मध्य काल की विस्मृत स्त्री रचनाकारों में एक नाम बनीठनी जी का आता है। इनके संदर्भ में कुछ ही तथ्य ज्ञात है। मुंशी देवी प्रसाद जी ने महिला मृदु वाणी में इनका उल्लेख बड़े आदर के साथ लिया है।इन्होने बनीठनी जी का स्थान रूपनगर तथा वृन्दावन माना है। मुंशी जी कहते हैं कि यह महाराज नागरीदास (कृष्णगढ़ के राजा सावंत सिंह का उपनाम) की दासी थी। इनकी कविता से प्रसन्न होकर महाराज ने इन्हें पासवान की पदवी दी थी। इनकी रचनाएं हमें नागर समुच्चय के अंत में छपे हुए मिलते हैं। मुंशी जी ने इनके सात पद महिला मृदु वाणी में संग्रहित किए है जो विभिन्न राग रागिनियों पर आधारित हैं जिससे यह ज्ञात होता है कि इन्हें संगीत का अच्छा ज्ञान था।
रसिक बिहारी बनी ठनी जी का जन्म ज्ञात नहीं है। इनकी मृत्यु सन 1765 ई0 को आषाढ़ में माना जाता है। ऐसी जनश्रुति है कि यह नागरी दास की प्रेम पोषिता थी। ज्योति प्रसाद निर्मल जी इन्हें नागरी दास की दासी मानते हैं। नागरी दास की रचना नागर समुच्चय में आन कवि नाम से इनके कुछ पद मिलते हैं। बनी ठनी नाम से भी उनके पद मिलते हैं। कहीं-कहीं पर इन्होंने अपना नाम उल्लेख करके रचनाएं प्रस्तुत की हैं। तत्कालीन परिवेश में स्त्री रचनाकार मिलना दुर्लभ था उस पर से इन रचनाकारों की कृतियों का संचयन ठीक ढंग से नहीं हुआ जिस कारण से इनकी रचनाएं अप्राप्त रही हैं। हिंदी साहित्य के इतिहासकारों ने न तो इनका नाम उल्लेख करने की आवश्यकता समझी और ना ही इनकी रचनाओं के संरक्षण पर विचार किया। यह स्थिति सिर्फ बनी ठनी जी के लिए नहीं थी बल्कि सभी स्त्री रचनाकारों के लिए समक्ष थी। कहीं-कहीं पर इनके नाम उल्लेख के पद मिल जाते हैं जैसे —-
“बनी विहारिन रस सनी, निकट बिहारी लाल
पान कियो इन दृगनि अनुपम रूप रसाल
रसिक बिहारी बनी ठनी राधा कृष्ण रूप की उपासना थी इसलिए इनकी रचनाओं में श्रृंगार रस और माधुरी गुण की प्रधानता थी। प्रेम में पगी इनकी यह पंक्तियां किसी श्रृंगार रस के कवि से कमतर नहीं हैं।
रतनारी हो थारी आंखड़ियाँ
प्रेम छकी रस बस अलसाणी जाणि कमल की पांखड़ियां
सुंदर रूप लुभाई गति मति हौं गई ज्यूँ मधु माखड़ियां
रसिक बिहारी वारी प्यारी कौन बसी निसि कांखडियां
उत्प्रेक्षा रूपक जैसे अलंकार बनी ठनी जी की रचनाओं में ऐसे प्रवेश करते हैं जैसे वहीं गलियों में सदैव विचरण करते रहे हो तभी तो कहीं भी कृत्रिमता की झलक नहीं मिलती है बल्कि एक आत्मीयता और सहजता पूरी रचना में व्याप्त रहती है। व्यक्ति जब उस प्रेम भाव का स्मरण करता है तो स्वयं भी वही कहता है जो भावाभीव्यक्ति बनी ठनी जी ने ऊपर किया है। ऊपर उत्प्रेक्षा रूपक का उदाहरण बड़े परिपक्व रूप में बनी ठनी जी ने किया है। उत्प्रेक्षा और रूपक के अतिरिक्त उपमा और अनुप्रास अलंकार का भी प्रयोग इनकी रचनाओं में देखा जा सकता है। अनुप्रास अलंकार का एक सुंदर उदाहरण द्रष्टव्य है —-
पावस ऋतु वृंदावन की दुती दिन दिन दूनी दरसै है
छवि सरसै है
लूम झूम सावन घनो घन बरसे है
उपर्युक्त उदाहरण में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार के साथ अनुप्रास अलंकार की शोभा देखते ही बनती है। प्रकृति का शुद्ध चित्रण स्त्री रचनाकारों में भी मिलता है यह उदाहरण इस बात की पुष्टि करता है। भावना भले ही भक्ति की रही है पर प्रकृति का अपना स्थान रहा है। यह भी एक तथ्य ह कि कवि हमेशा प्रतीक रूप में ही प्रकृति को चित्रित करता है।
यहां यह निसंदेह कहा जा सकता है की बनी ठनी जी की यह रचनाएं किसी भी पुरुष कवि की रचनाओं से कमतर नहीं है परंतु हिंदी साहित्य के इतिहास में इनका नाम उल्लेख तक से नहीं मिलता है। स्त्री रचनाकार होने के कारण यह पक्षपात उन्हें आज तक हिंदी साहित्य के किसी भी ग्रंथ में नाम दर्ज कराने का अवसर नहीं मिला है। बनी ठनी जी कृष्ण काव्य धारा से संबंध रखती हैं कृष्ण प्रेम में वे निंदक नियरे राखिए भावना का वरण करती हैं और समाज की उपेक्षा करके वह कहती हैं —-
मैं अपने मनभावन लीन्हो इन लोगन को कहा नहीं किन्हो
मन दे मोल लियो री सजनी, रत्न अमोलक नवल रंग भीनो
कृष्ण के प्रेम में मतवाले होकर घूमना सिर्फ मीरा और सहजोबाई की रचनाओं में नहीं मिलता बल्कि बनी ठनी जी भी इसका श्रेष्ठ उदाहरण है परंतु वह अपना नाम हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रंथों में नहीं लिखा पाई। कृष्ण के प्रेम में स्वतंत्र होना उन्हें मंजूर है पर जहां तक चरित्र की बात है नारी अस्मिता की बात है वह कहती हैं कि
कैसे जल लाऊं मैं पनघट जाऊं
होरी खेलत नंद लाडलो क्यों कर निबहन पाऊं
वे तो निलज फाग मदमाते हौं कुलवधू कहाऊँ
जो छुवे अंचल रसिक बिहारी धरती फार समाऊं
इनकी रचनाओं में श्रृंगार के अलावा वात्सल्य रस का भी सुंदर चित्रित किया गया है। कृष्ण काव्य धारा में कृष्ण के बाल रूप का चित्रण सूरदास गंगाबाई गवरीबाई आदि ने बड़ी सुंदरता के साथ प्रस्तुत किया है परंतु बनी ठनी जी ने कृष्ण के अतिरिक्त राधा का भी बाल रूप चित्रित किया है। राधा के लिए वह कहती हैं —–
आज बरसाने मंगल गाई
कुंवर लली को जनम भयो है घर-घर बजत बधाई
मोतीन चौक पुरावो गावों देहू असीस सुहाई
रसिक बिहारी की यह जीवनी प्रगट भई सुखदाई
कन्या जन्म पर मोतियन से चौक पूरना यह बताता है कि राधा के जन्म पर खुशियां मनाई गई थी जो तत्कालीन परिवेश में स्त्री की स्थिति को भी बताता है। राधा के ऊपर अन्य पद भी रसिक बिहारी जी ने रचे हैं। वह कहती हैं —–
धीरे झूलो री राधा प्यारी जी
नवल रंगीली सबै झुलावत गावत सखियां सारी जी
फरहरात अंचल चल चंचल लाज न जात संभारी जी
कुंजन ओर दूरे लाखी देखत प्रीतम रसिक बिहारी जी
राधा के साथ कृष्ण जन्म का भी वर्णन बनी ठनी जी ने उतने ही उल्लास और रुचि से किया है जितना कि राधा के जन्म का वर्णन किया है। वह कहती हैं —-
बाजे आज नंद भवन बधाइयां
गह गह आनन भवन भयो है गोपी सब मिलि आइयाँ
महरीन गांवही कै भयो सुत है फूली आंगन भाइयाँ
रसिक बिहारी प्राननाथ लखि देत असीस सुहाइयाँ
रसिक बिहारी जी की मूल भाषा ब्रजभाषा ही है जिसमें पिंगल का प्रभाव दिखाई देता है। इसके अतिरिक्त राजस्थानी के शब्दों का प्रयोग इन्होंने बहुत आयत किया है | अपने रचनात्मक योगदान के बावजूद हिंदी साहित्य के इतिहास में लुप्त बनीठनी जी को मेरी आदरांजलि इन शब्दों के माध्यम से व्यक्त है। उन्हें नमन।