प्रख्यात कहानीकार मुरलीधर वैष्णव का नवीन कहानी संग्रह ज़िंदगी की गहराइयों में उतर कर संवेदनशीलता की अन्तश्चेतना को जन्म देता है। यह पात्रों की मनःस्थिति को मनोवैज्ञानिक विश्लेषण द्वारा बहिर और अन्तर्संघर्ष को सहजता से संपोषित करता चलता है। चौदह कहानियों की अन्तर्ध्वनि की अनुगूंज इन सभी कहानियों की स्व-बानगी है। इनमें परिवेशगत समायोजन भाषा के धरातल पर भी अपनी छाप छोड़ता है।
कहानीकार न्यायाधीश रहा है। वह मुकदमों से घिरी छटपटाहट, गहन निराशा, कुंठा, वर्जना और विसंगतियों की भीतरी तहों से रू-ब-रू हो सका है। निःस्संदेह उन चीखों-पुकारों ने उसे इतना बेचैन कर दिया है कि उसे विवश होकर कहानियों का अवलंब लेना पड़ा क्योंकि ईमानदार, निष्ठावान और काव्य अनुरागी व्यक्ति के लिए अकेला वही माध्यम बचता हैं। हिंदी में ऐसे कथा पक्ष का अभाव है। कहानीकार अपने दीर्घ अनुभव से इस पैनेपन के साथ उनका निरूपण करता है कि अंधेरों में कुलबुलाते दर्द की चौखट के अन्तर्पट स्वतः खुलने लगते हैं और उनके भीतरी अन्तर्कथा की सुसुप्त चीख पुकार सैंकड़ों सायरोनों को पीछे छोड़ जाती है। न्याय कोर्ट में हाथ बांधे आ खड़ा होता है। उनका फैसला करने का साहस करती हैं ये कहानियां। इस दृष्टि से ‘‘कोर्ट एडजॉर्न्ड’’, ‘‘उड़ता तीर’’, ‘‘युद्ध’’ आदि कहानियां पाठक मन को कुरेदते हुए ऐसा पलट वार करती हैं कि कानून की बोलती बंद हो जाती है। ‘युद्व‘ कहानी में ‘एनकाउंटर‘ पर से परदा उठने लगता है और ‘ब्रीफ‘ नोट का मतलब समझ में आने लगता है – ‘नोट लेओ और ब्रीफ लिखो।‘
सामाजिक धरातल पर दीपा को मन मार कर जीसा को सौंपना और निसंतान होते हुए दीपा से दीपा होने का दर्द खोलना अन्तर्व्यथा को मथने लगता है और वह ‘बायां रौ बैरो’ के रहस्य को अंतर्मन में गहरी डुबकी लगाए देखती रह जाती है। वहीं ‘अणची’ में पांचवीं बेटी का आना और ‘अपात्र‘ में जनेऊ बिन नंगा होना जैसी सामाजिक सोच के विचलन से परदा उठाती है ये कहानियां। इसी प्रकार ‘आई वाज़ डिक्लेयर्ड डिस्क्वालिफ़ाइड‘ की तोहमत एक तरह से छिपी अघोषित चीख चिल्लाहट है जो गर्म तवे पर पानी की बूंद का एहसास करा जाती है। ‘कूंची कठे’ की रहस्यमयी अन्तर्गाथा श्रीमती मिश्री देवी को तब अतीत के गलियारों में ले जाती है जब वह धागों में बंधी लटकती अपनी ‘कूंची‘ ;चाबीद्ध को देखती है। यहाँ कहानीकार पाठकों के मन में रहस्य को बुनकर खोलने में कथा कौशल का परिचय बखूबी देता है।
यथार्थ का रूप-विधान, अंत-प्रक्रिया में अनबुझे भय को जब कहानीकार आतंकी अन्तश्चेतना में ले जाता अनुभव करता है तब वह अपनी विलक्षण प्रतिभा से अंधेरी दलदल में फंसती कथा व्यथा को बचाने में पूरी तरह सफल हो जाता है और उन पर अति का आरोप नहीं लगने देता ताकि इन कथाओं की सहज स्वाभाविकता का अंत तक निर्वाह हो और वह पाठकों को अनुभव हो सके।
कहानीकार की यह बानगी भी इन कहानियों की अंतरात्मा को गहरे सकुन देती है जब वह ठेठ जोधपुरी (मारवाड़ी भाषा शैली) में अपने पात्रों का मन खोलने लगता है। तब लगता है कि रचनाकार अपने पात्रों के मुख से अपनी धरा की सरस, देशज गुनगुनाहट का ताबीज मंत्र पढ़ने लगता हो। ध्वनि की यह झनझनाहट इन कहानियों की अन्तर्ध्वनि में अपना विशेष स्थान रखती है – ‘अंगूठौ बोलेगो’ इसकी साक्षी है।
कुल मिलाकर इन कहानियों में कहानी संग्रह की शीर्षक संज्ञा ‘अंतर्ध्वनि‘ इस प्रकार अपने नाम का स्मरण कराती जाती है कि उक्त शीर्षक की कहानी इस संग्रह में न होते हुए भी वह अपने अस्तित्व के बल पर सब कहानियों की अन्तरात्मा है। जीवंतता है। सार्थकता और पहचान है। यही कहानीकार की आत्मधर्मिता की प्राणवान कौशल साधना भी है जो इन कहानियों को ज़िंदगी जीने का हर क्षण एहसास कराते हुए अपने से जोड़ती चलती है।