“चेतना से चिंतन की ओर मुखरित प्राणी जगत ने जहां सर्वप्रथम चेतना की सुप्तावस्था अर्थात पाषाण के प्रति अपनी श्रद्धा, आस्था एवं मान्यता पूज्य स्वरूप में व्यक्त की, वहीं पेड़ – पौधों अर्थात वृक्ष के पवित्रतम स्वरूप की अभिवृद्धि को जीवंत स्वरूप में चेतना की जागृति के साथ, समादर भाव भी अभिव्यक्त किया गया और जीव – जंतुओं में चेतना की गतिशीलता को जीवन की नवीनता के सानिध्य स्वरूप में स्वीकार करने के साथ ही मानवीय चेतना को चिंतन की श्रेष्ठता के प्रति अत्यंत सहजता के साथ नैसर्गिक रूप से अभिप्रेरित हो जाने की स्थितियां निर्मित हो गई क्योंकि मानवीय चेतना ने ही उत्कृष्ट चिंतन के माध्यम से प्रकृति से जीवंत संबंध निर्मित करने हेतु भावनात्मक अर्थात पूज्य स्वरूप के आशीष में गरिमामई अभिव्यक्ति प्रदान की थी । जीव जगत का प्रकृति से नैसर्गिक जुड़ाव आदि काल से ही रहा है क्योंकि मनुष्यता और उससे संबद्ध, सभ्यता की भूमिका निभाने में प्रकृति का विराटता से युक्त नैसर्गिक संदर्भ एवं प्रसंग में अति महत्वपूर्ण योगदान सदा से ही अछुण्य रूप में विद्यमान रहा है । मानव जीवन के प्रति सम्मानजनक दृष्टिकोण का प्रथम आयाम स्वीकार्य होने पर – ‘जीवात्मा की बोधगम्यता का वास्तविक यथार्थ आत्म हित’के साथ व्यक्तिगत आदर एवं सत्कार के रूप में अनुभव द्वारा प्राप्त होता है जिससे निसर्ग के प्रति व्यावहारिक रूप से गहन अनुराग स्वयं ही विकसित हो जाता है। पंच तत्व से निर्मित प्रकृति के रहस्य को समझने में दक्ष मानव जाति सदा ही प्रकृति की विराटता से संबंध रखते हुए स्वयं की शारीरिक संरचना को सक्षम’बनाने हेतु अंतःकरण से ‘सृजनात्मक समझ के साथ संतुलित व्यवहार के द्वारा सुदृढ़ सामंजस्य’ को विशुद्ध स्वरूप से स्थापित करने में संलग्न रहती है।”
नैसर्गिक स्वरूप के विभिन्न जीवन उपयोगी पक्ष :
संपूर्ण जीवन काल में जब साधना के मार्ग पर व्यक्ति अग्रसर होता है तब – ‘साधक स्वयं को साध्य तक पहुंचाने के लिए शरीर रूपी साधन की पवित्रता के धर्म …’को पूरी तरह से निभाता है जिसमें जीवात्मा के माध्यम से – ‘गौरवान्वित नैसर्गिक स्वरूप के विभिन्न जीवन उपयोगी पक्ष पूर्णरूपेण स्पष्टता’ से परिलक्षित होते रहते हैं ।
आत्म कल्याण से जुड़े हुए सभी संदर्भ और प्रसंग के उदाहरण – ‘स्वयं को परिमार्जित तथा परिष्कृत करने से संबंधित …’ होते हैं जिसमें – ‘परिवर्तन संसार का अनिवार्य तथा महत्वपूर्ण नियम है …’ जिसे अत्यधिक सहजता एवं सरलता के स्वरूप में स्वीकार करते हुए – प्रकृति के नियमों पर आधारित जीवन को भाव और विचार जगत से आत्मसात करना आवश्यक होता है । जीवन की उच्चतम स्थितियों के सानिध्य में गतिशील सर्व मानव आत्माओं ने स्वयं को साधने के लिए आत्मा के – ‘स्वमान, स्वरूप तथा आत्मिक निजी स्वभाव की धारणात्मक मनोवृति …’को सदा से ही अनुकरण किया है जो उनकी – ‘ज्ञानार्जन के प्रति व्यक्तिगत रूप से अगाध निष्ठा का सुखद …’परिणाम है ।
प्रकृति के सानिध्य द्वारा गतिशील जीवन शैली :
कर्म क्षेत्र की वास्तविक स्थिति शरीर एवं आत्मा के संतुलन द्वारा ही सुनिश्चित हो पाती है जिसमें – ‘निरोगी काया के माध्यम से सुख और आत्मगत चेतना के पुरुषार्थ से आत्मिक शांति…’ की प्राप्ति निर्धारित होती है जो – ‘श्रेष्ठ संकल्प की सकारात्मकता से श्रेष्ठ विकल्प की सार्थकता …’को सिद्ध करने में पूर्ण सक्षमता के साथ समर्थ होती है । चेतना की चैतन्यता को जीवन का महत्वपूर्ण आधार बनाकर, ज्ञान – बोध, योग – सत्कर्म, धारणा – अनुसरण, सेवा – परोपकार, क्षमा – कल्याण, तथा आत्मिक – समृद्धि को प्राप्त करने हेतु – ‘मानव सेवा से माधव सेवा का महामंत्र …’ प्रकृति के सानिध्य द्वारा गतिशील जीवन शैली को व्यवहारिक स्वरूप में प्रतिबिंबित करते हुए – ‘प्रकृति के नियमों पर आधारित सुखी जीवन को सक्षम एवं समर्थ पुरुषार्थ …’ की प्रासंगिकता के लिए प्रतिपादित किया जा सकता है । ”
जीवात्मा की बोधगम्यता एवं निसर्ग से अनुराग :
आत्म चेतना के विकास अनुक्रम में जीवात्मा की बोधगम्यता का यथार्थ – ‘बड़े भाग्य मानुष तन पावा …’ से आरंभ होता हुआ गतिशील रहता है जिसमें – ‘स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ आत्मा का निवास होता है …’ सत्यता की इस वास्तविक पृष्ठभूमि को मानव जाति, जीवन पर्यंत स्वीकारते हुए अनुभवी बन जाती है । प्रकृति के पंच तत्वों में संपूर्ण जीवन काल के अंतर्गत – ‘श्रद्धा, आस्था एवं मान्यता का स्वरूप …’ सदा ही पूजनीय स्थितियों में विद्यमान रहता है जो मनुष्य को निसर्ग के प्रति गहनतम अनुराग से संबद्ध कर देता है और अंतत: आत्मीय अंतरसंबंधों की सुखद परिणीति का महत्वपूर्ण आधार स्तंभ बन जाता है ।
संपूर्ण प्रकृतिगत संरचना और सृजनात्मक समझ
मानवीय चित और चरित्र के श्रेष्ठतम सामंजस्य से – ‘पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश …’ से निर्मित संपूर्ण प्रकृति और मनुष्य की शारीरिक संरचना का सकारात्मक सह – संबंध मानव जीवन को सदैव – ‘प्रकृति की ओर, लौट चलने का आह्वान …’ करता रहा है ।
जीवन की गतिशीलता में मनुष्य की खोजपूर्ण – ‘वृत्ति, प्रवृत्ति तथा मनोवृति …’ के कारण ही संपूर्ण व्यक्तित्व – ‘मन, वचन एवं कर्म …’ के प्रति सृजनात्मक समझ और सुदृढ़ सामंजस्य का संतुलित निर्माण सुनिश्चित हो सका है जो – ‘जीवात्मा को गरिमामय जीवन जीने के लिए …’ अनुप्राणित करने में मददगार भूमिका निभाता है ।
साधन की पवित्रता तथा जीवात्मा का स्वरूप :
साधना के क्षेत्र में साधक के समक्ष – ‘महान साध्य की जीवंत उपस्थिति, साधन की पवित्रता के धर्म …’पर विशेष बल देती है जिसके कारण आत्मा के – ‘पवित्रतम स्वरूप की महानतम उपलब्धिपूर्ण प्राप्ति, आत्मानुभूति … ’के माध्यम से इसी जन्म में होने से – ‘तपस्वी मानव आत्माएं शेष जीवनकाल का शुद्ध उपयोग करने हेतु सदैव सजगता के साथ पुरुषार्थ करती रहती हैं । आत्मगत स्वमान के प्रति संपूर्ण समर्पण के साथ जीवात्मा पूर्णत: परमात्मा से संबंध स्थापित करके ही चेतना – ‘आत्मज्ञान, सुख, शांति, आनंद, प्रेम, पवित्रता एवं शक्ति की उच्चतम अनुभूति …’ से नैसर्गिक रूप में अर्थात – ‘अनादि, आदि, पूज्य, ब्राह्मण और फरिश्ता स्वरूप के आत्मिक …’ अभ्यास से जीवात्मा का गौरवान्वित, नैसर्गिक स्वरूप विराटता के सानिध्य में प्रकट होता है ।
परिवर्तन का नियम एवं प्रकृति आधारित जीवन :
मानव जाति के समक्ष सर्वाधिक वृहद चुनौती – ‘किसी भी नवीन परिवर्तनकारी व्यवस्था को भले ही वह आत्म हित से जुड़ी …’हो उसे स्वीकार करने की होती है जिसमें – ‘परिवर्तन संसार का अति महत्वपूर्ण नियम है …’यह सत्य मनुष्य के द्वारा स्वयं जानने और उसे पूरी तरह से मानने के अनुभवी दौर से नित – नूतन रूप में व्यक्ति स्वयं ही गुजरता रहता है । नैसर्गिक जीवन की सत्यता से साक्षात्कार हो जाने पर बहुआयामी – ‘व्यक्तित्व, कृतित्व एवं अस्तित्व के धनी, मानवीय संवेदनशील पृष्ठभूमि …’में जीवंत रूप से संबद्ध व्यक्तियों द्वारा – ‘प्रकृति के नियमों पर आधारित जीवन शैली का अनुकरण …’और अनुसरण होने के कारण – ‘निरोगी काया अर्थात शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक शक्तियों … की अनुभूति का स्वरूप सर्व मानव आत्माओं के लिए प्रेरणादाई स्वरूप में निर्मित हो जाता है ।
आत्मा का स्वभाव और ज्ञानार्जन की निष्ठा :
आध्यात्मिक क्षेत्र की उच्चता हेतु स्वयं को समर्पित करने में, समर्थ मानव आत्माओं ने भी यह स्वीकार किया है कि – ” आत्मिक निजी स्वभाव की उपलब्धि, नियम – संयम, जप – तप, ध्यान – धारणा, स्वाध्याय – सत्य, प्रेम – अहिंसा, धर्म – कर्म, अध्यात्म – पुरुषार्थ, राजयोग – मौन को आत्मसात करके ही उन्होंने सर्वधर्म – समभाव, बहुजन हिताय – बहुजन सुखाय, सर्वे भवंतू सुखिन: और वसुधैव कुटुंबकम … ” की व्यवहारिकता को प्राप्त करने में महानता का मुकाम हासिल किया है । जीवन में समयानुसार आवश्यक परिवर्तन के साथ – ‘अनिवार्य एवं उपयोगी बदलाव सदा ही व्यक्ति के लिए मददगार सिद्ध हुए हैं …’क्योंकि मानव जाति ने सदा से ही नवीनतम ज्ञान अर्जन के प्रति व्यक्तिगत निष्ठा को अभिव्यक्त करके – ‘श्रद्धावान लभते ज्ञानम् …’के मूल मंत्र को साकार करने की पहल की है इसलिए सृष्टि पर – ‘मातृ देवो भव:, पितृ देवो भव:, आचार्य देवो भव:, सत्यं वद, धर्मं चर …’के सिद्धांत एवं व्यवहार फलीभूत स्वरूप में विकसित होकर, मानव जाति का समग्रता के साथ – उत्थान एवं कल्याण करने में सफल सिद्ध हो सके हैं ।
निरोगी काया सुख तथा श्रेष्ठतम संकल्प विकल्प :
प्रकृति के सानिध्य में गतिशील जीवन शैली के व्यवहारिक स्वरूप को अपनाने हेतु – ” सेवा अस्माकं धर्म:, के सानिध्य द्वारा सृजनात्मक स्वरूप के माध्यम से अनुभव युक्त प्रकृति के नियमों पर आधारित, रोग – चिकित्सक – दवा – मुक्त, जीवन से संबंधित साहित्य… ” का पठन – पाठन तथा मनन – चिंतन अर्थात संपूर्ण रूप से परायण करके एक सामान्य व्यक्ति भी दैनिक जीवन के आचरण में पूर्णता के साथ लागू करके – ‘निरोगी काया से सुख प्राप्ति..’को संपूर्ण रुप से सुनिश्चित कर सकता है । व्यवहारिक जीवन के परिदृश्य में – ‘श्रेष्ठतम संकल्प द्वारा श्रेष्ठतम विकल्प …’का आशावाद संपूर्ण व्यक्तित्व को सहजता से – ‘सकारात्मक जीवन से सार्थक जीवन की ओर …’गतिशील कर देने में सक्षम होता है जिसकी परिणति दुर्लभ मानव जीवन के लिए – प्रकृति की ओर पुनः लौट आने का आह्वान से संबद्ध चिंतन ही ‘प्रकृति के नियमों पर आधारित, सरल, सुलभ और व्यवहारिक समाधान के रूप में एक वैचारिक क्रांति का अग्रदूत बनकर रोग – चिकित्सक – दवा – मुक्त अभियान …’ का श्रेष्ठतम स्वरूप धारण करके, मानव जीवन के लिए वरदानी और उपयोगी मार्गदर्शक के रूप में निश्चित ही सुविकसित हो जाता है ।
मानव सेवा से माधव सेवा का सन्मार्ग :
मानव सेवा से माधव सेवा के पवित्र संकल्प द्वारा – ‘स्वस्थ जीवन शैली के वैकल्पिक उपाय को विधिवत एवं न्याय संगत स्वरूप में सृजन धर्म …’का निर्वहन करते हुए स्वयं प्रकृति ने ही संपूर्ण मानव जाति को प्राकृतिक एवं आयुर्वेदिक पद्धति से मार्गदर्शन एवं परामर्श और उपचार हेतु मददगार भूमिका निभाते हुए … ” अनुभव युक्त उपयुक्त व्यवहारिक सलाह के साथ निजी स्तर पर जीवन के लिए अति उपयोगी – ‘सहृदय रूप में अनेकानेक पीड़ित व्यक्तियों को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से सदा ही सहयोग भी प्रदान किया है जिसके परिणाम, अत्यंत ही संतोषजनक तथा सुखी जीवन की प्राप्ति समस्त जीव – जगत द्वारा सहज रूप …’से स्वीकार की गई है । अतः प्रकृति प्रदत्त दातापन की नैसर्गिकता, उदारता के संदर्भ एवं प्रसंग में व्यावहारिक अभिव्यक्ति के माध्यम से – ” प्रकृति के नियमों पर आधारित रोग – चिकित्सक – दवा मुक्त जीवन…” संपूर्ण मानवता के लिए हितकारी, कल्याणकारी एवं मंगलकारी स्वरूप का पर्याय बन जाने की प्रासंगिकता में नित्य – नूतन रूप से संलग्न रहते हुए प्रकृति की संपूर्ण नैसर्गिक पवित्रता, प्राणी मात्र के लिए नवजीवन का आधार स्तंभ बनकर पुनर्जीवन स्वरूप द्वारा अतीत, आगत एवं अनंत की व्यापक संभावनाओं के सानिध्य में आज भी निरंतर रूप से गतिमान बनी हुई है।