(पुण्यतिथि 20 जुलाई)
साठ के दशक की बात है, पटना में बसों के परमिट दिए जाने थे, सैकड़ों लोगों ने आवेदन किया हुआ था। लाइन में एक पैंतालीस-पचास साला व्यक्ति भी था। जब वो पटना के कमिश्नर से मिला और उसने अपना नाम बताया और कहा कि वह एक स्वतंत्रता सेनानी है। पटना के कमिश्नर ने पूछा कि सर, आप स्वतंत्रता सेनानी हैं, मैं यह कैसे मान लूं, आपके पास तो स्वतंत्रता सेनानी वाला सर्टिफिकेट भी नहीं है, पहले लाइए, तब मानूंगा l
कौन था ये व्यक्ति? ये व्यक्ति वो था जिसके सिर पर जिम्मेदारी थी 1929 में सेंट्रल असेंबली में बम फोड़ने की। आखिरी वक्त में उसके साथ सुखदेव को हटाकर भगत सिंह को कर दिया गया। दोनों ने 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह के साथ मिलकर सेंट्रल असेंबली में दो बम फोड़े और गिरफ्तारी दी।
सोचिए, आज भगत सिंह को ही नहीं, उनके पूरे खानदान को देश जानता है। तमाम नेता उनके बच्चों के भी पैर छूते हैं और दूसरी तरफ उसी बम कांड में भगत सिंह के सहयोगी क्रांतिकारी से देश की आजादी के बाद स्वतंत्रता सेनानी होने का सर्टिफिकेट मांगा जाता हालांकि बस परमिट वाली बात पता चलते ही देश के राष्ट्रपति बाबू राजेंद्र प्रसाद ने बाद में उनसे माफी मांगी थी।
बटुकेश्वर यूं तो बंगाली थे। बर्दवान से 22 किलोमीटर दूर 18 नवंबर 1910 को एक गांव औरी में पैदा हुए बटुकेश्वर को बीके दत्त, बट्टू और मोहन के नाम से जाना जाता था। हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए वो कानपुर आ गए। कानपुर शहर में ही उनकी मुलाकात चंद्रशेखर आजाद से हुई। उन दिनों चंद्रशेखर आजाद झांसी, कानपुर और इलाहाबाद के इलाकों में अपनी क्रांतिकारी गतिविधियां चला रहे थे। 1924 में भगत सिंह भी वहां आए। देशप्रेम के प्रति उनके जज्बे को देखकर भगत सिंह उनको पहली मुलाकात से ही दोस्त मानने लगे थे। 1928 में जब हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का गठन चंद्रशेखर आजाद की अगुआई में हुआ, तो बटुकेश्वर दत्त भी उसके अहम सदस्य थे। बम बनाने के लिए बटुकेश्वर दत्त ने खास ट्रेनिंग ली और इसमें महारत हासिल कर ली।
8 अप्रैल 1929 का दिन था, पब्लिक सेफ्टी बिल पेश किया जाना था। बटुकेश्वर बचते-बचाते किसी तरह भगत सिंह के साथ दो बम सेंट्रल असेंबली में अंदर ले जाने में कामयाब हो गए। जैसे ही बिल पेश हुआ, विजिटर गैलरी में मौजूद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त उठे और दो बम उस तरफ उछाल दिए जहां बेंच खाली थी। जॉर्ज सस्टर और बी.दलाल समेत थोड़े से लोग घायल हुए, लेकिन बम ज्यादा शक्तिशाली नहीं थे, सो धुआं तो भरा, लेकिन किसी की जान को कोई खतरा नहीं था। बम के साथ-साथ दोनों ने वो पर्चे भी फेंके, गिरफ्तारी से पहले दोनों ने इंकलाब जिंदाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद जैसे नारे भी लगाए। दस मिनट के अंदर असेंबली फिर शुरू हुई और फिर स्थगित कर दी गई।
हालांकि मोटे तौर पर कोर्ट ने ये मान लिया कि बम किसी की जान लेने के इरादे से नहीं फेंका गया था। ऐसे में बटुकेश्वर दत्त को कालापानी की सजा हुई, लेकिन भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के सर पर सांडर्स की हत्या का इल्जाम भी था, सो उन्हें फांसी की सजा सुना दी गई।
बटुकेश्वर ने कालापानी की सजा में काफी अत्याचार सहन किए, जो पल-पल फांसी के समान थे। जेल में ही बटुकेश्वर को टीबी की बीमारी ने घेर लिया। उस वक्त इतना अच्छा इलाज भी नहीं था। 1933 और 1937 में उन्होंने जेल के अंदर ही अमानवीय अत्याचारों के चलते दो बार भूख हड़ताल भी की। अखबारों में खबर छपी तो 1937 में उन्हें बिहार के बांकीपुर केंद्रीय कारागार में शिफ्ट कर दिया गया और अगले साल रिहा भी कर दिया गया।
एक तो टीबी की बीमारी और दूसरे उनके सारे साथी भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, भगवती चरण बोहरा, राजगुरु, सुखदेव सभी एक-एक करके दुनिया से विदा हो चुके थे। ऐसे में पहले उन्होंने इलाज करवाया, और फिर से कूद पड़े देश की आजादी के आंदोलन में। लेकिन इस बार कोई क्रांतिकारी साथ नहीं था। बटुकेश्वर ने भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया और गिरफ्तार हो गए। 1945 में उन्हें जेल से रिहाई मिली।
आधी से ज्यादा जिंदगी देश की लड़ाई में गुजर चुकी थी। हौसला बढ़ाने वाले सारे साथी साथ छोड़ चुके थे। देश आजाद हुआ तो अब कोई मकसद भी सामने नहीं था। बटुकेश्वर ने शादी कर ली और एक नई लड़ाई शुरू हो गई। गृहस्थी जमाने की। आजादी की खातिर 15 साल जेल की सलाखों के पीछे गुजारने वाले बटुकेश्वर दत्त को आजाद भारत में रोजगार मिला, एक सिगरेट कंपनी में एजेंट का, जिससे वह पटना की सड़कों पर खाक छानने को विवश हो गए। बाद में उन्होंने बिस्कुट और डबलरोटी का एक छोटा सा कारखाना खोला, लेकिन उसमें काफी घाटा हो गया और जल्द ही वह बंद हो गया। कुछ समय तक टूरिस्ट एजेंट एवं बस परिवहन का काम भी किया, परंतु एक के बाद एक कामों में असफलता ही उनके हाथ लगी। पत्नी अंजलि को एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना पड़ा।
उन्होंने किसी से सरकारी मदद नहीं मांगी, लेकिन 1963 में उन्हें विधान परिषद सदस्य बना दिया गया। लेकिन उनके हालात में कोई फर्क नहीं आया। बटुकेश्वर को 1964 में अचानक बीमार होने के बाद गंभीर हालत में पटना के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया। इस पर उनके मित्र चमनलाल आजाद ने एक लेख में लिखा, क्या दत्त जैसे क्रांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए? परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी भूल की है।
इस लेख से सत्ता के गलियारों में हड़कंप मच गया और अबुल कलाम आजाद केंद्रीय गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा और पंजाब के मंत्री भीमलाल सच्चर से मिले। पंजाब सरकार ने एक हजार रुपये का चेक बिहार सरकार को भेजकर वहां के मुख्यमंत्री केबी सहाय को लिखा कि यदि वे उनका इलाज कराने में सक्षम नहीं हैं, तो वह उनका दिल्ली या चंडीगढ़ में इलाज का व्यय वहन करने को तैयार हैं।
बिहार सरकार अब हरकत में आई और पटना मेडिकल कॉलेज में सीनियर डॉक्टर मुखोपाध्याय ने दत्त का इलाज शुरू किया। मगर उनकी हालत बिगड़ती गई, क्योंकि उन्हें सही इलाज नहीं मिल पाया था और 22 नवंबर 1964 को उन्हें दिल्ली लाया गया। दिल्ली पहुंचने पर उन्होंने पत्रकारों से कहा था-मुझे स्वप्न में भी ख्याल न था कि मैं उस दिल्ली में जहां मैने बम डाला था, एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लाया जाऊंगा। बाद में पता चला कि दत्त बाबू को कैंसर है।
दत्त को सफदरजंग अस्पताल में भर्ती किया गया। पीठ में असहनीय दर्द के इलाज के लिए किए जाने वाले कोबाल्ट ट्रीटमेंट की व्यवस्था केवल एम्स में थी, लेकिन वहां भी कमरा मिलने में देरी हुई। 23 नवंबर को पहली दफा उन्हें कोबाल्ट ट्रीटमेंट दिया गया और 11 दिसंबर को उन्हें एम्स में भर्ती किया गया। पंजाब के मुख्यमंत्री रामकिशन जब दत्त से मिलने पहुंचे और उन्होंने पूछ लिया, हम आपको कुछ देना चाहते हैं, जो भी आपकी इच्छा हो मांग लीजिए। छलछलाई आंखों और फीकी मुस्कान के साथ उन्होंने कहा, मुझे कुछ नहीं चाहिए। बस मेरी यही अंतिम इच्छा है कि मेरा दाह संस्कार मेरे मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए।
17 जुलाई को वह कोमा में चले गए और 20 जुलाई 1965 की रात 1 बजकर 50 मिनट पर बटुकेश्वर इस दुनिया से विदा हो गए। उनका अंतिम संस्कार उनकी इच्छा के मुताबिक भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की समाधि के निकट किया गया। ये अलग बात है कि आज भी कोई नेता वहां जाता है, तो उन तीनों की समाधि पर श्रद्धांजलि देने के बाद ही वापस लौट आता है, बटुकेश्वर की समाधि उन्हीं की तरह उपेक्षित रहती है। उपेक्षा का भाव इस कदर है कि अगर आज बटुकेश्वर, सुखदेव और राजगुरु की तस्वीरें एक साथ रख दी जाएं तो कोई तीनों को अलग-अलग करके नहीं पहचान पाएगा, आज की पीढ़ी तो बिलकुल नहीं।
जब बटुकेश्वर आजीवन कारावास से रिहा हुए तो सबसे पहले दिल्ली में उस जगह पहुंचे जहां उन्हें और भगत सिंह को असेंबली बम कांड के फौरन बाद गिरफ्तार करके हिरासत में रखा गया था। दिल्ली में खूनी दरवाजा वाली जेल में, बच्चे वहां बैडमिंटन खेल रहे थे। बच्चों ने उन्हें वहां चुपचाप खड़े देखा, तो पूछा कि क्या आप बैडमिंटन खेलना चाहते हैं, उन्होंने मना किया तो पूछा, कि फिर आप क्या देख रहे हैं। बीके ने जवाब दिया कि मैं उस जगह को देख रहा हूं जहां कभी भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त जेल में बंद थे। बच्चों ने पूछा कौन भगत सिंह और कौन बटुकेश्वर दत्त? सोचिए उन पर क्या गुजरी होगी। वैसे भी उस दौर में पढ़े-लिखे लोग कम थे, कम्युनिकेशन के साधन कम थे, बच्चों के स्कूल की किताबों में राष्ट्रीय साहित्य था ही नहीं। लेकिन आज तो है, आज की पीढ़ी भी उन्हें न जाने तो उनको अपनी कुर्बानी व्यर्थ ही लगेगी।
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