मशहूर शायर शहरयार के नज्म की एक पंक्ति है – सीने में जलन आँखों में आँसू (तूफ़ान) सा क्यूँ है / इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है।
कुछ वर्ष पूर्व पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग द्वारा संयुक्त राष्ट्र की जनरल असेंबली से दिया गया भाषण दुनिया भर में लोकप्रिय हुआ। उसका कहना था कि आपके खोखले शब्दों ने मेरे सपने और मेरा बचपना चुरा लिया। यह बात पूरी दुनिया की हकीकत है। दुनिया के बड़े औद्योगिक नगर तो इसकी चपेट में पहले से ही हैं, अब न केवल छोटे शहर और कस्बे प्रदूषण की भयावह चपेट में हैं, बल्कि इसकी वजह से हो रहा जलवायु परिवर्तन सुदूरवर्ती पारिस्थितिकी को भी प्रभावित कर रहा है। भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में यह आने वाले दिनों में त्रासदी बनकर सामने आयेगा। इसके उदाहरण के रूप में दिल्ली का ‘प्रदूषण इमरजेंसी’ हमारे सामने है।
बरसों पहले नाजियों द्वारा स्थापित यातना शिविर देखकर सिर्फ कल्पना उभरी थी कि जब जहरीली गैस की वजह से उनका दम घुटने लगा होगा, तो अवश यहूदी इन दरो-दीवार के पीछे कैसे छटपटाए होंगे! असमय काल को अपने सामने खड़ा देख उन्हें कैसा लगा होगा? वहां नाजियों ने यहूदियों का दम घोटकर उन्हें मारा था, जबकि यहां हम खुद अपनी और अपने हुक्मरानों की करनी का कुफल भुगत रहे हैं।
देश के तमाम बड़े शहर और महानगर सुदूरवर्ती आम जनता की जीविका का आसरा बना दिये गये हैं। इससे बहुत बड़ी आबादी तेजी से इन महानगरों की ओर चली आयी है। बाहरी जनसंख्या के दबाव ने यहां की पारिस्थितिकी के संतुलन को बिगाड़ दिया है। वास्तव में यह विकास के पूंजीवादी मॉडल का समाजशास्त्रीय परिणाम है।
पूंजीवाद न केवल पूंजी का केंद्रीकरण करता है, बल्कि वह इसके साथ ही बहुत बड़ी आबादी को सस्ते श्रमिक में रूपांतरित कर अपने केंद्रों की ओर खींचता है। यह जनता की जीविका के साधनों को ध्वस्त कर, उनकी आत्मनिर्भरता को खत्म कर समाज में खाई पैदा करता है। मसलन, दिल्ली जैसे महानगरों में जो आधारभूत सुविधाएं हैं, वे दंडकारण्य जैसे सुदूरवर्ती आदिवासी क्षेत्रों में नहीं हैं। ठीक उसी तरह दंडकारण्य (दंडकारण्य प्राचीन भारत का एक क्षेत्र था) में जो प्राकृतिक संसाधन हैं, वे दिल्ली में नहीं मिलेंगे। लेकिन महानगर अपने लिए सारा खाद-पानी दंडकारण्य जैसे सुदूरवर्ती क्षेत्रों से हासिल करते हैं, उसे अपने यहां केंद्रित कर वहां की स्थानीय आबादी को अपनी ओर खींचते हैं। संसाधनों के साथ ही श्रम का प्रवाह महानगरों की तरफ हो जाता है। संसाधनों के दोहन से स्थानीय पारिस्थितिकी भी प्रभावित हो जाती है और श्रम के रूप में विस्थापित होती आबादी नयी जगह की पारिस्थितिकी को प्रभावित कर देती है। दुनियाभर में यह असंतुलन तेजी से फैल रहा है। अब विश्व बैंक जैसी पूंजीवादी संस्थाएं भी इस असंतुलन पर चिंता जता रही हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, आने वाले एक दशक में दिल्ली दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाला शहर होगा।
उत्तर भारत में पहले शरद ऋतु खुशनुमा एहसास बिखेरती आती थी। इन दिनों वह चेतावनी की घंटी बजाती आती है, पर हमारे हुक्मरां सोए रहते हैं। प्रत्येक वर्ष हरियाणा और पंजाब में किसानों को पराली जलाने का ठीकरा उनके सर पर फोड़ा जाता है। इससे दिल्ली हर साल यह दंश भोगने को मजबूर हो जाती है। इधर केंद्रीय सरकार लगातार आरोप लगा रही है कि दिल्ली की राज्य सरकार ने इस दिशा में गंभीरता से कोई कदम नहीं उठा रही है, जबकि पंजाब में अब केजरीवाल की आम पार्टी की सरकार है।
अभी टोक्यो दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाला शहर है। दुनिया बढ़ते हुए प्रदूषण और उससे हो रहे जलवायु परिवर्तन को महसूस कर रही है। हाल ही में वहाँ की बाइडन सरकार ने अमेरिका में बढ़ रहे प्रदूषण के लिए भारत, रूस और चीन की तीखी आलोचना करते हुए कहा कि इन देशों का कचरा अमेरिका पहुंच रहा है। यह ठीक वैसे ही आरोप हैं, जैसे दिल्ली के प्रदूषण के लिए समीपवर्ती राज्यों के किसानों को दोषी माना गया। जैसे-जैसे प्रदूषण का स्तर बढ़ता जायेगा, इस तरह के झगड़े और बढ़ेंगे। पड़ोसी एक-दूसरे से झगड़ेंगे, राष्ट्र एक-दूसरे से झगड़ेंगे। खनिज, तेल आदि संसाधनों को लेकर जो लड़ाई चल रही है, वह आगे चलकर बहुत जल्दी सांस लेने वाली हवा की लड़ाई में तब्दील हो जायेगी। जो ताकतवर होंगे, पैसे वाले होंगे, वही ‘सर्वाइव’ कर पाने की स्थिति में होंगे।
दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए ऑड-ईवन योजना लागू की थी। इसके साथ ही बाजार ने अपने लिए मुनाफे का अवसर तलाश लिया। अब दिल्ली में ऑक्सीजन बेचने के बार भी खुल गये हैं। गांवों में रहने वालों और पुरानी पीढ़ी के लिए भले यह हास्यास्पद हो कि हवा भी बेची-खरीदी जा रही है, लेकिन महानगरों में रहने वालों और 5जी तकनीक से लैस पीढ़ी लिए तो यह संभाव्य और स्वीकार्य है।
दिल्ली में जो ‘ऑक्सी प्योर’ ऑक्सीजन बार शुद्ध हवा को बेचने के लिए खुला है, वहां पंद्रह मिनट सांस लेने के लिए सैकड़ो रुपये चुकाने होते हैं, तो क्या जो पैसा चुका नहीं सकते, वे सांस लेने के अधिकारी नहीं होंगे? इस तरह के बाजार तक किसकी पहुंच होगी? देखते-देखते इस तरह के बाजार और बड़े होंगे। इसके साथ ही सांस लेने की शुद्ध हवा आम लोगों की पहुंच से और दूर हो जायेगी। साम्यवादी हों या पूंजीवादी देश, सबके उत्पादन के तरीके एक जैसे हैं। हमारी आत्मनिर्भरता मशीनों पर है। तो क्या हमें मशीनों को अपने जीवन से विस्थापित कर देना चाहिए? यह हमारी पूरी सभ्यता का सबसे जटिल सवाल है।
फिदेल कास्त्रो ने पर्यावरण सम्मेलन में कहा था कि जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने का एक नकारात्मक असर उन गरीब और विकासशील देशों पर होगा, जो अब भी जीवन की बुनियादी जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। क्योंकि उन्हें उन वस्तुओं को उत्पादित करने के लिए प्रकृति का दोहन करना पड़ेगा। उनका कहना था कि अमीर देशों की विलासिता में कटौती कर न केवल करोड़ों गरीबों की समस्याओं का समाधान किया जा सकता है, बल्कि पारिस्थितिकी को भी बचाया जा सकता है। दुनिया में बढ़ती गैर-बराबरी आने वाले दिनों में पर्यावरण संकट से निबटने में बाधा बनेगी।
हमारे लिए दिल्ली का जो प्रतीक बनाया गया है, उस प्रतीक को जितना जल्दी बदला जाये, उतना ही ठीक होगा. टोक्यो, लॉस एंजिल्स, शंघाई आदि के वैभव का जो प्रतीक हमारे सामने रखा जा रहा है, उससे बचना ही बेहतर है।
देश की सर्वोच्च अदालत ने इसीलिए बेहद आहत भाव से टिप्पणी की कि लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया गया है। हालात ‘हेल्थ इमरजेंसी’ से अधिक बदतर हैं। हम अपने बेडरूम तक में असुरक्षित हैं। वहां भी एयर क्वालिटी इंडेक्स 500 से ऊपर पहुंचता रहता है। देश की सर्वोच्च अदालत ने अविलंब समस्या का समाधान निकालने का आदेश भी दिया, पर हुआ क्या? गहन निद्रा नें सोई हुई सरकारें एवं उसके तंत्र न्यायिक चाबुक से कितना जागीं? पुनः हालात ऐसे बिगड़े कि दिल्ली और राष्ट्रीय क्षेत्र के स्कूल-कॉलेज कई दिनों के लिए बंद करने पड़े।
इस बीच एकाध दो दिन के लिए अगर हवा की गुणवत्ता में कुछ सुधार आया भी, तो उसकी वजह हमारे सरकारों के प्रयास से नहीं, प्रकृति की करिश्माई थी। तेज हवा ने दिल्ली पर जमी प्रदूषण की परतों को धो-उड़ा डाला था। है न कमाल ? प्रकृति के प्रकोप से बचने के लिए हमें उसी प्रकृति की शरण में जाना पड़ता है, जिसे हम बर्बाद करते आए हैं।
हर बात में विश्व गुरु बनने का दावा करने वाली सरकार यह बताने से क्यों परहेज करती है कि 2008 में बीजिंग में ओलंपिक का आयोजन हुआ था, जिसे उस समय तक का सबसे प्रदूषित ओलंपिक आयोजन कहा गया था। 10 अगस्त, 2008 को बीजिंग की हवा में पीएम 10 का स्तर 604 माइक्रोग्राम प्रति घन (क्यूबिक) मीटर के आंकड़े पर पहुंच गया था। यही नहीं, साल 2014 में बीजिंग में फेफड़ों के लिए हानिकारक सूक्ष्म प्रदूषक पीएम 2.5 का स्तर सुरक्षित सीमा से 45 गुणा अधिक हो गया, जिसके बाद चीन सरकार ने प्रदूषण के खिलाफ बाकायदा जंग शुरू कर दी।
महज चार वर्षों में बीजिंग ने प्रदूषक तत्वों में 35 फीसदी की कमी सुनिश्चित की है, जबकि 25 फीसदी प्रदूषण कम करने से ही उनका काम चल जाता। इस लड़ाई को मुकाम तक पहुंचाने के लिए चीन सरकार ने 120 अरब अमेरिकी डॉलर का बजट सुनिश्चित किया। इसके लिए नए नियम गढ़े और उन्हें हर जगह कड़ाई से लागू किया गया। अत्यधिक प्रदूषण के शिकार शहरों के आस-पास कोयले से संचालित किसी नए पावर प्लांट को नहीं लगने दिया। ऐसे जो संयंत्र पहले से ही चल रहे थे, उन्हें अपना उत्सर्जन कम करने के निर्देश मिले। साथ ही कोयले से संचालित संयंत्रों को प्राकृतिक गैस पर आधारित किया गया। बीजिंग, शंघाई और गुआन लू जैसे बड़े शहरों में गाड़ियों की संख्या नियंत्रित की गई। लोहे और स्टील के उत्पादन को कम किया गया। चीन ने वह काबिले तारीफ काम कैसे किया?
चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री ने कहा था- ‘जिस तरह हमने गरीबी से जंग लड़ी, उसी दृढ़ता से हम प्रदूषण से भी मोर्चा लेंगे।’ यह ध्यान देने वाली बात है कि 2008 में जब बीजिंग इस दुर्दशा से जूझ रहा था, उस समय दिल्ली असुरक्षित होने के बावजूद बेहतर स्थिति में थी। ‘सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरमेंट के अनुसार, उन दिनों दिल्ली की हवा में पीएम 10 का स्तर अधिकतम 209 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर तक ही पहुंचा करता था।
बीजिंग ने बदतरीन हालात को दृढ़ इच्छाशक्ति के जरिए बेहतरीन बना लिया, जबकि भारत में इसका ठीक उल्टा हुआ हम अपने हुक्मरानों की अकर्मण्यता की सजा कब तक भुगतते रहेंगे। सरकारें आती-जाती हैं, कुर्सियों पर नेताओं के चेहरे बदलते रहते हैं, पर हमारे हुक्मरान सत्ता में आते ही एक तथ्य बिसरा देते हैं। वह यह कि सत्ता शक्ति के साथ कर्तव्य और जिम्मेदारियां भी सौंपती है। पर्यावरण की रक्षा इनमें सबसे महत्वपूर्ण दायित्व है। इसे अब तक कभी समूची गंभीरता से नहीं लिया गया है।
प्रकृति ने हमें एक खूबसूरत सा जीवन दिया था और अब उसे वापस ले रही है। पर क्या सच में! अगर कोई हमारी हत्या करने आए तो हम अपना बचाव कर सकते हैं। पर वो तो हम कर नहीं रहे यानी हम आत्महत्या करने पे उतारू हैं। अपना ही गला हम दबा रहे हैं और घूंट रहे तो हाथ खोल स्वयं को बचा भी नहीं रहे हैं।
हम अपना बचाव जानते हैं। पर हम बचने के लिए कुछ नहीं कर रहे। जैसे ही हाथ थोड़ा खुलते हैं हम भूल जाते उन बातों को जिससे हाथ कस गया था। आत्महत्या से हम ही हम को बचा सकते हैं। हमें ही खुद को रोकना होगा। रोकना होगा हरेक उस गलती से जिससे ये परिस्थिति आ रही है। ये हमें तय करना है कि आगे हमें कोहरा देखना है या कफ़न का दोहर ओढ़ना है।