पंजाबी की सर्वाधिक चर्चित कवयित्री और कथा-लेखिका अमृता प्रीतम की आत्मकथा का नाम है ‘रसीदी टिकट’। कहते हैं, एक बार खुशवंत सिंह ने विनोद भरे लहजे में कहा था- “तेरी जीवनी में क्या रखा है, बस एक–दो हादसे, लिखने लगो तो रसीदी टिकट की पीठ पर आ जाये।” रसीदी टिकट पावती के पक्के प्रमाण होते हैं। यह इबारत की सच्चाई का सबूत है। वैसे ही अमृता प्रीतम की कविताएँ, वे सब उनके जीवन के दस्तावेज हैं। उन्होंने जो भोगा, वही लिखा और जो लिखा वही उनके अंतर से उबला। इस तरह उनका साहित्य उनके वास्तवीक जीवन का कच्चा चिट्ठा है। इसलिए वह इतना सशक्त और मर्मस्पर्शी है। उन्होंने स्वयं कहा है- “जो लिखती रही, इस हड्डियों के ढांचे की रक्त और माँस देने की चाह में लिखती रही, इसी के सांवले रंग में रोशनी कर रंग भरने की चाह में…… ।” (रसीदी टिकट, पृष्ठ संख्या- 22)
अमृता प्रीतम का जन्म 31 अगस्त 1919 में गुजरांवाला, पंजाब में हुआ था। उनके पिता का नाम नंद जी और माता का नाम राज बीबी था। नंदजी किशोरावस्था में विरक्त प्रकृति के थे। गृहस्थ स्वीकार करने के बाद उन्होंने अपना नाम करतार सिंह रख लिया था। वे थोड़ी-बहुत कविताएँ ‘पीयूष’ नाम से लिखते थे। पुत्री होने पर उन्होंने इसी ‘पीयूष’ का अनुवाद कर उसका नाम ‘अमृता’ रख दिया। महाकवि निराला ने अपने प्रसिद्ध शोकगीत में पुत्री सरोज के संबंध में लिखा है-
गया स्वर्गीया प्रिया-संग, भरता प्राणों में राग-रंग,
रति-रूप प्राप्त कर रहा वहीं, आकाश बदलकर बना माही।
यानी सरोज का सम्पूर्ण व्यक्तित्व, यहाँ तक की उसका रंग-रूप भी पिता की देन है।
अमृता ने इसी को दूसरी ओर से लिखा है, अर्थात उसका नाक-नक्श ही नहीं, उसका स्वभाव तक उसके माता-पिता की देन है। अमृता की सारी नारी सुलभ शालीनता के बावजूद विद्रोह की चिंगारी उसमें बचपन से विद्धमान थी। जैसा उस समय प्रायः हिन्दू परिवारों में होता था, अमृता के घर में भी दो-चार बर्तन थे, जो मुसलमान अतिथियों के स्वागत-सत्कार के लिए रख छोड़े गए थे। अमृता ने पहला विद्रोह इन बरतनों को लेकर किया और तब तक चैन नहीं लिया, जब तक इन्हें शेष बिरादरी में नहीं मिला लिया गया।
यह एक प्रकार से उनके भावी जीवन की भूमिका थी, क्योंकि उनका पहला प्रेम उर्दू के प्रसिद्द कवि साहिर लुधियानवी के प्रति अंकुरित हुआ। लेकिन दोनों परिणय-सूत्र में बंधते, इसके पूर्व यह भंग हो गया। दूसरा प्रेम भी धार्मिक दीवार को तोड़कर परवान चढ़ा और उसने चित्रकार इमरोज से विवाह कर लिया, जिससे दो संतानें हुईं कंदला और नवराज। इस विवाह में भी एक बार विच्छेद की स्थिति आ गयी पर तब तीन वर्षों बाद वे फिर से साथ रहने लगे। एक जगह अमृता ने साहिर और इमरोज की तुलना करते हुए लिखा है- “साहिर एक ख़्वाब था हवा में चमकता हुआ, शायद मेरे अपने ही ख्वाबों का एक जादू। पर इमरोज के साथ बिताई हुई ज़िन्दगी, शुरू के कुछ वर्षों को छोड़कर एक बेख़ुदी के आलम तक पहुँच गयी। …..एक दिन घर आये हुए एक मेहमान ने मेरा और इमरोज का हाँथ देखकर कहा- आपके हाथ में धन की बड़ी और गहरी रेखा है। पर इमरोज से उन्होंने कहा- आपके पास रुपया कभी नहीं ठहरेगा। इमरोज ने अपने हाथ में मेरा हाथ लेकर कहा- अच्छा है, फिर हम दोनों एक ही रेखा से गुज़ारा कर लेंगें।
साहित्य की ओर अमृता का झुकाव किशोरावस्था से था। उनकी पहली पसंद कविता रही। उनकी सिद्धि और प्रसिद्धि का मुख्य आधार कविता ही है। उनकी प्रारंभिक कविताएं ‘सात बरस’, ‘काला गुलाब’ आदि है। सात बरस प्रकारांतर से साहिर के संस्मरण की कविता है, इसके विपरीत ‘काला गुलाब’ मानव प्रेम की रचना है। लेकिन जिस नज़्म ने अमृता को वास्तविक प्रसिद्धि दी और जिसके कारण उनका सुयश देश की भौगोलिक सीमा को पार कर दूर-दूर तक फैला है वह है ‘वारिस शाह के प्रति’। वारिस शाह प्रेम के बहुत बड़े कवि थे, जिन्होंने हीर और रांझा के प्रेम-विरह को अमर कर दिया। प्रस्तुत कविता में वारिस शाह उन स्वर्णिम क्षणों के प्रतीक के रूप में चित्रित हैं, जब हिंदू, मुसलमान और सिख पारंपरिक प्रेम और सद्भाव के धागे में बंधे थे। कवयित्री उनको याद कर कहती है-
आज वारिस शाह से कहती हूँ
अपनी कब्र में से बोलो
और इश्क की किताब का कोई नया बर्फ खोलो
पंजाब की एक बेटी रोयी थी
तुमने लंबी दास्तान लिखी
आज लाखों बिटिया रो रही हैं
वारिश शाह तुमसे कह रही है
ऐ दोस्तों अपने पंजाब को देखो लाशों से अटे पड़े हैं
चनाब लहू से भर गई है।
इस नज़्म ने भारत ही नहीं, अनेक देशों में भी असाधारण प्रसिद्धि पाई। मुल्तान में प्रत्येक वर्ष मशहूर साबरी का उर्स मनाया जाता है, जिसमें लोकगीत, लोक-नृत्य, मुशायरे आदि होते हैं। लेकिन उत्सव का आरंभ अमृता की इसी ‘वारिस शाह’ नज़्म से होता है।
उनकी एक ऐसी ही कविता है- ‘हमसफ़र अब साया तेरा दूर जा रहा है।’ अमृता प्रीतम की कविताओं का संवादी स्वर प्रेम, पीड़ा और उदासी है। अपनी एक कविता में उन्होंने कहा है-
दुखांत यह होता है कि आप लहूलुहान पैरों से ऐसी जगह खड़े हों
जिसके आगे कोई रास्ता को बुलावा न दे
दुखांत यह होता है कि पैरहनों को सीने के लिए आपके पास विचारों का धागा चुक जाए
आपकी कलम-सुई का छेद बंद हो जाए।
लेकिन अगर इन पंक्तियों पर गहराई से विचार किया जाए तो इनकी पीड़ा और उदासी के पीछे विद्रोह का लावा दहकता मिलेगा। एक बार वियतनाम के कवि राष्ट्रपति हो ची मिन्ह जब भारत आए, उन्होंने अमृता का माथा चूम कर कहा था- “हम दोनों दुनिया के ग़लत मूल्यों से लड़ रहे हैं, मैं तलवार से, तुम कलम से।” मेरा ख्याल है, यह अमृता के काव्य की सबसे बड़ी प्रशस्ति है।
1956 में अमृता प्रीतम को ‘साहित्य अकादमी’ पुरस्कार मिला। 1958 में उन्हें पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत किया गया। 1961 में सोवियत लेखक संघ के निमंत्रण पर बल्गेरिया गई। 1991 में उन्हें भारत का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ दिया गया। अनेक विश्वविद्यालयों ने उन्हें मानद उपाधि से अलंकृत किया गया। संभव है इसलिए भारत के अनेक भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी, रूसी, चेक आदि भाषाओं में अनुवाद हुआ है। अमृता प्रीतम का लगभग पूरा साहित्य हिंदी में उपलब्ध है। अमृता प्रीतम आलोचकों द्वारा की गई प्रशंसा को बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं मानती, विशेष रूप से जब समीक्षाएं लिखी ही नहीं जाती, लिखायी जाती हैं। उनका अक़ीदा है- “वास्तविक लेखन अपने पाठकों की रगों में जीता है, उनके स्वपनों में और उनके जीवन के अंधेरे कोने में धड़कता है।” कहना अनावश्यक है कि लेखिका ने यह सिद्धि प्राप्त की है। यह ठीक है कि पंजाबी साहित्य में उन्हें गालियाँ भी बहुत दी गई मगर उन्हें चाहनेवालों, माननेवालों और उनकी महत्ता स्वीकार करने वालों की संख्या भी अपरिमित है।
कविताओं के बाद अमृता जी को उपन्यास-लेखिका के रूप में मान्यता मिली है। लगभग 15 से 20 वर्ष पूर्व जब पहली बार अमृता प्रीतम का उपन्यास ‘पिंजर’ पढ़ा था, तब कथा की तराश और भाषा की मितव्ययिता पर मंत्रमुग्ध हो गया था। उसके तत्पश्चात मैंने अमृता प्रीतम के साहित्य को पढ़ना शुरू किया, तब मुझे न्यूजीलैंड के प्रसिद्ध कवि चार्ल्स ब्रेश की यह टिप्पणी अमृता प्रीतम के लिए पढ़कर सुखद अनुभूति हुई- “मैंने स्केलटन (पिंजर का अनुवाद) पढ़ा और आपको बताना चाहता हूँ कि मैंने इसे कितना मर्मद्रवाक पाया। आपने कथा का सहृदयता, मितव्ययिता और संयम से निर्वाह किया है। आप इस पर सहज गर्व कर सकती हैं।“ इसी प्रकार नेपाल के उपन्यासकार घूसवाँ सायमी ने लिखा है कि “मैं जब अमृता प्रीतम की कोई रचना पढ़ता हूँ तो अपने भारत-विरोध को सर्वथा भूल जाता हूँ। साहित्य का मूल उद्देश्य ही हित का संपादन और अहित का समापन है। यदि साहित्य हृदय के कलुष को दूर कर मैत्री की स्थापना करे तो इससे बड़ी सफलता और क्या होगी?” अमृता जी की भावनाओं में उपन्यासों में ‘एक थी अनीता’, ‘दिल्ली की गलियाँ’, ‘आक के पत्ते’, ‘यह सच है’, ‘यात्री’, ‘धरती’, सागर और सीपियां’ उल्लेख्य हैं। वस्तुतः समकालीन साहित्य में नारी-संवेदना को इतनी मार्मिकता से कम ही थाती मिली है। अंत में मैं उनकी ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कृति ‘कागज और कैनवास’ से एक उद्धरण देना चाहूंगा-
एक दर्द था
जो सिगरेट की तरह मैंने चुपचाप पिया है
सिर्फ कुछ नज्में हैं
जो सिगरेट से मैंने राख की तरह झाड़ी है
31अक्टूबर 2005 को यह आवाज हमेशा के लिए खामोश हो गई।