प्रभु श्रीराम भारतीयों के रोम रोम में बसे हैं। यह एक निर्विवाद सत्य है कि हम भारतीय चाहे किसी भी धर्म, जाति के हों, ईश्वर में विश्वास करते हों, न भी करते हों पर राम की महिमा से बच्चा-बच्चा परिचित हैं। रामायण और मर्यादा पुरुषोत्तम की गाथा भला कौन नहीं जानता! एक ऐसी पूरी पीढ़ी अभी भी जीवित है जिसने अपने बड़ों के साथ बैठ रामानंद सागर कृत रामायण का लाभ उठाया है, उससे सीख ली है। बचपन से ही उसके हृदय में रामायण के सभी चरित्रों की छवि जस की तस अंकित है। हम आप उसी सुनहरी पीढ़ी का हिस्सा हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम हों, भ्राता लक्ष्मण, माँ सीते, पवनसुत हनुमान या इस पौराणिक कथा से जुड़ा कोई भी चरित्र; इन सबने मिलकर हम भारतीयों को गढ़ा है।
रामायण, मात्र रावण को मार देने या बुराई पर अच्छाई की जीत का किस्सा भर नहीं है बल्कि समाज में उच्च आदर्शों की स्थापना की आधारशिला है। संस्कारों की पाठशाला है, रामायण।
हृदय में प्रेम के इस भाव को लिए, पवित्र मन से जब आप ‘आदिपुरुष’ देखने बैठते हैं तो फ़िल्म के प्रथम दृश्य से ही यह पूर्वानुमान होने लगता है कि आप जिस आस्था और प्रेम से वशीभूत हो अपने श्रीराम को देखने आए थे, अब उन भावनाओं के साथ भयंकर वाला खिलवाड़ होने जा रहा है। जैसे-जैसे फ़िल्म आगे बढ़ती है, यह आशंका सच्चाई का रूप धर लेती है। अनायास ही वह देश जो राम जी की आस्था में तरबतर डूबा है, ‘आदिपुरुष’ को देख निराश हो उठता है। यहाँ हर दृश्य के साथ उसकी आस्था तिलमिलाती है। वह कभी हँसता, कभी चौंक उठता तो कभी माथा पीटता है। भीतर एक गहन उदासी का भाव भी साथ चलता है क्योंकि बार-बार उसका हृदय पूछता है कि मेरे राम कहाँ हैं इसमें? क्या यह वही रामायण है जो हमने पढ़ी, सुनी? क्या राम का स्वरूप ऐसा था? माता सीता ऐसी थीं? रावण चमगादड़ प्रदेश का निवासी था? लंका कोयले के रंग की थी या सोने की?
ये जनमानस के राम की छवि नहीं हैं
बात ‘लुक’ तक ही सीमित नहीं रह जाती, VFX को छोड़ दिया जाए तो फ़िल्म प्रत्येक स्तर पर निराश करती है। फिर चाहे वह पात्रों की वेशभूषा हो, चालढाल, भावभंगिमा या घटनाक्रम! संवाद तो और भी अधिक व्यथित कर देते हैं। अब आप इसे रामानंद सागर कृत रामायण का मायावी प्रभाव मानना चाहें तो मान लीजिए लेकिन राम की वही छवि जनमानस के भीतर विद्यमान है। वही भाषा और संवाद हमें पसंद हैं। हमारे प्रभु श्रीराम धीर-गंभीर, स्मित मुस्कान लिए, मर्यादित व्यवहार और सरल भाषा में ही अपनी बात कहते हैं। वे उखड़ा हुआ चेहरा लिए, माचोमैन क़तई नहीं हैं।
फ़िल्म निर्माताओं और पूरी टीम को एक बात स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि तकनीकी विकास के नाम पर आप पौराणिक गाथाओं को नहीं बदल सकते! और न ही विशुद्ध भारतीय, सीधी सरल जन भावना से जुड़ी गाथा, आदर्श चरित्रों या प्रतीकों का हॉलीवुडीकरण किया जा सकता है। हमारे ग्रंथों में श्रीराम की छवि ऐसी नहीं है! युवा पीढ़ी को रामगाथा बताने के लिए आप चरित्रों पर किसी आधुनिक, आक्रोशित छवि का मुलम्मा चढ़ाकर धुंधला नहीं सकते!
पात्रों का ‘यो यो संस्करण’ मिलता है इसमें
रामायण, महाभारत के माध्यम से रामानंद सागर एवं राही मासूम रज़ा ने एक पीढ़ी को भाषा के संस्कार दिए और मनोज मुंतशिर जी ने इसका यो यो संस्करण थमा दिया। यह भी सत्य है कि मनोज जी शानदार लिखते हैं और पूरी फ़िल्म ही ऐसे संवादों से नहीं भरी पड़ी। कई अच्छे भी हैं। लेकिन जब पात्र ईश्वरीय हों तो प्रत्येक संवाद और उसका एक-एक शब्द महत्वपूर्ण हो जाता है। यह तथ्य एक सनातनी हृदय को स्वतः ही समझ लेना चाहिए था कि जिन चरित्रों की दिव्यता सिद्ध है, उनसे टपोरी भाषा में एक संवाद तक बुलवाना कितना अनुचित है!
यदि आप रामायण में निहित आदर्श को ही बदल देंगे, उनकी भाषा को गली-मोहल्ले वाली बना देंगे, तो भावी पीढ़ियों को देने लायक या उनके ग्रहण करने को अब बचा क्या! क्या सीखेंगे आज के बच्चे? जो अजीबोगरीब संवाद (लिखने लायक नहीं हैं) फ़िल्म में कहे गए, यदि वे भी यही कहने लगें तो उन्हें क्या कहकर रोका जा सकेगा? वे तो तपाक से बोल देंगे कि रामायण में भी तो यही सब कहते थे। फिर आप इसे कैसे सिद्ध कर सकेंगे कि तब तो फ़िल्मकारों से गलती हो गई थी। क्या होगा जब दूसरे देश के लोग इस फ़िल्म को देख, यही रूपरंग, भाषा और कथानक को सच मान बैठेंगे? कम से कम इस फ़िल्म को देश के बाहर प्रसारित करने से बचना चाहिए कि अभिव्यक्ति कहीं बर्दाश्त के बाहर न हो जाए।
क्या यह मात्र एक फ़िल्म ही है?
यह विशुद्ध व्यावसायिक हितों के लिए बनाई गई फ़िल्म है। मेकर्स को पता है कि सत्ता का वरदहस्त है और समाज धर्म के नशे में चूर है। चलो, बहती गंगा में हाथ धो लेते हैं। लेकिन यहीं चूक हो गई। क्योंकि देशवासियों की आस्था चुनावी नहीं है। राम उनके हृदय में वास करते हैं। नमस्ते तो बहुत बाद में आया, गाँव में अब भी सुबह राम राम से ही शुरू होती है। इस देह को विदाई भी राम नाम के साथ ही दी जाती है। इसलिए इतना भी नहीं कि कुछ भी गटक लिया जाएगा!
क्या पचाना मुश्किल है?
यद्यपि अभिनय के आधार पर देखें तो जिसको जो रोल मिला, उस लिहाज से सभी ने अच्छा निभाया है। इससे अधिक कुछ उनके हाथ में था ही नहीं! हाँ, फ़िल्म में आश्चर्यचकित कर देने वाला इतना कंटेंट है कि सारा लिखा ही नहीं जा सकता। फिर भी कुछ देखिए –
*राघव के चेहरे से मृदुता, सौम्यता, तेज गायब है। स्मित मुस्कान कहीं-कहीं दिखती है पर मर्यादा पुरुषोत्तम वाली बात दूर-दूर तक नज़र नहीं आती! राघव बने प्रभास की संवाद अदायगी विजय दीनानाथ चौहान की याद दिलाती है।
*पहले ही दृश्य में रावण को जब ब्रह्मा जी वरदान दे रहे होते हैं तो वह क्रूरता से भर किसी फिल्म के खलनायक की भाव भंगिमा दर्शाता है। रावण विद्वत्ता से लबरेज़ नहीं बल्कि चमगादड़ नरेश या बैटमैन भी लगता है। वह एक ऐसा राजा भी है जो साँप से अपनी मालिश करवाता है। उसका सीना जरूरत से ज्यादा चौड़ा कर दिया है, कहीं-कहीं हल्क की छवि भी उभरती है।
*लक्ष्मण और हनुमानजी के मध्य प्रथम वार्तालाप तीन पहेलीनुमा चुटकुलों के माध्यम से होता है। उस समय लगता है कि राजश्री प्रोडक्शन की फ़िल्म चल रही।
*राघव और जानकी पर एक गीत फिल्माया गया है जो कभी शाहरुख-काजोल के ‘रंग दे तू मोहे गेरुआ’ तो कभी कैटरीना रनबीर के ‘तू जाने ना’ गीत की याद दिलाता है। इस गीत को रखने का औचित्य समझ से बाहर है।
*बजरंग (हनुमान जी) के पात्र से तनिक भी जुड़ाव नहीं हो पाता। उन्हें देख दारासिंह जी की बहुत याद आती है।
*लक्ष्मण जी को शेष कहना आसानी से पचता नहीं!
*रामसेतु बनाते समय बाँसों का ऐसा फ्रेम पीछे बना है जैसा आजकल इमारतों के निर्माण में बनता है।
सच तो यह है कि यदि बैकग्राउंड में बार-बार जय श्रीराम की धुन न बजती तो यह मानना भी मुश्किल होता कि दर्शक रामायण का फिल्मांकन देख रहे।
यह रामायण का ‘टू पॉइंट ओ (2.0) वर्ज़न’ है
रचनात्मक छूट के नाम पर भद्दा मजाक बनकर रह गई है यह फ़िल्म और इसे इस तरह प्रदर्शित करना महापाप की श्रेणी में आना चाहिए। जिस देश में भगवान श्रीराम के सहारे सत्ता परिवर्तन हो जाता है, जहाँ कोई दल इसलिए गलत नहीं माना जाता क्योंकि उसके नाम में हनुमान जी की प्रतिध्वनि निकलती है, वहाँ ‘आदिपुरुष’ जैसी फ़िल्म का इस तरह सेंसर से पास हो देशभर में प्रदर्शित हो जाना यक़ीनन किसी दुस्साहस से कम नहीं! क्योंकि इस फ़िल्म ने रामायण की मूल भावना को ही ध्वस्त कर दिया है। इसे देख न तो आपके भीतर आस्था जागेगी और न ही कोई नवीन भाव उमड़ेगा। मन को छू सके ऐसा कुछ भी नहीं यहाँ। बस एक तुलनात्मक अध्ययन ही साथ चलता है। इससे अधिक आनंद मोहल्ले की रामलीला में आता है।
मजे की बात यह है कि छह माह के सुधार के बाद ये सामने आया है तो भाग्य को सराहिए कि पहले क्या हुआ होता।
कहा जा सकता है कि सतही आस्था का परिणाम ‘आदिपुरुष’ होता है। कुल मिलाकर ‘आदिपुरुष’ पुरानी रामायण का माचो संस्करण है। आज की पीढ़ी की भाषा में कहें तो ‘टू पॉइंट ओ (2.0) वर्ज़न।