सच्चा साहित्य हमारे हृदय को कठोर नहीं, अपितु मुलायम, संवेदनशील बनाता है। चिंतन-मनन के पर्याप्त अवसर देता है। यह सकारात्मक सोच लिए समाज से नैतिकता, सभ्यता और शिष्टता का आग्रह करता है। विश्वबंधुत्व की भावना के साथ समाज, देश और दुनिया को स्नेह का पाठ पढ़ा सामाजिक सद्भाव और समृद्धि की राह प्रशस्त करता है।
साहित्य समाज की विद्रूपता, रूढ़िवादी परंपरा, कुंठा और अन्याय के प्रति अपना आक्रोश व्यक्त करता है और उनके विरुद्ध मशाल प्रज्ज्वलित कर उठ खड़े होने में पथ प्रदर्शक का कार्य भी करता है। साहित्य वही, जिसमें समाज का हित निहित हो! प्रतिरोध के उद्वेलित स्वर हों पर भाषा परिमार्जित हो! जो साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना को नई दृष्टि प्रदान करे। साहित्य की सार्थकता समाज-सुधार की दिशा में क़दम बढ़ाने से है, उसे विषाक्त करने से नहीं! इसलिए साहित्य को जड़ नहीं होना चाहिए और न ही मात्र इसलिए रचा जाना चाहिए कि उसकी वाहवाही की जाए!
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का कथन है कि ‘साहित्य समाज का दर्पण होता है’, और यह प्रत्येक लेखक का उत्तरदायित्व है कि वह इस दर्पण पर धूल न जमने दे और न हीं उसे ढककर रखे। वे लेखक नहीं हैं जो सच को सच और झूठ को झूठ कहने से डरते हैं और जिनकी लेखनी समाज की समस्याओं को परे रख केवल स्वार्थ सिद्धि में लगी रहती है। वे तो कतई ही नहीं है जो आद्योपांत धर्मांधता में चूर हो हिंसा और अन्याय के पक्ष में भुजाएं फड़का, झंडा ले निकल पड़ते हैं और जिनकी लेखनी किसी राजनीतिक दल का मुखपत्र लगती है। यदि लेखक, समाज को एक नई दृष्टि और दिशा नहीं दे रहा है, उसमें मानवीय मूल्यों और संस्कृति के उत्थान की बात नहीं कर रहा है और वह किसी निश्चित धर्म, जाति, समाज के प्रति कट्टरता को लालायित है तो उस समाज का पतन निश्चित है। वह लेखनी जो व्यक्ति को व्यक्ति से द्वेष कराए, उनमें परस्पर घृणा, ईर्ष्या, हिंसा के भावों का संचार करे और आपराधिक प्रवृत्ति को बढ़ावा देती नज़र आए; वह समाज के लिए घातक है।
लेखक, समाज के प्रतिनिधि के तौर पर लिखता है अतः उस देशकाल में उसके द्वारा किया गया सृजन आने वाली पीढ़ियों के लिए एक उदाहरण बन प्रस्तुत होता है। मुंशी प्रेमचंद ने साहित्य को “जीवन की आलोचना” यूँ ही नहीं कहा है। उन्होंने राजा महाराजाओं के स्तुति गान, रसराज में डूबी रचनाओं के परे जाकर सामाजिक समस्याओं, अनैतिक प्रथाओं, शोषण और आर्थिक विषमताओं को अपने स्वर दिए। वे आज भी इसलिए प्रासंगिक हैं क्योंकि उनका साहित्य, उस दौर के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिवेश का जीता-जागता दस्तावेज़ है जिसमें सामाजिक मूल्यों, संवेदनाओं को प्रधानता दी गई है और वे आदर्शोन्मुख समाज की स्थापना पर बल देते हैं। यथार्थ में लिपटी उनकी प्रत्येक कृति पाठकों के लिए अमूल्य उपहार की तरह इसलिए भी प्रतीत होती है क्योंकि वह उनके दुख, दर्द की बात करती है, उनके जीवन से जुड़ी है।
लेखक को केवल सज्जनता और आदर्श से भरे वक्तव्य देकर ही कर्तव्यों से इतिश्री नहीं कर लेनी चाहिए कि पढ़ दिया और करतल ध्वनि के मध्य बात वहीं समाप्त भी हो गई! बल्कि वह जो कहे उसका एक-एक शब्द स्वयं भी मन, वचन और कर्म से आत्मसात करे। वह जिन विषयों पर आह्वान करे उसे अपने जीवन में उतारे भी।
हमें सावधान होना है उन पत्रकारों और साहित्यकारों से, जो कट्टरता और धर्मांधता में लिप्त हो अपनी भारतीयता ही भुला बैठे हैं! यह चाटुकारिता भरे साहित्य से बाहर निकल, यथार्थ के धरातल पर आ बैठने का समय है।
ज्ञातव्य हो, लेखनी की सार्थकता सत्य को सामने लाने में है, उसे दबाने में नहीं! साहित्यकार का लक्ष्य सामाजिक कल्याण है, उसका सर्वनाश करना नहीं!