स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर अब तक राष्ट्र के निर्माण में महिलाओं की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता! जब-जब उन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर मिला है उन्होंने उल्लेखनीय सफ़लता प्राप्त की है। चाहे वह युद्ध भूमि हो या राजनीति, प्रारम्भ से ही हर क्षेत्र में स्त्री की सुनिश्चित भागीदारी रही है एवं सामाजिक -आर्थिक परिवर्तनों के लिए उसकी भूमिका सराहनीय रही है। वह सत्ता भी संभालती रही, घर-बार भी। उसने लड़ाइयां भी जीतीं और खेती-बाड़ी में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। समाज का उनके प्रति दृष्टिकोण जो भी रहा हो पर वह अपने कर्तव्यों एवं अधिकारों के प्रति हमेशा सजग रही है।
यदि स्त्री पीड़ित, कमजोर और शोषित वर्ग का हिस्सा रही है तो उसने देश में व्याप्त कुरीतियों, अत्याचार, अनाचार के विरुद्ध भी खुलकर बोला है और यह कहना गलत न होगा कि उसकी अभिव्यक्ति में विद्रोह के स्वर भी सदैव ही मुखरित होते रहे हैं।
‘मी टू’ आंदोलन इन्हीं मुखर स्वरों का सशक्त उदाहरण बन सामने आया था। यह एक बहुत बड़े परिवर्तन के रूप में उभरा कि अब स्त्री की झिझक खुलती जा रही थी। वह अपने भीतर के भय पर काबू पाना सीख रही थी और उसने अपनी समस्याओं और पीड़ा पर बोलने का साहस भी जुटा लिया था।
इस तथ्य को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि चिरकाल से स्त्रियों के साथ असमानता, उत्पीड़न का व्यवहार होता रहा है। उनके साथ हुए अमानवीय अपराधों की भी एक लंबी फेहरिस्त है। यही कारण है कि स्त्री-पुरुष से बने इस सदियों पुराने समाज में अब भी उसे अपने अधिकारों और समानता की लड़ाई लड़नी पड़ रही है। इसलिए फेमिनिज्म को बवाल समझने वालों को यह जानना आवश्यक है कि लड़ाई समानता की है, पुरुषों के विरुद्ध नहीं! स्त्रियों की पुकार उन सामाजिक व्यवस्थाओं के ख़िलाफ़ हुंकार है, जिसमें समाज का हर वर्ग सम्मिलित है। जहाँ तक पितृसत्तात्मकता का प्रश्न है तो यह वर्षों से चली आ रही एक सामाजिक व्यवस्था है जिस पर कुंठा नहीं, विमर्श की आवश्यकता है।
हम आजादी के अमृतकाल में हैं लेकिन स्त्रियों की सुरक्षा आज भी बहुत बड़ा मुद्दा है। कई जघन्य घटनाएं हमारे सामने हैं और उस पर समाज की असंवेदनशीलता दुख से भर देती है। चाहे वह माँ बेटी का ज़िंदा जल जाना हो, सब्जी की तरह किसी लड़की को काटकर फ़्रिज में रखे जाना हो या तंदूर में भूनकर लाश को ठिकाने लगाना; ये सब सनसनीखेज तब बनती हैं जब उसमें किसी दल को राजनीतिक लाभ मिल रहा हो। उस समय ऐसी घटनाएं प्रायः ‘आपदा में अवसर’ का महत्वपूर्ण उदाहरण बन प्रस्तुत होती हैं। अन्यथा कभी सड़क किनारे, कभी जंगल, कभी पानी में स्त्री की लाश का मिलना सौ खबरों की सूची में 90 के बाद स्थान पा लेता है, बस उसकी नियति यहीं तक ही सीमित है। इन गरीबों, अचर्चित जीवों की मृत्यु भी उनके जीवन की तरह चर्चा योग्य नहीं समझी जाती। स्त्रियाँ केवल अपने अधिकारों के लिए ही नहीं, बल्कि अपने अस्तित्व के लिए भी लड़ रही है कि उन्हें कम-से-कम मनुष्य तो समझा जाए!
उत्सवों का दौर है लेकिन स्त्रियाँ क्या पहनें, कैसे रहें, क्या और कितना बोलें, यह तय करने का और उस पर टीका-टिप्पणी करने का बीड़ा अभी भी समाज के ठेकेदारों ने स्वयं के पास ही रखा है। याद नहीं पड़ता कि कभी किसी स्त्री ने, पुरुष के पहनावे को लेकर कोई आपत्ति दर्ज़ की हो!
इतिहास वीरांगनाओं के तमाम किस्से बताता है लेकिन आधुनिक युग में न जाने क्यों वे आत्मरक्षा के लिए प्रशिक्षित ही नहीं की गईं। बढ़ते अपराध को देखते हुए एवं सुरक्षा के लिए अब स्कूली शिक्षा में ‘आत्म-रक्षा’ को एक विषय की तरह सिखाया जाना चाहिए तथा विद्यार्थियों को इसका पूरा प्रशिक्षण भी देना चाहिए।
स्त्रियों को सदा से नाजुक ही माना और रखा गया। इसलिए यह एक अलिखित नियम सा रहा ही कि लड़की कहीं भी जाएगी तो उसका भाई, पिता, पति अर्थात कोई भी एक पुरुष तो बॉडीगार्ड के रूप में साथ होगा ही। यही पोषित मानसिकता है कि आज भी स्त्रियाँ अकेले कहीं जाने में असहज, असहाय अनुभव करतीं हैं। उन्हें एक साथ की आवश्यकता हमेशा महसूस होती है। लैंगिक समानता के आह्वान के साथ अब इन आदतों से मुक्ति पाने का समय तो अवश्य आ गया है लेकिन परिवर्तन की उम्मीद भर रखने से, परिवर्तन हो नहीं जाता! अतः समाज और अपराधी की मानसिकता को अभी भी ध्यान में रख सावधान रहना ही श्रेयस्कर होगा।
इस वर्ष ‘अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस’ की थीम ‘डिजिटऑल: लैंगिक समानता हेतु नवाचार एवं प्रौद्योगिकी’ है। हर वर्ष की थीम का मूल उद्देश्य लिंगभेद को समाप्त करना ही होता है। महिला दिवस के तय तीन रंग बैंगनी, हरा और सफेद है। बैंगनी रंग, न्याय और गरिमा का प्रतीक है। हरा रंग, जीत की उम्मीद बँधाता है और सफेद शुद्धता का प्रतीक है। यानी न्याय, गरिमा और हृदय की शुद्धता के साथ जीत की आश्वस्ति लिए इस दिन को मनाना चाहिए।
एक सुखद तथ्य यह है कि बीते कुछ वर्षों में स्त्रियों के पक्ष में सोशल मीडिया, सच्चे साथी की तरह आ खड़ा हुआ है। एक दशक पूर्व तक कामकाजी और घरेलू स्त्री के बीच का अंतर साफ़ दिखाई देता था। वे स्त्रियाँ जो प्रतिभासंपन्न होते हुए भी घर से बाहर नहीं निकल सकतीं थीं, ‘घरेलू’ टैग उन्हें कुंठा में जकड़ना प्रारंभ कर चुका था। यह, वह समय भी था जब स्त्री के सहेजे हुए सपनों ने अंगड़ाइयाँ लेना प्रारंभ कर दिया था। स्व-अस्तित्व की तलाश में उसकी कसमसाहट कभी-कभार शाब्दिक रूप से झलकने और आँखों से छलकने लगी थी। यद्यपि पश्चिमी देशों की तरह ‘हाउस वाइफ’ को ‘होम मेकर’ कहकर, एक सुखद विचारधारा का मुलम्मा भी चढ़ाया गया। लेकिन इस तथाकथित पदोन्नति का सच, ठीक से किसी के भी गले नहीं उतरा!
ऐसे ही असमंजस के दौर में इंटरनेट और सोशल मीडिया का आगमन हुआ, जिसे स्त्रियों ने हाथों-हाथ लिया। यदि यह कहा जाए कि फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर इत्यादि प्लेटफ़ॉर्म स्त्रियों के लिए वरदान सिद्ध हुए हैं तो भी गलत नहीं होगा! माना कि इस मंच से जुड़ी कई असुविधाएं हैं लेकिन यदि पूरी समझदारी और संयत भाव के साथ इनका उपयोग किया जाए, सच और झूठ का भेद समझ आ सके तो ये आपकी क़िस्मत बदल सकते हैं। कारण स्पष्ट है कि स्त्रियाँ चाहें किसी भी क्षेत्र से जुड़ी हों, यह माध्यम सभी को समान रूप से अभिव्यक्ति का मंच प्रदान करने में सक्षम है।
वे स्त्रियाँ जो पाक कला, नृत्य, गायन, योग आदि में निपुण थीं और डिग्रियों को सहेजे, कुछ न कर पाने के अवसाद में डूब रहीं थीं, अब अपने वीडियोज़ बनाकर या ऑनलाइन कक्षाओं के द्वारा पैसा कमा रहीं हैं। कुछ अपने पेज बनाकर अपनी कला को लोगों तक पहुँचा रहीं हैं। उन्हें घर बैठे ऑर्डर मिल रहे हैं। उनकी अभिव्यक्ति को पंख लग गए हैं। वे जिनकी पहुँच केवल अपनी, गली, मोहल्ले या शहर तक सीमित थी; अब वैश्विक स्तर पर पहचान पा रहीं हैं। आत्मनिर्भर होने का सुख भोग रहीं सो अलग।
लेकिन इस सब के बावजूद भी ‘महिला दिवस’ की प्रासंगिकता कम नहीं हुई। इस जीत को हासिल करने के लिए स्त्रियों को सहारे की नहीं, साथ की ज़रूरत है। अहंकार की नहीं, प्रेम की ज़रूरत है। विरोध की नहीं, सहयोग की ज़रूरत है। ऐसे समस्त विशेषणों का बहिष्कार करने की भी आवश्यकता है, जो स्त्री पर दया-रहम के द्योतक हों। उसे न तो अबला, बेचारी बनना है और न देवी। उस पर बनी उन कहावतों से भी पल्ला झाड़िए जो उसे कमजोर साबित करने को कही जाती रहीं हैं। उन गालियों और अभद्र भाषा के प्रयोग को भी रोकना होगा जो स्त्री को नीचा दिखाने, उसके अपमान के लिए बनाई गई हैं।
स्त्रियों को एक बात गांठ बाँधनी होगी कि हर बार समाज ही दुश्मन नहीं होता। व्यक्तिगत जीवन में कभी-कभी हम लोग ही स्वयं पीड़िता, मजबूर, त्याग और बलिदान की देवी बनकर अपना जीना दूभर कर लेते हैं। महान बनने से कुछ नहीं होता सिवाय दुख, परेशानी और तनाव के क्योंकि कुछ वर्षों बाद यही महानता और ‘DISEASE TO PLEASE’ घुटन बनकर भीतर से ख़त्म करने लगती है। इसीलिए सच के साथ खड़े होकर अपनी बात कहना सबसे पहले सीखना है। क्या अब समय नहीं आ गया है कि हम स्वयं को एक नई पहचान दें, खुलकर जिएं और राष्ट्र निर्माण में अपना सक्रिय योगदान दें!