1.
सोचकर ही ज़ुबाँ खोलिए
वक़्त आने पर ही बोलिये
सब सुनेंगे तुम्हें ग़ौर से
मिसरी लफ़्ज़ों में तो घोलिये
आपके साथ मैं चल सकूँ
बेड़ियाँ पाँव की खोलिए
साफ़ अब अपना दिल भी करो
कपड़े तो तुमने ये धो लिए
जुस्तजू थी ख़ुशी की मगर
ग़म के रस्ते पे हम हो लिए
रहनुमा हैं ये इस देश के
इनको फूलों से ही तोलिए
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2.
खोला जो ख़त तुम्हारा यूँ ख़ुशबू बिखर गई
जैसे कि रूह जिस्म के अन्दर उतर गई
मैं तो बिखरने वाली थी राहे हयात में
तू बनके हौसला मिला तो मैं संवर गई
चेहरा जब उसकी याद की बारिश में नम हुआ
फूलों की पंखुड़ी की तरह मैं निखर गई
सूरज ढला तो वस्ल का मंज़र बदल गया
आई जो शाम हिज्र की लाली बिखर गई
आँखों में अश्क बन के बसा है वो ‘आरती’
तो आँसुओं की झील में मैं भी उतर गई