अपने ही शहर के एक सिग्नल पर जाम की लंबी कतार के चलते खड़े-खड़े एक ही जगह पर दो बार लाल बत्ती जली मिली और साथ ही मिला एक सदमा !
जी, हाँ! सदमा उस सीन को देखकर जो था तो पूरा फिल्मी जैसा, मगर असली। लगभग आठ -नौ साल का तीन -चार फुट का मरी हत्या सा एक लड़का गाडियों के बीच से जिग -जैग पैटर्न बनाकर बदहवास भाग रहा था, जिसका पीछा तीन पुलिसकर्मी कर रहे थे। ट्रैफिक जाम में गाड़ी बढ़ने से पहले ही,वे पुलिसकर्मी पीछे कहीं से लड़के की कॉलर और कलाई पकड़कर लाते हुये दिखे। बच्चे के चेहर पर कोई शिकन या भय नहीं, बल्कि एक व्यंग्य भरी मुस्कान थी! मानो कह रहा हो कि ‘खूब छकाया ना,देखता हूँ क्या कर लोगे?’
चौराहे से आगे जाकर फलों के ठेले पर पूरा मामला पता लगा। अपनी गाड़ी का शीशा नीचा करके कोई महानुभाव उस बालक की हथेली पर भीख रूपी सिक्के रख रहे थे, और मौका पाते ही लड़का उनका स्टीयरिंग व्हील के नीचे रखा वॉलेट ले भागा। भीड़ भरा इलाका होने के कारण सिग्नल पर कुछ पुलिसकर्मी मौजूद थे, तभी वो भी उसके पीछे भाग लिये और धर पकड़ा उस लड़के को।
मगर मैं ये सोचती हूँ, कि गलती आखिर किसकी है? आये दिन ऐसी वारदातें हम अखबार में चुस्कियों के संग सरसरी नज़र से पढ़ते हैं। अंततः अखबार को स्टोर की रद्दी में रख आते हैं। हम इन हालातों पर ना तो कभी गौर करते हैं और ना ही तृणमात्र विचार-मंथन ही करते हैं!
लेकिन मैंने मनन किया; बहुत बार किया है । इसी कारण बहुत सालों से ट्रैफिक सिग्नल पर या बाज़ारों में, मंदिरों के आसपास, पर्यटन स्थलों पे भीख के लिये हाथ फैलाते बच्चों, बड़ों व बूढ़ों को कुछ भी भिक्षा के रूप में रुपये-पैसे देना बंद कर दिया है।
भिक्षा के इस व्यवसाय में मैंने तो मेरा कंट्रीब्यूशन बिलकुल ही खत्म कर दिया है।
जरूरतमंदों की मदद हेतु, इसे छोड़कर और भी बहुत से तरीके हैं, जिन्हें अपना कर भी हम अपना बेहतर योगदान दे सकते हैं। यही एक सबसे आसान और ‘पिंड छूटे’ वाला गलत तरीका ही क्यूँ कर अपनायें हम?
इस व्यवसाय को करने के लिये जहाँ मदद के ढ़ेरों तरीके हैं, वहीं इस व्यवसाय की आड़ में अनेकों गैरकानूनी कामों के भी बारे-न्यारे हैं! व्यवसाय शब्द इसलिए प्रयोग में ला रही हूँ, क्योंकि पैसों की ज़रूरतें पूरी करने को ये कार्य एक सोचा समझा चलन, एक धंधा बना लिया गया है। इस धंधे की खासियत यह है कि- चंद महीनों के बच्चे से लेकर अच्छे खासे उम्रदराज़ बुजुर्ग भी इसमें शामिल रहते हैं।
भिक्षा का चलन कोई आज का चलन नहीं है! ये तो वैदिककाल से चला आ रहा है। जिसमें, सन्यास आश्रम में रह रहे भिक्षुक या तरुण बृह्मचारी घर-घर जाकर भिक्षा माँगा करते थे।
प्राचीनकाल से चलती चली आ रही इस परंपरा ने आज वर्तमान में अपना रूप,अत्यधिक विकृत कर लिया है।
प्राचीन शिक्षण संस्थानों में एक आवश्यक पाठ की तरह सिखाया जाने वाला यह संस्कार व्यक्ति को समाज की नम्रता, उदारता, सहानुभूति व सहायता का बोध कराने हेतु हुआ करता था। बाल्यकाल से ही ये गुण सिखाया जाता था! ताकि वो अपनी शिक्षा ग्रहण कर सकें। जिससे वो ये भान कर सकें कि-जिस समाज की उदारता व सहायता के द्वारा वे शिक्षा ग्रहण कर पा रहे हैं,आगे के भावी जीवन में इसी समाज का ये ऋण, समाज के विकास व प्रगति में योगदान देकर उन्हें चुकाना होगा।
भिक्षुक कोई विद्यार्थी हो या साधु- सन्यासी,प्राचीनकाल में वो अपनी आवश्यकता मात्र जितनी ही भिक्षा लेकर संतुष्ट होते थे। उससे ज्यादा झोली भरना, उस शैक्षिक नियम का उल्लंघन माना जाता था।
मेरे स्वयं के परिवार में विवाह से पूर्व वरपक्ष की रस्मों में जनेऊ, पट्टी- पूजन के साथ- साथ “भिक्षाम् देहि” भी एक विशेष रस्म होती है। इस रस्म में वर धोती कुर्ता पहन कर, जनेऊ धारण कर के, पैरों में खडाऊँ डालकर अपने कंधे पर पोटली लटका कर व हाथ में लाठी लेकर कुटुम्ब- परिवार के हर सदस्य के पास जाकर भिक्षा माँगता है।
आज के समय में भिक्षा और भिक्षुक से जुड़ी इस परम्परा को इतना ज्यादा कुरूपित और भद्दा कर दिया गया है कि- सहायता, दया, उदारता नहीं बल्कि घृणा के भाव उत्पन्न हो उठते हैं ।
प्राचीन भारत की इस परम्परा के माध्यम से शिक्षार्थी जहाँ आत्मनिर्भरता के साथ- साथ स्नेह व सम्मान पाता था वहीं, आज वर्तमान समय में स्वैच्छिक भिक्षु अभद्र भाषा व व्यवहार को प्राप्त करता है।
भिक्षा कभी बुरी तो कतई नहीं थी! इसे तो व्यक्तिगत स्वार्थ व लालच के द्वारा एक विकराल दैत्य-सा बना दिया गया है। चंद रैकेट्स, माफिया और कामचोर-मक्कार लोगों ने, इस परंपरा को धंधा बना कर अभिशप्त कर दिया है।
इसकी आड़ में ह्यूमन ट्रैफिकिंग,ड्रग्स,चोरी- डकैती, हत्या जैसे कामों को बढ़ावा मिला है । इंसानियत व आत्मसम्मान को ताक पर रखकर यहाँ लालच और अपराधों की सुरसा निरन्तर अपना मुँह फाड़े ही चली जा रही है। ये माँगने वाले ना तो सम्मान पाने की चाह रखते हैं ,ना ही, वो आत्मनिर्भरता को समझते हैं!वो बस इसी दलदल में धँसे रहना चाहते हैं।
बहुत आसान होता है फैली हथेली पर सिक्का रख देना और समाज के प्रति इस तरह अपनी जिम्मेदारी पूरी कर के आगे बढ़ जाना। पर…क्या कभी थम कर सोचा है कि- सुबह से रात तक अनगिनत गाड़ियों के निकलने पर यही भिक्षुक लगातार सबसे ही माँगते हैं! और, तो और इन्हें देने वाले भी कम नहीं हैं! कमर पर लटके भूखे बच्चे के लिये दूध की दुहाई देती महिला फिर- फिर कर, हर दिन वही दुहाई देती दिखती है! और हरी बत्ती होने पर यही लोग डिवाइडर की ग्रीन बेल्ट में हँसी ठठ्ठा करते, बीड़ी सुलगाते दिखते हैं।
माँ- बाप वहीं धुत्त पड़े होते हैं और नन्हे-नन्हे बच्चे- बच्चियों का बचपन… हाथों में किताबों, पेंसिल- कटर की जगह चालाकियों के ब्लेड लिये घूमता है।
मुझे याद है- एक बार उज्जैन के बाजार में मशहूर मिठाई की दुकान पर अपना पैकिंग का ऑर्डर देकर खड़ी थी,तभी एक भिखारिन दस- बीस रुपये माँगने लगी! भूख की दुहाई देकर। लोहे के पहियेदार लकड़ी के फट्टे पर एक बीमार-सा बुजुर्ग भी लेकर चल रही थी वो। मैंने उसे कहा कि-“दोनों को भरपेट खाना खिला देती हूँ,जो भी चाहेंगी वही! मगर वो जिद् पर रही कि रुपये ही दूँ उसे। मेरे साथी ने चिप्स का पैकेट खोलकर भी दिया, मगर वो भी नहीं लिया उसने।
थमकर सोचना बनता है यहाँ कि यदि कोई सुबह से भूखा है तो भरपेट खाने के लिये कैसे इंकार कर रहा है।
बच्चे के भूखे पेट होने का बोलकर दूध की दुहाई देती औरत, किसी टपरी से दूध दिलवाने का ऑफर आखिर क्यूँ ठुकरा देती है?
“साब सुबह से कुछ भी नहीं खाया” – बोलते नन्हे बालक समोसे- कचौड़ी या खाने का ऑफर ठुकरा कर सिर्फ़ रुपये-पैसे की ही माँग क्यूँ करते हैं?
विदेशों में भी ये भिक्षा का चलन है, परंतु वहाँ सूखी भिक्षा नहीं! अपितु कुछ हुनर दिखाकर, गाकर, बजाकर वो इसे उस कार्य के बदले या मनोरंजन के बदले अर्जित करते हैं। जिसमें उन्हें व उनकी कला को उचित सम्मान भी मिलता है ।
दुःखद है कि हमारे देश में इस परंपरा को मैला धंधा बना दिया गया है।
फटेहाल लोगों से इतर कुछ धवल वस्त्रों को पहने लोग भी मोहल्लों- मोहल्लों जाकर बेटी की शादी की दुहाई या बालिका के कर्णछेदन की रस्म, बालक की बीमारी के उपचार के बहाने, भंडारे या धार्मिक चंदे के नाम पर भी बहुत से लोग , इस धंधे की बदनियती में बरकत कर रहे हैं ।
क्या हमारा फर्ज़ नहीं बनता कि ठीक से छानबीन करें या करवायें। चंदों व भंडारों की रशीद लें व उसकी भी खोज- खबर रखें ।
सच तो ये है कि…हम सायास या अनायास इस गंदे धंधे में अपना- अपना कंट्रीब्यूशन दिये जा रहे हैं। जबकि मदद के लिये ढ़ेरों तरीके मौजूद हैं ।
कब समझेंगे हम कि इन भिक्षुओं की लत को खुराक की नहीं! वरन् एक स्वस्थ समझाइश की, आत्मनिर्भर बनने की, शिक्षित करने की आवश्यकता है । ना कि-उनकी हथेली पर सिक्के रखकर उन्हें और भी नाकारा बना देनी की, ना ही उनके माफिया की झोली भरने की ।
अनेकों संस्थायें आज इस पर कार्य भी कर रही हैं। तो,क्यूँ ना बतौर वॉलेंटियर हम उनसे जुड़ कर अपना सार्थक कंट्रीब्यूशन दें ।
सोचिये, मनन करिये, गौर करिये ऑकड़ों पर, वजहों पर, तरीकों व बहानों पर! कि क्या हमें इस तरह की भिक्षा व भिक्षुओं को बढ़ावा देना चाहिये?
क्या हमारा ऐसा बिना सोचे- समझे वाला योगदान विकास की ओर ले जायेगा या फिर पतन की ओर ?
सोचिये, सोचने के, विचार करने के पैसे थोड़े ना लगते हैं!-तनिक सा समय लगता है बस! तो ,अपना ये समय किसी सार्थक प्रयास की दिशा में लगाईये। ।
दीजिये ना, फिर एक स्वस्थ सोच के पाले में अपना अदद् सो कॉल्ड “कंट्रीब्यूशन” ।