में दिखाते हैं परंतु सवाल यह खड़ा होता है कि यह विचार उत्पन्न कहां से हुआ है?
इसका जवाब काफी सरल है, उपनिवेशवाद के चलते जो भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग तैयार हुआ उस पर अंग्रेजी शिक्षा का असर साफ नजर आ सकता है उसके सोचने और समझने में वह तार्किकता जो यूरोप में बनी थी उसका असर नजर आया।
दूसरी बार किसी को अगर हम आगे सोचे तो एक बात स्पष्ट है कि मैथिलीशरण गुप्त इस देश को एक बगीचा या गुलिस्ता कहते हैं यही बड़ा रोचक रूपक है। इसकी एक खासियत है कि यह मानव निर्मित होता है किसी वन की तरह ऐसे ही नहीं होता कि अपनी कुछ विशेषताएं होती हैं जैसे कि इसके फूल चुनिंदा होते हैं एक परिधि में बंधा हुआ होता है तो इसी को इसी तरह समझने की हरिऔध हिंदी उर्दू विवाद हाली भारतीय मुस्लिम वर्ग और तीसरा गुप्त जी हम जब कहते हैं तो उनका तात्पर्य हिंदू जनता से होता है और यह तीनों अपना अपना बगीचा इस तरह बनाते हैं।
स्वर्ण युग की तलाश उपनिवेशवाद के चलते जो यह विचार निर्मित हुआ कि हम पहले बहुत अच्छे थे फिर खराब हो गए जो यूरोपीय इतिहास या समाज को समझने का तरीका भारत पर हुबहू लागू किया गया उसका परिणाम था। उसके जवाब में शायद भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग इस की तलाश करता रहा। गुप्तजी का अतीत कन्या हिंदी का संस्कृत से जुड़ा इसी प्रक्रिया का हिस्सा है हाली का शेर इस बात को स्पष्ट कर देता है।
कभी ऐ इल्म ओ हुन घर था तुम्हारा दिल्ली
हम को भूले हो तो घर भूल न जाना हरगिज़ अल्ताफ़ हुसैन हाली15
हम इन तीनों बातों को देखें तो एक बात स्पष्ट रूप से हमारे सामने आएगी। यह सब उपनिवेशवाद की प्रक्रिया थी कुल मिला कर गुप्त जी जब भी अपनी किताब के किसी अतीत खंड के हिस्से को प्रमाणित बताते तो वह किसी अंग्रेज इतिहासकार को उद्धृत करते हैं। इस चीज को अगर इस प्रकार देखें कि शायद भारतीय समाज अपनी जो छवि का निर्माण कर रहा था वह एक स्केच की तरह थी और उपनिवेशवाद या ब्रिटिश साम्राज्य उसका विवरण दे रहा था भारतीय समाज अपनी छवि वैसी ही निर्मित कर रहा था।
तो कहीं ना कहीं अगर हम भारतीय समाज की सभ्यता समीक्षा की बात करें तो हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि हमारी बुद्धिजीवी वर्ग की काफी सारी स्मृतियां खासकर 1910 और 1920 तक के वक्त की स्मृतियाँ उपनिवेशवाद की उपज है।